Srimad Bhagavatam 02.02.37
05-02-2025
ISKCON Prayagraj

पिबन्ति ये भगवत आत्मन: सतां

कथामृतं श्रवणपुटेषु सम्भृतम् ।

पुनन्ति ते विषयविदूषिताशयं

व्रजन्ति तच्चरणसरोरुहान्तिकम् ॥ ३७ ॥

 (2 .2 .37)

 पिबन्ति- पीते हैं, ये- जो, भागवत:- श्री भगवान का, 

आत्मन:-  अत्यंत प्रिय, सताम्-भक्तों के, कथामृतं- संदेश रूपी अमृत, श्रवणपुटेषु- कान के छेदों के भीतर, सम्भृतम्- परिपूरित, पुनन्ति- पवित्र करते हैं, ते-उनके, विषय-भौतिक  भोग, विदूषित आशयम्- कलुषित जीवन लक्ष्य, व्रजन्ति- वापस जाते हैं, तत् -भगवान के,  चरण-चरण, सरोरुहंतिकम्- कमल के निकट। 

भाषांतर और तात्पर्य श्रील प्रभुपाद के द्वारा, श्रील प्रभुपाद की जय! 

जो लोग भक्तों के अत्यंत प्रिय भगवान श्रीकृष्ण की अमृत तुल्य कथा को कर्णरुपि पात्रों में भर-भरकर पीते हैं वे भौतिक भोग  के नाम से विख्यात दूषित जीवन उद्देश्य को पवित्र कर लेते हैं और इस प्रकार पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर के चरण कमलों में भगवदधाम  को वापस जाते हैं। 

मानव समाज के सारे कष्ट दूषित जीवन-उद्देश्य अर्थात् भौतिक संसाधनों पर प्रभुत्व जताने के कारण हैं।  मानव समाज अविकसित भौतिक संसाधनों का जितना ही दोहन अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए करता है, वह उतना ही श्रीभगवान की भ्रामक भौतिक शक्ति माया द्वारा बँधता जाता है और  इस प्रकार  विश्व के कष्ट घटने की बजाए बढ़ते जाते हैं। भगवान मानव जीवन की समस्त आवश्यकताओं की यथा अन्न, दूध, फल, लकड़ी, पत्थर,चीनी, रेशम, रत्न,कपास, नमक, जल,  तरकारी, आदि की प्रचुर मात्रा में पूर्ति करते हैं ,जिससे विश्व की मानव जाति के साथ ही ब्रह्माण्ड के प्रत्येक ग्रह के अन्य जीवों का भी भरण पोषण हो सके। पूर्ति के सारे साधन हैं  और न्याय संगत प्रणाली से अपनी आवश्यकता प्राप्त करने हेतु मनुष्य को थोड़ीसी शक्ति व्यय करने की आवश्यकता होती है। जीवन में कृत्रिम रूप से ही सुविधाएँ उत्पन्न करने के लिए यंत्रों तथा औजारों या बड़े बड़े इस्पात उद्योगों की आवश्यकता नहीं है। जीवन कभी कृत्रिम आवश्यकताओं द्वारा विश्रामदायक नहीं बनाया जा सकता। वह तो सादा जीवन उच्च विचार से ही आरामदेह बनता है। यहाँ पर श्रील शुकदेव गोस्वामी ने  मानव समाज के लिए उच्चतम चिंतन का सुझाव दिया है। यह है श्रीमद्भागवत का ठीक से श्रवण करना। इस कलियुग के मनुष्य ने जीवन की पूर्णदृष्टि खो दी है और यह श्रीमद् भागवतम् उनके लिए प्रकाशपुंज के समान है जिससे असली मार्ग देखा जा सकता है। 

श्रील जीव गोस्वामी प्रभुपाद ने भी इस श्लोक में आये कथामृत् शब्द की व्याख्या की है और यह संकेत किया है कि श्रीमद् भागवत भगवान का  अमृतमय संदेश है। श्रीमद् भागवत के पर्याप्त श्रवण से जीवन के दूषित लक्ष्य प्रकृति पर प्रभुता जताना शमित होगा और संसार-भर के लोग ज्ञान तथा आनंद के साथ शांतिमय जीवन बिता सकेंगे। 

श्रील प्रभुपाद की जय! ये प्रभुपाद के तात्पर्य का स्वागत हो रहा है, हरि हरि!

श्रीभगवान के शुद्ध भक्त के लिए श्रीभगवान के नाम, यश,  गुण,पार्षद आदि से संबंधित कोई भी कथा आनंदमय  होती है और चूँकि ऐसी कथाओं का अनुमोदन नारदजी, हनुमान जी, नंद महाराज तथा वृन्दावन के अन्य निवासियों द्वारा किया गया है, अतएव ऐसे संदेश निश्चय ही दिव्य तथा हृदय एवं आत्मा को भाने वाले हैं।  यहाँ पर श्रील शुकदेव गोस्वामी आश्वस्त करते हैं कि श्रीमद् भागवत गीता तथा उसके पश्चात श्रीमद्भागवत की कथाओं को निरंतर सुनते ही रहने से मनुष्य श्रीभगवान के पास पहुँचकर, विशाल कमल सदृश गोलोक वृंदावन नामक आध्यात्मिक ग्रह में भगवान की दिव्य प्रेममयी सेवा कर सकेगा। इस प्रकार इस श्लोक में बतायी गई भक्तियोग की विधि को प्रत्यक्ष स्वीकार करने से अर्थात श्री भगवान् की दिव्य कथा के पर्याप्त श्रवण से श्रीभगवान के निर्विशेष विराट रूप की धारणा का चिंतन किए बिना ही  मनुष्य का भौतिक कल्मष प्रत्यक्ष रूप से दूर हो जाता है।

यदि अभ्यासकर्ता भक्तियोग का अभ्यास करने से भौतिक कल्मष से दूर, शुद्ध नहीं हो पाता तो उसे छद्म भक्त समझना चाहिए। ऐसे पाखंडी के लिए भवबंधन से छूटने हेतु कोई उपाय नहीं है। इस प्रकार श्रीमद् भागवत के द्वितीय स्कंध के अंतर्गत “हृदय में श्रीभगवान” नामक द्वितीय अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।

ग़ौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

पूर्णाहुति हो रही है।

“पिबन्ति ये भगवत आत्मन: सतां

कथामृतं श्रवणपुटेषु सम्भृतम् ।

पुनन्ति ते विषयविदूषिताशयं

व्रजन्ति तच्चरणसरोरुहान्तिकम्” ॥ 2.2.37।।

मैं नोट कर रहा हूँ, लिख नहीं रहा हूँ। लेकिन जब श्लोक मैंने पढ़ा, तो मेरा ध्यान आकृष्ट हुआ इन तीन “क्रियापदों” की ओर।

पहला है पिबन्ति, दूसरा है पुनन्ति, और तीसरा क्या है? “व्रजन्ति”।

ये-ये करने से ये-ये होगा इस प्रकार। बात तो एक ही कही है,  “पिबन्ति” मतलब पान करने से। ‘ पिबसी धातु है संस्कृत में, जो पीते हैं। क्या पीते हैं? भागवत कथा ही कहिए। जिसको यहाँ अमृत ही कहा है या कथामृत कहा है। यह अमृत का ज़माना है, अमृत की काफ़ी चर्चा है। समुद्र मंथन से उत्पन्न वो अमृत कुंभ में था, पॉट या बर्तन या पिचर में था और वो कुंभ धन्वंतरि भगवान के हाथ में था। वैसे भगवान ही प्रकट हुए उस कुंभ के साथ जिसमें अमृत था। उसके पहले बहुत कुछ भी उत्पन्न हुआ था, शुरुआत तो ज़हर से हुई थी। ऐसा तो सोचा नहीं था कि ज़हर भी उत्पन्न हो सकता है। ज़हर से शुभारंभ तो नहीं, अशुभारंभ ही हुआ।  हरि हरि! ये तो “शिवजी” ने संभाला और वे सारा ज़हर का पान किये। लेकिन पेट तक पहुंचाएं नहीं, कंठ में ही धारण किए हैं। ज़हर का जो रंग होता है थोड़ा “काला, नीला” तो उसी रंग का शंकर जी का कंठ दिखने लगा। इसलिए  उनका नाम भी हुआ एक, क्या नाम हुआ? नीलकंठ। 

उसके उपरांत कई सारे अन्य रत्न भी उत्पन्न हुए उस प्रयास में। एक बहुत बड़ा प्रयास या ये एक प्रकार का यूनिवर्सल अफेयर रहा। किसी गली में या कहीं कॉर्नर मैं नहीं, बल्कि ब्रह्माण्ड के मध्य में यह घटना घट रही थी और मंथन हो रहा था। मंथन होने की बात जब हम सुनते हैं, तो हमें एक घड़ा दिखता है उसमें छोटी सी “मथनी” होती है और रस्सी होती है। हो सकता है यशोदा का भी मंथन हमें याद आया होगा। आजकल तो माताओं ने मंथन करना छोड़ दिया है। मुझे भी याद आता है कि मेरी मैया भी गाँव में हर रोज़ मंथन किया करती थी। मंथन जब हम कहते- सुनते हैं तो यह दृश्य हमारे समक्ष खड़ा होता है।  किंतु ये मंथन तो क्षीर सागर का मंथन हो रहा है और मथनी कौन सी है? मंदराचल की मथनी बनाई है। मथनी है तो रस्सी भी चाहिए तो वासुकि भी हैं। एक मंदिर भी है यहाँ तो वासुकी का। वासुकी ने स्वीकार किया कि “ आप मुझे रस्सी के रूप में स्वीकार कर सकते हो”। मथने वाले कितने हैं? जब मंथन होता है तो अधिकतर एक व्यक्ति करता है लेकिन यहाँ ३३ करोड़ देवता और असुर भी उतने ही या उससे अधिक भी हो सकते हैं।  उनकी संख्या अधिक होती है। इतने लगे हुए हैं मंथन में।

ऐसा विशाल दृश्य हमारे समक्ष खड़ा होना चाहिए जिसका प्रयोजन है भव्य- दिव्य। एक-एक करके कई सारे “रत्न उत्पन्न” होते हैं ,ज़हर के उपरांत। हम नहीं कहेंगे जो १४ रत्न उत्पन्न होते हैं और उनका वितरण भी होता है।

सुरभी गाय निकली तो कहा गया कि ऋषि- मुनि आप लेलो इसको। एक घोड़ा भी उत्पन्न हुआ उच्चैश्रवा। यहाँ भी घोड़े होंगे आप की नगरी में। पुलिस कुछ तो घोड़े पर सवार होकर सिक्योरिटी संभाल रही है। यह घोड़ा तो पहाड़ जैसा ऊँचा था  और उसकी पूंछ बादलों को हिला रही थी। वह बली महाराज को दे दिया। फिर हाथी निकला, कौनसा हाथी? ऐरावत। उसके भी आठ रूप थे वो एक ही साथ आठ दिशाओं में जा सकता था। तो उसका भी  जितना विशाल रूप होगा, हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।थोड़ा कोशिश तो कर रहे है, वो प्राप्त होता है इंद्रदेव को, इंद्र को।

एक बाल चंद्रमा भी उत्पन्न होता है। ‘ बाल’ मतलब पूर्णेन्दु नहीं है, वह पूर्ण नहीं है ,पूर्णिमा का चंद्रमा नहीं, बलि आधे से भी आधा होता है, जो शायद चतुर्थी या पंचमी का चंद्रमा होता है। यह शिवजी को दे दिया जाता है। शिवजी अपनी जटाओं मैं उसको धारण करते हैं। ज़हर पान से जो गर्माहट उत्पन्न हुई होगी उसके बाद ठंडक उत्पन्न कराने हेतु चंद्रमा की शीतलता आपको प्राप्त हो। इसे धारण किया तो शिवजी हो गए “चंद्रमौली”। शिवजी कहलाते हैं चंद्रमौली। फिर कौस्तुभ मणि उत्पन्न होती है।

वह किसको प्राप्त होता है? विष्णु को या भगवान को दिया जाता है और तब से भगवान पहनने लगे। नहीं तो पहले वैकुंठ में जो लोग जाया करते थे वे भ्रमित हो जाते थे क्योंकि वहाँ सभी भगवान के जैसे ही दिखते है चतुर्भुज,  मुकुट धारण किए और वस्त्र भी वैसे ही पहनते है।

भगवान कौन और साधारण जनता (पॉपुलेशन) कौन है, कैसे पहचानेंगे ? एक पहचान क्या है, जिनके गले में कौस्तुभ मणि है, वही भगवान है। बाकी सब तो जनता;  जनता पार्टी, जनता पक्ष। यह सब मुझे कहने के लिए समय कहाँ है? इस प्रकार तो सात दिन की कथा होगी अगर इस रफ़्तार से कहना चाहेंगे तो।

और फिर लक्ष्मी मैया की जय!

मुझे पता नहीं, वही कारण है क्या? वहाँ जब हम वेणी-माधव का दर्शन करने गए थे, तो मुझे पता नहीं चल रहा था कि कौन से दो विग्रह है? मैंने सुना सनक सनातन प्रभु बता रहे थे कि एक है लक्ष्मी और दूसरे है नारायण, उन्ही को वेणी-माधव भी कहते है। प्रयाग में कई सारे माधव है, द्वादश माधव है। वैसे बारह अलग-अलग माधव मंदिर है, उनमें से प्रमुख मंदिर तो वेणी-माधव है , वेणी या त्रिवेणी संगम तो उनके ही नाम से है। राधा रानी की भी वेणी होती है  तो मैंने सोचा राधा और माधव होंगे, लेकिन वे विग्रह तो लक्ष्मी- नारायण है। मैं अभी और सोच रहा हूँ कि वैसा ही कनेक्शन है या नहीं है किसको पता?  कृष्णा को पता, भगवान ही जानते हैं। लक्ष्मी भी उत्पन्न हुई उस समुद्र मंथन के समय और यह बात श्रीमद् भागवत की मैं कहते रहता हूँ, मैंने यह नोट किया है कि श्रीमद् भागवत के आठवें स्कंध के आठवें अध्याय के आठवें श्लोक में लक्ष्मी की उत्पत्ति का वर्णन किया है। फिर वैसे लक्ष्मियों की संख्या भी कितनी होती है ? अष्टलक्ष्मी  तो इन लक्ष्मी का उल्लेख आठवें स्कंध के आठवें अध्याय के आठवें श्लोक में भागवतम् में हुआ है। नारायण को कौन पूछता है? लक्ष्मी है , तो सब दौड़ते है, सब लक्ष्मी को चाहते है। लक्ष्मी वैसे सागर की कन्या है इसको भी समझना चाहिए क्योंकि कई बार अलग-अलग कहते हैं कि सागर की कन्या, समुद्र की पुत्री लक्ष्मी।  वो वरमाला लेके देख रही थी, चयन कर रही थी, तो उसने नेती-नेती कहा, यह वाला नहीं,वो वाला नहीं, यह भी नहीं, वह भी नहीं। कइयों में कोई त्रुटि, कोई अभाव, कुछ कमी देख ही रही थी तो फिर अंत में उन्होंने क्या किया?  नारायण के गले में अपनी माला अर्पित की। हरि बोल !!! इस प्रकार लक्ष्मी हो गई किसकी? नारायण को प्राप्त हुई। और भी कई सारे रत्न उत्पन्न होते है, अभी नहीं कहेंगे। अंत में धन्वंतरि भगवान प्रकट होते है जिसकी प्रतीक्षा थी सभी को। किसकी प्रतीक्षा थी? अमृत की प्रतीक्षा थी। वैसे समुद्र मंथन करने की ये जो योजना है, उसको भगवान ने ही कहा था कि तुम आप लोग मंथन करो, समुद्र का मंथन करो। उससे अमृत प्राप्त होगा, देवता आप लोग उसको पीना और फिर आप सशक्त, समर्थ ,अजर, अमर होंगे। और फिर उन राक्षसों को बड़ी आसानी के साथ लिटा दोगे या परास्त करोगे, आप विजयी होंगे, आपकी जय निश्चित है, आप अमृत पान करो। अमृत पान करने का शुरुआत में केवल देवता ही नहीं सोच रहे थे, असुर भी तो सोच रहे थे कि जब अमृत उत्पन्न होगा तो, हम भी पिएंगे। हरि हरि! 

तो जैसे अमृत उत्पन्न हुआ, अभी तो “कुंभ” में है, एक पॉट/ बर्तन/ पिचर जो भगवान धन्वंतरि के हाथ में है। तो सब लड़ने लगे, “ अहम पूर्वम, अहम पूर्वम,”, हम पहले, हम पहले।  तो खींच-तानी, टग ऑफ वॉर या हाथा-पायी कहो या मारामारी। मारामारी आप कहते हो? हम तो महाराष्ट्र में खूब कहते थे मारामारी,अब नहीं कहते। जब सब झगड़े-रगड़े ( ये एक अच्छा शब्द है झगड़े- रगड़े) चल रहे थे देवता और असुरों के मध्य में,  उसको रोकने के लिए भगवान आए। भगवान चाहते है कि इस अमृत का पान केवल और केवल देवता करें और असुरों को एक बूंद भी नहीं मिलनी चाहिए। देखो कैसे भगवान? समदृष्टि तो नहीं है भगवान की ऐसा लगता है। कैसे समदृष्टि वाले भगवान? किंतु उनको करना क्या होता है?  

“परित्राणाय साधूनां” ( देवता साधु है)

“विनाशाय च दुष्कृताम्” (दुष्टों याने असुरों का संहार)

यही करने के लिए तो भगवान 

“सम्भवामि युगे- युगे” ( हर युग में आते है)

फिर वे रहते भी है विष्णु के रूप में, वे पालक / अनुरक्षक है,  सबको संभालते है।  उनका विशेष ध्यान होता है  भक्तों की ओर और देवता भक्त ही है, उनके सेवक है। सरकार ने तो और कुछ किया था  जब (लॉकडाउन) चल रहा था लेकिन जो असुरी प्रवृत्ति के लोग है वे सोच रहे थे,”  अरे जीना तो क्या जीना, शराब के बिना”।  सरकार को आई दया (आगे और भी दया आने वाली है) तो उन्होंने क्या किया? केवल शराब की दुकाने खोल दी। जब बाकी सब बंद था तो केवल एक बात खुल गई, वो क्या थी ? शराब की दुकानें। फिर वहाँ इतनी भीड़ एकत्रित हो रही  थी, “अहम पूर्वम्, हम पहले,  हमको बॉटल पहले”  वहाँ दंगल होने लग गया।  सिक्योरिटी का मामला, सरकार का होमवर्क बढ़ गया उन्हें नियंत्रित करने के का।  फिर सरकार ने क्या सोचा? सरकार को और दया आ गई  कि अब से होम डिलीवरी होगी। किसकी होम डिलीवरी? शराब की होम डिलीवरी। भारत माता की जय! कहते तो है हम भारत या महाभारत, लेकिन अब कैसा भारत? भारत तो नहीं रहा अब वो  “इंडिया” हो गया है जहाँ सब प्रकार का पान , नशापान ,फाइन वाइन और न जाने क्या क्या चलते हैं।  यहाँ जब अमृत उत्पन्न होता है, तो भगवान को एक और अवतार लेना पड़ा, वो था “मोहिनी अवतार”। 

सबको और स्पेशली असुरों को मोहित करने के लिए, सम्मोहित करने हेतु भगवान मोहिनी अवतार बने। मोहिनी मूर्ति भगवान ने यह चार्ज अपने हाथ में लिया और कहा, “मैं वितरण करुँगा या करुँगी”। पता नहीं कुछ लिंग में बदल होता है और रूप दिखाता ही है स्त्री जैसा मोहिनी मूर्ति। लेकिन भगवान तो पुरुष हैं,” गोविंदम आदि पुरुषम” इसलिए मोहिनी मूर्ति भी पुरुष तो है, परंतु स्त्री की वेशभूषा/ स्त्री का रूप धारण करके प्रकट हुए हैं। उन्होंने चार्ज लिया और बिठा दिया कि देवता इधर बैठेंगे, असुर इधर बैठेंगे और वितरण प्रारंभ किया। भगवान पहले अमृत देवताओं को पिला रहे हैं और असुर प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे असुरों की ओर आने का नाम नहीं ले रहे हैं, तब असुर सोचते हैं,” अब आएंगे/ तब आएंगे/ कब आएंगे? नहीं आ रहे हैं। बस इनफ इज़ इनफ! बहुत हो गया , अब हम सहेंगे नहीं। हम को भी मिलना चाहिए, हमने भी प्रयास किया, पूरी ताकत लगाकर मंथन किया है तो हमको भी 50-50 मिलना चाहिए, आधा अमृत तो हमको मिलना चाहिए।”  ऐसा असुर सोच रहे थे, इतने में एक असुर जाकर के बैठा उनकी पंगत /पंक्ति में जहां सूर्य देवता और चंद्र बैठे थे, उनके बीच में उसने स्थान बना लिया। भगवान अमृत बांटते हुए आ रहे थे तो सूर्य-चंद्र को दिया, तभी इसने अपना प्याला भी आगे बढ़ाया होगा। बीबीटी की इस पेंटिंग में तो जो शराब के प्याले होते हैं, वैसा एक गिलास दिखाई दे रहा है। तो जैसे ही गिलास उसने आगे बढ़ाया तो भगवान ने नोट किया कि यह तो असुर है और तुरंत उसका गला काट दिया। उस अमृत को पेट तक पहुंचने से बचा लिया,  फिर यही असुर भविष्य में बन जाता है राहु- केतु जो सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण का कारण बनता है। इसका भी इस प्रसंग में स्पेशल रोल है कि क्यों सूर्यग्रहण चंद्रग्रहण लगते रहते हैं।

 इसकी हम थोड़ी कल्पना कर सकते हैं। फिर सारे असुर तुरंत उठकर खड़े हुए और बोले कि,”हमको भी अमृत मिलना चाहिए”। वे दौड़ पड़े, पूरा दंगल शुरू हो गया,युद्ध शुरू हुआ सुर और असुर के मध्य में। ऐसा कुछ कह सकते हैं कि भगवान का भी कंट्रोल नहीं रहा, उस लीला में ऐसा दिखाया गया है। सुर और असुर पूरे आकाश में लड़ रहे थे। एक समय अमृत कुंभ जयंत के हाथ में था,जो इंद्र का पुत्र है। जयंत और अमृत की भी रक्षा के लिए, कई सारे देवता बॉडीगार्ड बने और बृहस्पति भी वहाँ थे। कोई  देखे रहा कि ये कुंभ टूटता फूटता नहीं है और उसमें से कुछ गिरता नहीं है। ऐसे प्रयास भी चल रहे थे देवताओं के। आकाश में जब ये लड़ रहे थे तो दो प्रकार की समझ है। इस कुंभ को चार स्थानों पर रखना पड़ा या रखा।  वे चार स्थान हैं–प्रयागराज धाम की जय! नासिक धाम की जय! उज्जैन/अवंतिपुर धाम की जय! हरिद्वार धाम की जय!

ये आपस में जो तकरार हुई , सुर और असुर लड़ रहे थे अमृत प्राप्त करने के लिए, तो यह युद्ध स्वर्ग के 12 दिनों तक चलता रहा क्योंकि देवताओं के इतने दिनों तक ये आपस में लड़ रहे थे। हिसाब ये हेयर कि देवताओं का एक दिन हम मनुष्यों का इस पृथ्वी पर एक वर्ष होता है। वहाँ के 12 दिन, यहाँ के 12 वर्ष हुए। अमृत उन चारों स्थानों पर भी गिरा था।

यहाँ  तो गंगा- जमुना- सरस्वती मैया की जय!
हरिद्वार में केवल गंगा की जय!
नासिक में गोदावरी मैया की जय!
उज्जैन में शिप्रा मैया की जय!

वही अमृत पुनः प्रगट होता है हर 12 वर्षों के उपरांत और बीच में एक अर्धकुंभ मेला भी होता है हर 6 वर्षों के उपरांत। अलग- अलग ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति का विचार होता है और उसके अनुसार ही सारे कैलकुलेशन होते हैं कि यह अमृत नासिक में इस समय इस महीने इस दिन होगा या फिर हरिद्वार में/उज्जैन में/प्रयागराज में। सभी ‘ लूट सके तो लूट’। जैसे प्रथम बार जब उत्पन्न हुआ अमृत,तो सभी लूटने का प्रयास कर रहे थे, मानो  वही भाव अब तक चल रहा है। कुंभ मेला कब से मनाया जा रहा है? या यह पर्व कितना पुराना है?  कोई कैलकुलेशन कर सकता है? कितने हजारों/ लाखों/ करोड़ों वर्ष पूर्व घटी हुई घटना है? ये ऐतिहासिक फैक्ट भी है केवल कोरी कल्पना नहीं है, यह इतिहास है, इति+ह+ आस। ‘इति’ माने ‘लाइक धिस‘ , सो हैप्पंड, ऐसा हुआ है। नहीं तो शुकदेव गोस्वामी यह कहते नहीं आठवें स्कंध में। कई अध्यायों में शुकदेव गोस्वामी इस लीला कथा को सुनाएं हैं और इस प्रसंग में वैसे  एक तो अजीत नामक भगवान का अवतार हुआ है , फिर कच्छप भगवान आए क्योंकि उस मंदराचल पर्वत को कुछ आधार तो होना चाहिए , वह डूब रहा था मंथन के समय। तो सपोर्ट देने के लिए भगवान कछुआ बनते हैं और उनकी पीठ पर जब मंथन हो रहा था तो अच्छा लग रहा था भगवान को, खुजलाहट में। ही वाज़ गेटिंग स्क्रैचड,  ही वाज़ वेरी हैप्पी एंड वेरी प्लीज्ड। ये दूसरा अवतार हुआ फिर तीसरे हुए धन्वंतरी भगवान और चौथे हुए या हुई मोहिनी अवतार। यह सब बड़े-बड़े अवतार के हैं, पर बीच में और भी थे, जैसे लक्ष्मी का प्राकट्य, आदि। श्रील प्रभुपाद भी यहाँ रहे प्रयाग में, गृहस्थ बनके लंबे समय तक। गौड़िया मठ के भक्त आए थे कुंभ मेले के लिए, उस वक्त उन्होंने प्रभुपाद के प्रयाग फार्मेसी में आकर कांटेक्ट किया था और प्रभुपाद ने  उनकी सहायता भी की थी। इस प्रकार प्रभुपाद का संबंध पुन: स्थापित हुआ  गौड़िय मठ के साथ। ये मठ धीरे-धीरे यही बनता गया, उसकी स्थापना होती गई और प्रभुपाद अपना पूरा सपोर्ट दिया करते थे।

यह सब लीलामृत में आप पढ़ा करो, आपने सुना भी होगा प्रभुपाद प्रयाग फार्मेसी चलाते थे, कौन सी फार्मेसी? प्रयाग फार्मेसी जो काफ़ी प्रसिद्ध थी उस समय। जवाहरलाल नेहरू इत्यादि उनके कस्टमर बनके आते थे, ग्राहक बनके आते थे। हरि हरि!

श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर की जय! वे भी आए इलाहाबाद/ प्रयागराज १९३२ में और उस समय गौड़ीय मठ की ऑफिशियली स्थापना हुई, ओपनिंग हुआ और उस समय दीक्षा समारोह भी हुआ। उसमें अभय बन गए अभय चरणारविन्द। वैसे भक्तिवेदांत टाइटल उनको पहले दिया था, गृहस्थ भक्तिवेदांत। तो अभय से अभय चरणारविन्द ऐसा नाम रखे,  जिसको हम ए.सी कहते हैं। ए.सी भक्तिवेदांत मतलब कूलर नहीं। अभय चरणारविन्द भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद दीक्षित हुए इसी नगरी में। प्रभुपाद बहुत कुछ आगे किए वैसे यहाँ से ही वैरागी बने श्रील प्रभुपाद। उन्होंने धर्मपत्नी से एक बार पूछा,” तुम क्या चाहती हो?मुझे चाहती हो या चाय? बोलो?” वो चाय पिया करती थी। क्या कहा जाए आपको? तो चाय की पत्ती खरीदने के लिए उसने प्रभुपाद के मोटे-मोटे ग्रंथ, “कबाड़ी…पेपर…”  ऐसे कहते हुए जो लोग आते है ना,  तो तराजू में उनको बेच दिया। जब प्रभुपाद को यह बात पता चली तो उन्होंने फाइनल क्वेश्चन पूछा। अब बहुत हो गया है। तो अब ”बाय,पुनः मिलेंगे, मतलब अब नहीं मिलेंगे”। प्रभुपाद यहाँ से सीधे झाँसी गए, पहले भी आया-जाया करते थे।  वैसे सारे उत्तर भारत में प्रभुपाद की ट्रैवलिंग एंड सेल्समैन्शिप हुआ करती थी। उनके प्रोडक्शन की प्रमोशन और सेल्स इत्यादि वे करते थे। बीच में मुंबई भी जाकर रहे थे प्रभुपाद और सब समय गौड़ीय मठ का सपोर्ट तो चल ही रहा था। फिर झाँसी में शुरुआत किए, फिर आगे और तैयारी, लाइफ टाइम प्रिपरेशन किए। वृंदावन के राधा दामोदर मंदिर की जय! फाइनली १९२२ में उनको आदेश प्राप्त हुआ भक्तिसिद्धांन्त सरस्वती ठाकुर के द्वारा,” तुम बड़े बुद्धिमान लगते हो,क्या करो? पाश्चात्य देशों में जाकर कृष्णभावना का( कभी-कभी प्रभुपाद इसको कहते चैतन्य कल्ट) का प्रसार करो। यह भगवान की भविष्यवाणी को सच करके दिखाओ। 

“पृथ्वी अचे यत नगरादि-ग्राम, सर्वत्र प्राकार हैबे मोरा नाम,

मेरे नाम का प्रचार पृथ्वी पर जितने नगर हैं ,ग्राम हैं ,वहाँ पर होगा। इसको सच करके दिखा दो हे अभय!”  

१९२२ में प्रभुपाद इस आदेश को प्राप्त किए, ११ वर्ष उपरांत उनकी दीक्षा होती है। वैसे ११- ११ का पता है न आपको? १९२२ में ११ जोड़ो तो १९३३ होता है, तो दीक्षा का समय होता है। फिर उसमें और ११ जोड़ने से १९४४ होता है तो बैक टू गॉड हेड का प्रकाशन शुरू करते है। फिर इसमें और ११ जोड़ने से प्रभुपाद पहुँचे है झाँसी और वानप्रस्थ लेते है। और ११ जोड़ने से १९६६ होता है तो इस्कॉन की स्थापना होती है न्यूयॉर्क में। तब और ११ जोड़ने से १९७७ जिसमें प्रभुपाद नित्यलीला प्रविष्ठ होते हैं। भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद की जय! भगवत धाम के लिए प्रस्थान करते है। अपनी संस्था का नाम वे देते है अंतरराष्ट्रीय श्रीकृष्ण भावनामृत संघ। नोट करो ‘कृष्णभावनामृत’ , तो अमृत की चर्चा तो चल ही रही है|  प्रभुपाद ने कृष्ण भावनामृत नामक संघ की ,संस्था की स्थापना की और यहाँ का अमृत तो आपको १२ वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। लेकिन श्रील प्रभुपाद का आंदोलन तो हर क्षण इस अमृत का वितरण कर रहा है। यहाँ भी कथामृत कहा ही है आज के श्लोक में। प्रभुपाद के ग्रंथों के रूप में कथामृत का वितरण हो रहा है। 

“हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे” 

अमृत के रूप में इसका वितरण हो रहा है और प्रसाद अमृत की जय!  इस्कॉन का जो कुंभ मेला यहाँ लगा हुआ है सेक्टर १९ में, आप गए की नहीं? जरूर जाओ।  वैसे वो कार्य आप यहाँ से भी कर ही रहे होंगे, कथामृत- प्रसादामृत- नामामृत। यहाँ बहुत बड़ा प्रयास और यशस्वी प्रयास हो रहा है। हमारे सनक सनातन प्रभु विश्वप्रसिद्ध हैं, जब भी कुंभ मेले का आयोजन करना होता है, इस्कॉन के सारे टेंट्स, सब सेटअप एंड फैसिलिटीज़ केलिए ऑल इंडिया लीडरशिप उनको याद करती रहती थी। यह सेवा वह पिछले २५-३० साल या २००१ से अब तक जितने भी कुंभ मेले हुए है;  यहाँ पर ही नहीं नासिक में या हरिद्वार में या उज्जैन में, सनक सनातन प्रभु आप सभी इस्कॉन की मदद से फाइनेशियल असिस्टेंस ,इत्यादि इत्यादि की मदद से यह आयोजन करते रहते है।  कुंभ मेले का सारा सेटअप, टेंट सिटी इत्यादि तो इस वर्ष भी है और इस वर्ष तो बेस्ट एवर अरेंजमेंट्स हुई हैं। इतना सारा प्रसाद वितरण भी होता है। मेगा- किचन नाम सुना है? वह ट्रेन भी है , जिसमें अंदर ही अंदर पटरी है, वहाँ सारे बड़े बड़े भगोने- पतीले रखे हैं। इन्हें कोन उठाएगा अन्यथा? सिर्फ एक ही नहीं बल्कि दो मेगा किचेंस है। इस वर्ष ४ लाख भगवदगीता का वितरण हो चुका है, हरिनाम संकीर्तन पदयात्रा पार्टीज भी पहुंची है। दिनभर ऑल डे लांग वे जा रहे हैं सर्वत्र नगर आदि ग्राम, हर सेक्टर में जाकर हरिनाम वितरण और साथ में फिर प्रसाद वितरण करते है, कुछ ग्रंथ वितरण भी करते है। वो भी हो रहा है। इस्कॉन के १००० भक्त गए शाही स्नान के लिए, यह एक बड़ा नंबर है, १००० भक्त ऐट अ टाइम जाकर स्नान भी कर पाए। हरि बोल! 

इस अमृत से सर्वोत्तम अमृत तो कृष्णभावनामृत ही है। दूसरा अमृत तो आपको स्वर्ग पहुँचाएगा, लेकिन ये अमृत के पान से कहाँ पहुँचोगे आप? वैकुंठ या गोलोक वृंदावन धाम की जय! जो स्वर्ग में जाएँगे वे रहेंगे तो बहुत समय के लिए लेकिन उसमें ख़तरा ये है,

“क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति” 

पुनः यहाँ आना पड़ता है। किंतु जो भागवत धाम जाते हैं,

“यद्ग‍त्वा न निवर्तन्ते”  यह सब डिफरेंस नोट करो आप।

ओके! धन्यवाद! हम  यहाँ आए और आप भी पहुँच गए, तो आप सभी की उपस्थिति के लिए आभार। वैसे ये केवल आज के लिए ही नहीं, बल्कि आपके ऑन गोइंग सपोर्ट के लिए भी है। आप सहायता करते हो कि नहीं इस्कॉन की? हरि बोल! जैसे प्रभुपाद किया करते थे, वे उनके गुरु महाराज का जो मठ / संस्था या गौड़ीय मठ था उसमें प्रभुपाद सहायता करते। उसी प्रकार आपको भी इस्कॉन प्रयागराज की हर प्रकार से सहायता करनी होगी|