Srimad Bhagavatam 05.26.01
06-10-2015
ISKCON Noida
यहाँ सभी उपस्थित भक्तों का ,मंदिर के भी भक्त और आप गृहस्थ भक्त , कांग्रीगेशन के भक्तों का भी स्वागत है इस प्रातःकालीन श्रीमद्भागवत कक्षा में। सुनने का सौभाग्य, इसके अध्ययन का सौभाग्य हम सभी को प्राप्त है,क्रमशः अध्ययन भागवत का बताए हैं। तो दसवें स्कंध में भगवान की लीलाएं है ,फिर रास क्रीड़ा, मधुर लीला की ओर तो दौड़ने का मन करता है ,कुछ मधुर लीला, अमृत नेक्टर कहते हैं। लेकिन उससे पहले कुछ पॉइज़न कहो …कुछ ज़हर। लेकिन वैसे ये अमृत के अंतर्गत ही है यह वर्णन भी नारकीय, अभी हम मुड़ेंगे अमृत की ओर। ये नारकीय लोकों का जो वर्णन है साक्षात शुकदेव गोस्वामी “श्रीमद्भागवतम “
“निगमकल्पतरोर्गलितं फलं
शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् ।
पिबत भागवतं रसमालयं
मुहुरहो रसिका भुवि भावुका:” ॥ 1.1.3 ॥
शुकदेव गोस्वामी के मुखारविंद से अमृत झर रहा है, निसृत हो रहा है। ये पूरे भागवत को, जो द्वादश स्कन्धीय भागवत, उस सभी को अमृत कथामृत ही कहा गया है। ये नहीं कि दसवें स्कंध में अमृत हैं और पांचवें स्कंध में और कुछ है , ये सारा अमृत ही है। दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय। कौन कबीर कह कर गये ?…ऐसा किसी ने कहा है ।तो ये जो वर्णन है नारकीय लोकों का वर्णन,क्या कष्ट भोगने के लिए भेजा जाता है जीवों को? तो फिर शायद वहाँ पर स्मरण हो सकता है, दुःख में सुमिरन सब करे । तो जब दुख होगा कष्ट भोगेंगे तो शायद स्मरण आएगा… आह… नहीं नहीं नहीं… भगवान का, बचाओ! मेरे भगवान कृष्ण! हरे कृष्ण हरे कृष्ण…तो कुछ भूत बातों से नहीं मानने वाले होते हैं उनको किसकी ज़रूरत होती है? लात की ज़रूरत होती है। तो नरक में पहुँचा के उनको लात.. केवल लात ही नहीं है , उसका वर्णन,विस्तृत वर्णन है। कहीं पर लात भी है लेकिन कहीं पर और भी यातनाएं है। और जब इन नारकीय लोकों में भेजा जाता है तो एक विशेष शरीर भी दिया जाता है ,यातना शरीर कहते हैं.. ख़ास करके। तो उसे अधिक यातना उस शरीर में अधिक यातनाएं, अधिक कष्ट का अनुभव वो बद्धजीव करता है। ऐसा ही ये भौतिक शरीर कष्टदायक हैं कष्ट देने वाला है। तुमको कष्ट हो इसलिए यह भौतिक शरीर हमने जो ये वस्त्र पहने हैं,
“वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही” ॥ 2.22 ॥
यह शरीर में फिर कष्ट होता है ,किस प्रकार का कष्ट? जन्म का कष्ट है ये शरीर में बुढ़ापे का कष्ट है, यह शरीर में व्याधि का कष्ट है और फिर मृत्यु का कष्ट है। ये ४ मोटे मोटे नाम लिए हैं वैसे कष्ट हीं कष्ट है।
“समाश्रिता ये पदपल्लवप्लवं
महत्पदं पुण्ययशो मुरारे: ।
भवाम्बुधिर्वत्सपदं परं पदं
पदं पदं यद् विपदां न तेषाम् “ ॥ 10.14.58 ॥
पग पग पर इस शरीर में ,इस संसार में कष्ट भोगने पड़ते हैं ।लेकिन एक विशेष अनुभव कष्ट का ,अनुभव तो नरकों में ही होता है। तो इस अन्य लोकों में ,नरक के अलावा अन्य लोकों में कष्ट तो है ही ।
“आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते “ ॥ 8.16 ॥
भगवान कहे ब्रह्मलोक तक ,कहाँ से कहाँ तक ?मतलब ये नरक लोक से ब्रह्मलोक तक कष्ट ही कष्ट है, पुनरावृत्ति है।
“पुनरपि जननं पुनरपि मरणं
पुनरपि जननी जठरे शयनम् |
इह संसारे बहु दुस्तारे
कृपयाऽपारे पाहि मुरारे ‖”
तो संसार में कष्ट है ,इस शरीर में भी कष्ट है ।इस जीव को विशेष शरीर यातना शरीर देकर नरक लोक की यात्रा करवाई जाती । इसका वर्णन यहाँ शुकदेव गोस्वामी कर रहे हैं और इस छब्बीसवें अध्याय का शुरुआत में, बोर्ड पर एक श्लोक तो लिखा है पहला, प्रथम श्लोक, लेकिन उससे पहले इस अध्याय का सार, कथा सार भी है, उसको हम पढ़ेंगे। तैयार हो जाइए! वैसे पहले ही पता चलेगा …ऐसे ऐसे कष्ट वहाँ भोगने पड़ते हैं ।तो शायद इन बातों से हम मान जाएंगे सुनके ही ।उन लोकों में किस प्रकार का कष्ट होता है ,जो होता ही है। ये हक़ीक़त है ,कल्पना नहीं है ।नरक कोई काल्पनिक लोक या स्थान नहीं है । वैसे कई लोक, कई स्वामी भी है जैसे इंडिया के प्रसिद्ध स्वामी हुए नेशनल स्वामी, इस्कॉन की बात नहीं… उनका विश्वास नहीं था। स्वर्गलोक ,मृत्युलोक ,पाताललोक इसी पृथ्वी पर ही है ,अलग से कोई मृत्युलोक नरक लोक नहीं हैं । ऐसे आपने सुना है कि नहीं? हमने तो कई बार सुना और पढ़ा भी। आप तक यह समाचार पहुँचा कि नहीं? ऐसा प्रचार करने वाले हैं कि नरकलोक नहीं है …स्वर्गलोक भी नहीं है ,यहीं पर हैं सब और अलग से कोई स्वर्ग नहीं है , ख़ासकर के नरक नहीं है। लेकिन ऐसा कहने से नरक का अस्तित्व समाप्त नहीं होगा ।किसी के कहने पर कि नरक नहीं है तो नरक समाप्त हुआ या था ही नहीं। या था भी तो हमने कहा कि नरक नहीं है तो नरक ख़त्म समाप्त हुआ , ऐसा नहीं होगा। जब कोई खरगोश का पीछा शेर कर रहा है तो खरगोश दौड़ रहा है… दौड़ रहा है और पीछे शेर छलाँग मार के … एक शेर की छलांग में तो खरगोश को सौं छलांगें मारनी पड़ती है। तो कहाँ तक वो दौड़ा सकता है? दौड़ रहा है… दौड़ रहा है… शेर पीछा नहीं छोड़ रहा है …नहीं छोड़ रहा है। तो फिर ऐसा समय आता है, कुछ अनुभव होगा ,इसके लिए उदाहरण दिये ,प्रभुपाद भी कहा करते थे …फिर ख़रगोश क्या करता है ?थोड़ा गड्ढा बना लेता है ।वो दौड़ते दौड़ते थोड़ा रुक जाता है और गड्ढा बना लेता है और अपने सीर को उस गड्ढे में बंद कर लेता है। और फिर कहता है अरे शेर वग़ैरह तो कुछ नहीं है, यह शेर कल्पना है। शेर था ही नहीं, शेर है ही नहीं ,मैं सुरक्षित हूँ। तो फिर क्या उस खरगोश के सोचने से शेर का अस्तित्व समाप्त होगा ?या शेर वहाँ पहुँचेगा नहीं ?ज़रूर पहुँचेगा ,पहुँचता ही है और वहाँ से उसकी पूँछ को और फिर सारे शरीर को बाहर निकाल लेता है अपने पंजे के साथ। तो मनुष्य कि यह प्रवृत्ति वैसे ही है ओ नरक नहीं है नहीं है! किसने देखा …नहीं है नहीं है …तो नरक की यातना नहीं हैं। ऐसा कहने वालों को यमदूत दिखाएंगे नरक का दर्शन कराएंगे एक दिन । कहेंगे नरक नहीं है …नरक नहीं हैं ।अगले दिन सीधे कहा कि यात्रा ? नरक लोक यात्रा। फिर वहाँ साक्षात्कार ले सकते हो उस व्यक्ति का । तो तुमने कहा था कि नरक नहीं है अब कहो है कि नहीं? हाँ हाँ मैं तो अभी नरक में ही तो हूँ। तो शुकदेव गोस्वामी सारे ब्रह्माण्ड को भी …केवल भगवान के नाम रूप गुण लीला धाम को वे नहीं जानते हैं ।केवल उनको ही नहीं जानते, इस ब्रह्माण्ड को भी जानते हैं भलीभाँति। या शुकदेव गोस्वामी भूगोल को भी जानते हैं ,खगोल को भी जानते हैं जिसको कॉस्मोलॉजी, कॉसमॉस खगोल ऑस्ट्रोनामी… शुकदेव गोस्वामी ऑस्ट्रोनोमर है, वे शास्त्रज्ञ है, वे साइंटिस्ट है उनकी बातें साइंटिफिक है। यथावत जो भी जहाँ भी है वे सबको भलीभाँति जानते हैं शुकदेव गोस्वामी। ज्ञाताओं में से एक द्वादश (बारह) वैज्ञानिक है ,या विज्ञान को जानने वाले… द्वादश महाभागवत है ।उसमें शुकदेव गोस्वामी भी एक प्रधान भागवत महाभागवत तत्ववेत्ता और सब कुछ वेत्ता, सब बातों को जानने वाले सारे ब्रह्मांड को जानते हैं। जो जानकारी औस्ट्रॉनौमर को भी नहीं है , कॉस्मोलॉजिस्ट को भी नहीं है , वह जानकारी वह ज्ञान शुकदेव गोस्वामी को प्राप्त है। ये सारा ज्ञान वेदों से ही होता है। वेदज्ञ है शुकदेव गोस्वामी, त्रिकालज्ञ हैं शुकदेव गोस्वामी।
इस अध्याय में ये बताया गया है कि पापी मनुष्य किस प्रकार विभिन्न नरकों में जाता है। जहाँ यमराज के सहायक विविध प्रकार से उसे दंड देते हैं। जैसा कि श्रीमद्भागवत में तीसरा अध्याय २७ श्लोक में कहा गया है:–
“प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते “ ॥ 3.27 ॥
इसी श्लोक का अनुवाद पहले और फिर सार,चलता रहेगा। मोहग्रस्त जीवात्मा तीनों गुणों के वशीभूत होकर अपने को ही सारे कार्यों का कर्ता सोचता है जो कि वास्तव में प्रकृति द्वारा सम्पन्न होते हैं। मूर्ख व्यक्ति अपने आपको नियम से परे मानता है।कौन मानता है ये नियम से परे? मूर्ख व्यक्ति मानता है विमूढ आत्मा ।वह सोचता है कि ईश्वर अथवा कोई नियामक सिद्धान्त नहीं है और वह जो चाहे कर सकता है।किसने देखा यह बात किसने देखा?
“यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः॥”
किसने देखा है? यह पुनर्जन्म और पाप का फल भोगना होता है ,अगले जनम में भी भोगने के लिए वशीभूत किया जा सकता है। लेकिन चार्वाक और कंपनी… चार्वाक एक मंडली है वो कहता है किसने देखा है? प्रभुपाद रशिया गए तो वहाँ कुटास्क्वीन नामक एक प्रोफ़ेसर से मिले, मॉस्को यूनिवर्सिटी के बड़े प्रोफ़ेसर थे। तो उन्होंने भी वही बात कही जो चार्वाक ने कही थी। ऐसा प्रचार बिना पढ़े ही, चार्वाक सिद्धांत बिना पढ़े, प्रचार तो संसार में है। तो उन्होंने भी कहा स्वामीजी मेरा शरीर समाप्त तो सब कुछ समाप्त।
तो उन्होंने भी कहा “ स्वामीजी व्हेन बॉडी इस फिनिशड एवरीथिंग इस फिनिश्ड” जब शरीर समाप्त होता है तो समाप्त हो गया ,आगे कुछ है ही नहीं ,एवरीथिंग इस फिनिश्ड, सब कुछ समाप्त । उनको पता ही नहीं है, हरि बोल! शरीर समाप्त हुआ तो स्थूल शरीर ही तो समाप्त हुआ, मन बुद्धि अहंकार तो समाप्त नहीं हुआ। लिंग शरीर, स्थूल शरीर और फिर लिंग शरीर, लिंग शरीर मतलब सूक्ष्म शरीर जो समाप्त नहीं हुआ और आत्मा तो समाप्त होने वालों में से है ही नहीं, “न हन्यते हन्यामने शरीरे “ , भगवान स्वयं ज्ञान देते हैं न हन्यते हन्यमाने शरीरे। एवरीथिंग इस फिनिश्ड, बॉडी इस फिनिश्ड बट एवरीथिंग इस नॉट फिनिश्ड । शरीर समाप्त हुआ ,सब कुछ समाप्त नहीं हुआ । लिंग शरीर सूक्ष्म शरीर समाप्त नहीं हुआ और आत्मा तो समाप्त होता ही नहीं । तो क्या फिर हे मूर्खों क्या कह रहे हो? सब कुछ समाप्त हुआ, किसने देखा है पुनर्जन्म , पुनर्जन्म लेने केलिए बचा ही कौन है? ऐसा उनका कहना होता है। देह तो भस्म हो गया, राख हो गया ,अब कौन जन्म लेगा? यह शरीर बस कफ, पित्त, वायु का मिश्रण है । पृथ्वी पृथ्वी में आकाश,आकाश आकाश में, तत्व और बाकी के तत्वों में। बाइबल में भी कहा है “पृथ्वी से बने हो और पृथ्वी में ही प्रवेश करोगे” ,पृथ्वी में ही लीन होगे पृथ्वी से बने हुए शरीर। इस प्रकार अनेक पाप कर्म करता है ,जिसके कारण वह जन्म जन्मांतर विभिन्न नारकीय परिस्थितियों में रखा जाता है, जिससे प्रकृति के नियम अनुसार उसे दंडित किया जाता है। प्रकृति के नियमों के वश में रहकर भी वह अज्ञानवश अपने को स्वतंत्र मानता है जबकि ये पूरा पारतंत्र्य हैं, औरों का तंत्र है,यह स्वतंत्र नहीं है, परतंत्र है। वह माया का और फिर कृष्ण का,ऐसे दो तंत्र है, दो व्यवस्थाएं हैं। किसी भी अवस्था में जीव स्वतंत्र नहीं होता । या तो “प्रकृति क्रियमानानि गुणें कर्माणि सर्वशः” या तो प्रकृति के गुण और नियम के अनुसार वह चलता है ,उसको चलना ही पड़ता है। और फिर दूसरा “ महात्मनस्तु मां पार्थ दैवीप्रकृतिम आश्रित:” ,वह दैवी प्रकृति का आश्रय ले सकता हैं, दैवी प्रकृति के वशीभूत होकर एक ये स्थिति है । और यह जो बहिरंगा शक्ति त्रिगुणमयी माया है इसके वशीभूत होकर । इस प्रकार यह दोनों अलग अलग है और तटस्थ जीव है। इन दोनों में से कृष्ण पर निर्भर रहना, कृष्ण की अंतरंगा शक्ति के आश्रय या उसके नियंत्रण में रहना, जीव के लिए श्रेयस्कर हैं ,श्रेय है। हरि हरि! हरे कृष्ण! उसमे जैसे प्रभुपाद समझाते हैं जैसे बिल्ली का छोटा बच्चा। कभी-कभी बिल्ली के मुंह में अपना बच्चा ही होता है ,जो म्याऊं म्याऊं करता है तो उसकी मां जहां भी है उसके पास आती है। ( आपके बच्चे तो मम्मी मम्मी कहते हैं) लेकिन बिल्ली के बच्चे मम्मी नहीं कह सकते, म्याऊं म्याऊं कहते,लेकिन भाव वही है” मुझे ले जाओ, मेरी ओर आजाओ, म्याऊं म्याऊं” । वो इतना छोटा होता है कि एक स्थान से दूसरे स्थान नहीं जा सकता है या एक घर से दूसरे घर नहीं जा सकता ,एक मंजिल से दूसरे मंजिल नहीं जा सकता ,तो म्याऊं म्याऊं करता है। मम्मी आके उसे पकड़ती है ,अपने दांतों में पकड़ती है ।तो वह एक अनुभव रहा बिल्ली के बच्चे का अनुभव । और फिर किसी समय बिल्ली चूहे को पकड़ लेती है,ये दोनों अलग-अलग अनुभव है। एक बिल्ली के मुंह में बच्चे का होना और एक चूहे का होना ये दोनो अलग-अलग अनुभव है । दोनों को ही पकड़ा गया है ,दोनों भी वैसे एक ही जबड़े में है ,स्वतंत्र नहीं है परतंत्र है । ऐसे ही जीव कभी स्वतंत्र नहीं हो सकता है लेकिन प्रकृति के जंजाल में या जबड़े में जो फंस जाता है ,पकड़ा जाता है, तो उसका अनुभव उस चूहे का जो अनुभव है । बिल्ली के मुंह में चूहा वैसा वाला अनुभव है मायाजाल में फंसने का जो अनुभव है और दूसरा अनुभव कृष्ण पर निर्भर करो ,कृष्ण की शरण में आओ, दैवी प्रकृति का आश्रय लो। दोनों ही प्रकृति है “प्रकृति क्रियामाननी” गुणमयी प्रकृति, त्रिगुणमयी प्रकृति और फिर दूसरी है यह दैवी प्रकृति। तो स्वतंत्र तो नहीं है तटस्थ जीव है। दोनों में से एक प्रकृति के अधीन उसको रहना ही होगा। लेकिन देवी प्रकृति का आश्रय लेता है तो वही स्थिति सही है ,” स्थितोअस्मी” जिसको अर्जुन कहते हैं ,अब मैं स्थित हो गया हूं, स्थिर हो गया हूं जब उसने भगवान की शरण ली और “ करिश्य वचनम तव “ आपके आदेश का पालन करने के लिए मैं तैयार हूं, तब अर्जुन स्थित हो गया । यह नियम तीन गुणों के प्रभाव के अंतर्गत कार्य करते हैं इसलिए मनुष्य भी तीन प्रकार के प्रभावों के अंतर्गत कार्य करता है ,अपने कर्मों के अनुसार वह इस जीवन में या अगले जीवन में यातना भोक्ता है। उसके कर्म उसको छोड़ेंगे नहीं, कर्म पीछा करते ही रहेंगे और इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में ,वह यातना भोगनी ही पड़ेगी । कहते हैं जब वन से या खेत से या कहीं से भी गाय गौशाला लौटती है , तो जो बछड़े होते हैं जिनको खेत में या वन में नहीं भेजते हैं, जब गाय लौटी है तो बच्चों को छोड़ देते हैं । तो एक-एक बछड़ा गायों की बड़ी भीड़ है और बछड़े भी काफी बड़ी संख्या में है तो बछड़ों को छोड़ दो तो कुछ ही मिनट में क्या होगा? हर बच्चा अपनी जो मां है करस्पोंडिंग जिसके साथ उसका संबंध है उस गाय के पास बछड़ा पहुंच जाता है, वैसे ही हमने किया जो कर्म है उसकी जो यातना है, परिणाम है , उसकी जो प्रतिक्रिया है, रिएक्शन है कॉरस्पॉडिंग ,वह जरूर शेक हैंड करेगी ,जरूर मिलेगी हमें रास्ते में कहीं। हमारा कर्म आपको नहीं मिलेगा और आपका कर्म हमें नहीं मिलेगा। आपका कर्म और उसका फल आपको ही मिलेगा। हां मेरा मुझे मिलेगा इस प्रकार की व्यवस्था है। हरि हरि! धार्मिक पुरुष नास्तिको से भिन्न रीति से कार्य करते हैं, विभिन्न प्रकार से कर्मफल भोगते हैं। नास्तिक पुरुषों के लिए कुछ नियम है और धार्मिक पुरुषों के लिए दूसरे नियम है। नियमों के अनुसार कार्य अलग है ,तो उसका फल भी अलग है । कोज एंड इफेक्ट कहते हैं, कार्य और कारण इसका संबंध होता है । यह बहुत बड़ा सिद्धांत है कार्य और कारण कौज एंड इफेक्ट। कार्य और कारण यहां थोड़ा उल्टा है। पहले क्या होना चाहिए वैसे? कारण होना चाहिए। कारण ही फिर कार्य है, फिर वही कार्य कारण बनेगा और फिर आगे का कार्य होगा। आगे का कार्य ही फिर कारण बनेगा, फिर आगे का कार्य होगा। आप समझ रहे हैं? इस प्रकार चेंन रिएक्शन ,एक्शन रिएक्शन । एक कारण फिर कार्य ,फिर वो कार्य ही कारण, फिर कारण कार्य कारण कार्य , एक्शन रीएक्शन। तो इसके नियम बने हैं , यह कार्य होगा तो इसका परिणाम ये निकलेगा , दुष्परिणाम या सुपरिणाम, सुखद परिणाम भी हो सकता है। लेकिन यह दोनों परिणाम वैसे भौतिक परिणाम है । भौतिक प्रतिक्रिया मतलब क्रिया। कुछ विशेष प्रक्रिया है और प्रतिक्रिया उसके अगेंस्ट की गई क्रिया है। यह केवल शब्दों का खेल नहीं है इसके साथ हमारे सिद्धांत और थोड़ा ज्ञान भी जुड़ा हुआ है। तो धार्मिक पुरुष नास्तिकों से भिन्न रीति से कार्य करते हैं अतः वह विभिन्न प्रकार से कर्मफल भोगते हैं । इसके तुरंत बाद जो अध्याय का अध्ययन होगा तो वह अजामिल प्रसंग है, छठवें स्कंद का प्रथम अध्याय। जब पूरा वर्णन होता है कई नरकों का और उनकी यातनाओं का तो राजा परीक्षित ने प्रश्न पूछा,कोई उपाय है ? कोई उपाय है ताकि लोगों को ऐसे ही यम यातना या नरक की यातना का कष्ट भोगना ना पड़े, कोई सॉल्यूशन है क्या? तो राजा परीक्षित का हृदय थोड़ा द्रविभूत हुआ है और दया भाव उत्पन्न हुआ है। इतना कष्ट भोगना पड़ता है जीवो को , अब मैने सुन ही तो लिया , हां हां पड़ता हो होगा आप जो भी कह रहे हैं सच् ही कह रहे होंगे शुकदेव गोस्वामी जी । फिर इस से बचने का कोई उपाय है ? तो फिर वैसे कहा कि “हां हां उपाय है , तो मैं इतिहास सुनाता हूं । शुकदेव गोस्वामी कहे एक उदाहरण देता हूं मैं । फिर अजामिल का सारा जीवन चरित्र और वह प्रसंग सुनाए शुकदेव गोस्वामी और उसमें उपाय आ गया । प्रभुपाद लिखे हैं उत्तर में कि धार्मिक पुरुषों नास्तिक पुरुषों से भिन्न रीति से कार्य करते हैं । तो अजामिल तो पापी था, उसका सारा रिकॉर्डिंग हुआ था ।हमने पाप किया किसने देखा है? कुछ तो खुल्लम-खुल्ला भी पाप कर रहा था कुछ छिप छिपके पाप करता होगा, तो यहां वर्णन आया है इस अजामिल प्रसंग में कि कोई पाप होता है तो कोई विटनेस की जरूरत होती है ,कोई साक्षी है? यमदूतों ने कहा “ हां साक्षी है ,कई सारे साक्षी है “ उनके लिस्ट उनकी सूची भी उन्होंने दी हुई है । यह सूर्य भी साक्षी है ,दिन भी साक्षी ,रात भी साक्षी है। फिर बोलो हवा जो बहती है, जहां पाप किया वहां से कुछ हवा आगे बढ़ी तो उसने भी कुछ नोट किया और रिपोर्टिंग होता है । वायु देवता की रिपोर्टिंग होती है, सूर्य की रिपोर्टिंग होती है ,चंद्रमा की रिपोर्टिंग होती है । यह लिस्ट दी हुई है आप जब वहां पहुंचोगे तो अजामिल ने “ नारायण नारायण नारायण “ कहा तो वैसे वो पापी था तो यमदूत पहुंच गए थे।
यमदूतों को देखा तभी तो इस अजामिल की धोती पीली हुई, मलमूत्र दोनों ही पीले होते इसलिए पीली का जिक्र होता है। लेकिन नारायण का नाम लिया तो नारायण का नाम सुनके नारायण के दूत विष्णुदूत भी पहुंच गए। कोई नारायण का भक्त कष्ट में है,नारायण को पुकार रहा है तो नारायण के दूत विष्णुदूत भी पहुंच गए और उन्होंने आके उनको रोका “ ए यू स्टॉप” उनके पास सारे हथियार थे ,पद्म शंख गदा चक्र धारण करते हैं भगवान के परीकर भी वैकुंठ में तो विष्णुदूत भी बड़े सुंदर थे और विष्णु के चिह्न भी वे धारण किए हुए थे। उन्होंने अपने चक्र से , गदा से प्रहार करने का प्रयास किया , “ऐ रुको!” तो फिर यमदूतों ने कहा था “नहीं नहीं नहीं हमको ले जाना होगा इसको,इतना बड़ा पापी है ” तत् एनम दण्डपाणि सकाशम तत् किलबिशम निष्यामहा” इसको लेके जायेंगे। वे तीन थे इसलिए ले जाएंगे। इसने पाप किए लेकिन प्रायश्चित नहीं किया इसलिए ले जाएँगे, वहाँ पर डंडे से पीटेंगे या और प्रकार से दंड जब मिलेगा तब शुद्धि होगी । यमयातना का भी उद्देश्य शुद्धिकरण है फिर वह मनुष्य सही पटरी पर आ जाता है । नरक में इसको सीधा करेंगे। इसने बहुत पाप किए तो शुद्ध करेंगे । पाप करो फिर प्रायश्चित करो। हमारे धर्म में प्रायश्चित भी एक धर्म का अंग है,धर्म के विधि विधान है । अभी में देख रहा था तो हैरान हो गया कि प्रायश्चित एक बहुत बड़ा विभाग है कर्मकांड के अंतर्गत । ये यज्ञ , ये व्रत , ये बलि,ये करो, वह करो । हर पाप के लिए वैसे २८ तरह के अलग अलग नरक है । इस पाप के लिए ये नरक, उस पाप के लिए वो नरक । इस नरक से उस नरक में मनुष्य जाता रहता है । तो जैसे भिन्न भिन्न प्रकार के पाप भिन्न भिन्न नरकों में पहुंचा देते है तो उससे बचने के लिए भिन्न भिन्न प्रायश्चित है । ये पाप तो किया लेकिन पाप का फल मतलब नरक की यातना को भोगना ना पड़े इसीलिए तो भिन्न भिन्न तरह के प्रायश्चित होते है । यमदूत कह रहे है इसने पाप तो खूब किया लेकिन प्रायश्चित नहीं किया तो हमे लेकर जाना होगा तभी अजामिल का शुद्धिकरण होगा। स्वच्छ होगा लेकिन पूरा तो नहीं । ये बात जब विष्णुदूतों ने सुनी कि इसने प्रायश्चित नहीं किया तो विष्णु दूतों ने कहा कि “ अहा! इसने प्रायश्चित तो किया है, इसी जन्म में जो इसने पाप किए है सिर्फ़ उसके लिए प्रायश्चित नहीं, अपितु कोटि कोटि जन्मो में जो भी इसने पाप किए है उन पाप कर्मों के लिए भी इस अजामिल ने क्या किया है ? प्रायश्चित किया है” । यमदूतों ने कहा “किस प्रकार का प्रायश्चित किया हमने तो देखा नहीं? ना तो कोई यज्ञ किया, न व्रत किया, अनुष्ठान भी कोई ना हमने देखा, ना सुना , ना पढ़ा , कौनसा प्रायश्चित किया ? इसलिए तो ले जा रहे है हम इसको । लेकिन विष्णुदूत कह रहे है इसने प्रायश्चित किया है । तो कौनसा प्रायश्चित? “ हरेर नाम” इसने हरि का नाम लिया, हो गया प्रायश्चित। “हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे” ।इस अध्याय में अगले स्कन्ध के अजामिल के प्रसंग में हरिनाम की महिमा गाई गयी है । ये हरिनाम ही सर्वोच प्रायश्चित है ये सिद्ध किया है । साधारण प्रायश्चितों से भी बेहतर या बढ़िया या सर्वोत्तम प्रायश्चित है ये नाम संकीर्तन है। वो कैसे ? इसमें समझाया है कि व्यक्ति जब पाप करता है और फिर प्रायश्चित करता है, तो किए हुए पाप का जो भी फल उसे मिलने वाला था कोई दुख कष्ट उससे से तो मुक्त हो जाएगा, लेकिन उसकी पाप की जो वासना है वह समाप्त नहीं होगी । तो पाप किया, प्रायश्चित किया , उस पाप का फल तो नहीं मिलेगा । लेकिन पाप का जो बीज है पाप के उपरांत जो संस्कार है, जो भाव उत्पन्न होते है मन में भोगवांछा के, वे तो बने रहेंगे तो फिर क्या होगा? मनुष्य पुनः पाप करेगा । पाप की प्रवृति समाप्त नहीं होगी । जैसे जो बांस होता है अगर उसको काट भी दो तो फिर भी वह पुनः उग आता है। लेकिन जो ये नाम संकीर्तन है या भक्ति है ,भगवान की शरणागति है “ तापत्रयों उन्मूलनं “ यह मूल से उखाड़ देती है । उसको रिएक्शन भी नहीं मिलेगा और पाप की प्रतिक्रिया भी नहीं भोगनी पड़ेगी और साथ ही साथ उसकी जो पाप की वासना जो है वह भी समूल नष्ट होगी । इसलिए यही धर्म का मर्म है। भगवान इसलिए कह रहे है:–
“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: “ ॥ ६६ ॥ (भगवद गीता 18.66)
अनुवाद: सभी प्रकार के धर्मों को त्याग दो और केवल मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दिलाऊंगा। डरना मत।
इन यमदूतों ने धर्म की बात की है “वेद प्रणेतों धर्म:” , वेदों ने प्रेरित किया हुआ ही धर्म है और उसके विपरीत अधर्म है । तो धर्म के अंतर्गत ,वेद पुराण के अन्तर्गत, कई सारे कर्मकांड हैं,प्रायश्चित है। लेकिन उसका जो फल है या परिणाम है वह कुछ समय के लिए है ,उस से पाप की वासना तो समाप्त नहीं होती । वह पुनः प्रकट होगी ही “ जघन्य गुण वृत्तिस्थो अधो गच्छन्ति तामसा:” । ऐसी जो वृत्ति है पाप की वृत्ति है अधो गच्छन्ति तामसा:” तामसिक वृत्ति है। तमोगुण , सतोगुण, रजोगुण या अधिकतर पाप अंधेरे या दिन में भी हो सकते है । फिर उनको नीचे भेजा जाता है । “ उर्धम गच्छन्ति सत्वस्थ:” जो सत्वोगुणी है उन्हें ऊपर भेजा जाता है और जो राजसा: हैं वो मध्य में रहते हैं । ऐसे नियम बता रहे है कि जो तमोगुणी है पापी है तो गीता के अंत में भगवान ने कहा ऐसा धर्म भी त्याग दो । वेद में जरूर कहा है कर्मकांड में कि ये करो तो ये प्रायश्चित है, ऐसे फल नहीं भोगना पड़ेगा । ये व्रत करो ,यज्ञ करो, दान धर्म करो, ऐसे कर्म करो वो धार्मिक कृत्य भी हो सकते है लेकिन भगवान ने कहा ऐसे धर्म का त्याग करो। मेरी शरण में आओ । मैं तुम्हें मुक्त करूँगा पाप के परिणाम से और जो पाप की वासना/ प्रवृति है उससे भी मुक्त करूँगा । डरना नहीं अब बस मेरी शरण में आजाओ । भगवान की शरण मतलब नाम की शरण है ।
“ नामांश्रय करि जतन तुमि अकहो आपन काजे “
भगवान के विग्रह की शरण में , राधा गोविंद की शरण में । शरण में आना मतलब केवल बैठना नहीं है , प्रार्थना भी है, प्रदक्षिणा भी है। कुछ सेवा भी करनी चाहिए। अर्जुन ने जब शरण ली तो क्या कहा ? “आपके आदेश का पालन मैं करूँगा । मैं आपकी सेवा करूँगा । “ माम अनुस्मर युद्ध: च:” तुम क्षत्रिय हो तुम्हारा धर्म युद्ध करना है तो शस्त्र उठाओ। मैं समझा हूँ कि आपकी क्या इच्छा है मुझसे ? भगवान की शरण मतलब भगवान की सेवा, कई प्रकार की सेवा , नवधा भक्ति , ये सारी सेवा है । मेरी शरण में आओ मतलब क्या? आकर बैठ जाओ? वहाँ से फिर कारवाही भी करनी है । जीव कभी भी एक सेकंड के लिए भी निष्क्रिय नहीं हो सकता । क्रियाशील होना ये तो जीव का लक्षण है , चलायमान होना , चलना , हिलना डुलना उठना, बैठना कई सारी क्रियाये है । कितनी सारी क्रियाये है ? संस्कृत में २००० अलग अलग क्रियापद धातु का पाठ आता हैं है ,फिर उपसर्ग जोड़ने से एक एक धातु से फिर कई सारी क्रियाएँ है ।
’गच्छ’ मतलब जाना लेकिन ’आगच्छ’ मतलब आना। गच्छ, जाओ। आगच्छा, आओ। प्रतिगच्छ मतलब उल्टी दिशा में जाओ। तो गच्छ या गम को लेकर फिर कई सारी क्रियाएं हैं। तो मेरी शरण में आओ मतलब जीव निष्क्रिय हो नहीं सकता। तो कई सारी क्रियाएं, सेवाएं हैं। भगवान के लिए की हुई क्रिया ही सेवा है।
“ ऋषिकेन हृषिकेश सेवनम भक्तिर उच्च्यते “
तो ऐसी की हुई भक्ति ही,ये कर्मकांड वाला जो धर्म है, हिंदू धर्म अधिकतर कर्मकांड ही हो गया है। नरक में नहीं जाना है, नरक में जाने से बचाना है तो कहां जाओगे? स्वर्ग जाना चाहते हैं। स्वर्ग और नरक के बीच में उनका शटलिंग, शटलिंग बिटवीन नरक एंड स्वर्ग। शटल सर्विस होती है ना, शटल, यहां से फिर यहां तक आ गई ट्रेन। वहां से गोइंग बैक टू कनॉट प्लेस और शटल बिटवीन यहां से वहां, तो उनकी पहुंच नरक से स्वर्ग तक, स्वर्ग से नरक तक, नरक से स्वर्ग तक। तो ये जो नरक और स्वर्ग का चक्र है, द्वंद है इससे मुक्त होना है तो फिर “माम एकम शरणम् ब्रज” करना होगा और यही धर्म है। अभी तो आप कहे थे “सर्वधर्मान परितज्य।” नहीं, नहीं।
“धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे..”
धर्म की स्थापना के लिए आप प्रकट होते हो। चौथे अध्याय में तो प्रभु कहे थे आप, धर्म की स्थापना के लिए आप प्रकट होते हो। लेकिन अभी कह रहे हो की सर्वधर्मान परितज्य। सारे धर्मों को त्याग दो, ये क्या? ये समझ में नहीं आता है। दिस इस बड़ा भ्रमित करने वाली बात है। एक समय आप कहते हो धर्म की स्थापना करने के लिए आते हो, अभी-अभी कह रहे हो, अंत में सारा धर्म छोड़ दो, सर्वधर्मान्परित्यज्य। लेकिन भगवान “ माम एकम शरण ब्रज” ये धर्म है। धर्म संस्थापनार्थाय मतलब माम एकम शरण ब्रज, मेरी शरण में आओ यही धर्म है,यही धर्म का सार या धर्म का मर्म यही है। माम एकम, ऐसे पहले मुझे अकेले की शरण में जाओ। इसलिए भी हरेर नाम कहा। हरेर नाम, हरेर नाम, हरेर नाम। किसका नाम? हरि का नाम। सभी हरि नहीं है। देवता हरि नहीं है “हरेर नाम एव केवलम” तो समझो।
“ईश्वर एकला कृष्णा आर सब भृत्य” बस अकेला कृष्ण ही ईश्वर या परमेश्वर है और सभी तो उनके सेवक हैं, सारे देवता मंडली। तो माम एकम शरणम् ब्रज। अधिक जो धार्मिक कृत्य होते रहते हैं देश भर में, संसार भर में, हमारे हिंदू जगत में, यह सारा, ये प्रायश्चित का धर्म या ये कर्मकांड का धर्म, यज्ञ इस देवता को प्रसन्न करो, उस देवता को प्रसन्न करो, यह व्रत करो, ये नवरात्र, यह उपवास करो, ये करो, चलता रहता है, गणेश चतुर्थी आ गई, व्रत करो, दुर्गा पूजा आ गई। इसी को भगवान ने कहा है सर्वधर्मान परित्यज्य, परित्यज्य। जिसको त्यागना चाहिए उसी को अपनाया जा रहा है। क्योंकि भगवत गीता यथारुप नहीं समझ रहे। भगवत गीता यथारूप, एस इट इस, ये समझाने वाले भी तो चाहिए। भक्त अगर है और भक्त मतलब कृष्ण का भक्त, विष्णु का भक्त, भक्त। देवी देवता के भक्त को भक्त नहीं कहा।” कृष्ण भक्त निष्काम अतएव शांत, भुक्ति मुक्ति सिद्धि कामी सकले अशांत” सभी अशांत, भुक्ति कामी, मुक्ति कामी, सिद्धि कामी। तो भुक्ती कामना का धर्म, भुक्ति का धर्म है। उसके भी विधि विधान, संस्कृत के कई सारे मंत्र तंत्र मिलेंगे आपको, अध्याय के अध्याय मिलेंगे भुक्ति कामना के और मुक्ति कामना के अध्याय के अध्याय मिलेंगे संस्कृत भाषा में, हमारे वेदों में, हमारे पुराणों में, हमारे शास्त्रों में, भुक्तिकामी, मुक्तिकामी, सिद्धि, बहुत बड़ा टॉपिक है। और कई सारे सिद्ध पुरुष घूम रहे हैं, सिद्धि दिखाते हुए। कोई चमत्कार दिखाते हैं तो फिर आप झट से नमस्कार करते हो। उनका चमत्कार देखा आपने, नमस्कार ठोका। तो यह तो भुक्ति का धर्म, मुक्ति का धर्म, सिद्धि का धर्म, सकले अशांत,यह सारे अशांत रहेंगे। कृष्ण भक्त निष्काम, जिसकी वासना नहीं रही निष्काम, निष्किंचन। इसीलिए ये भक्ति की परिभाषा है, क्या कहा?
“अनुकूल्येंण कृष्ण अनुशीलनं..” उसके पहले “अन्याभिलाशीता शून्यम” वेरी गुड,अन्य अभिलाषिता शून्यम, अन्य अभिलाशा, प्रपद्यंते अन्य देवता। भगवान गीता में, देखो, देखो ये लोग शरण तो ले रहे हैं लेकिन प्रपद्यंते अन्य देवता, औरों की शरण ले रहे हैं। और पता है क्यों शरण ले रहे हैं? भगवान कह रहें है, “कामेस्तेस्ते अपहृत ज्ञाना” उनके मन में खूब कामना है, तीव्र कामना, कामै स्तेर। उस कामना ने क्या क्या? ह्रत ज्ञान, उनका जो ज्ञान है उसको चुरा लिया, उनकी बुद्धि को भ्रमित किया इस कामना ने, वासना ने। प्रपद्यंते अन्य देवता, तो ये भक्ति रसामृत सिंधु में जो भक्ति की परिभाषा कही है “अन्या अभिलाषिता शून्यम..”। तो “ सर्वधर्मान परित्यज्य, माम् एकम शरणम् ब्रज।” और दुकान में नहीं जाना, मेरे पास आओ।
“अन्य अभिलाषिता शून्यं ज्ञान कर्मादि अनावृत.”.
ज्ञान और कर्म, ज्ञान और कर्म, यह जो कर्मिस, यह जो भुक्ति, मुक्ति, सिद्धि कामी जो हैं, ये कर्मीज को, कर्मिस को भुक्ति में होते हैं और मुक्ति जिनको चाहिए वह ज्ञानी होते हैं। भुक्ति, मुक्ति, सिद्धि तो कर्मी, ज्ञानी, योगी। ये अलग-अलग पार्टीस हैं। कर्मी पार्टी, ज्ञानी पार्टी और योगी पार्टी।
“योगीनाम अपी सर्वेशाम।”
भगवान कहे, सर्वश्रेष्ठ योगी तो मेरा भक्त है। हरि हरि! भक्ति का प्रचार नहीं है, कर्मकांड का प्रचार है, अन्य ऐसे धर्मों का प्रचार है। भुक्ति, मुक्ति, सिद्धि कामना का प्रचार है और अन्य तरीके से ऐसे अनुष्ठान होते हैं, धार्मिक अनुष्ठान। तो फिर ये यमदूत गए, खाली हाथ गए, यमराज के पास गए। तो फिर यमराज ने पूछा यह कैसे हुआ? उसको पापी समझकर हम आपके पास ले तो आ रहे थे लेकिन वो कोई दूसरे लोग आ गए, दूसरे लोग आ गए कोई। ऐसे थे-वैसे थे, बड़े सुंदर थे। फिर हम तीन थे, तो वह चार थे। फिर कहा गया है, हम तो तीन ही थे लेकिन वह चार थे। अब यह भी कहा कि चार क्यों? उन्होंने ना, रा, य, ण कहा। चार अक्षर वाला आपका नाम कहा तो एक ही अक्षर का नाम लेते ही एक-एक आ गए सामने। ’ना’ कहते ही विष्णुदूत पहुंच गए, ’रा’ कहते ही दूसरे विष्णु दूत पहुंच गए, ’य’ कहते ही तीसरे पहुंच गए,’ ण’ कहते ही चौथे भी आ गए। तो हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहेंगे तो कितने आएंगे? बहुत बड़ी टीम आएगी। यह कैसे हुआ? क्या हुआ? तो ऐसा यमदूतों ने जाकर यमराज से पूछा ’ और कितनी अथॉरिटी है?’ हमने तो सोचा आप ही तो सर्वे-सर्वा हो। और भी कोई है क्या? तो फिर उन्होंने कहा वैसे। मेरे ऊपर भी है, विष्णु है, भगवान मेरे ऊपर हैं।
“धर्मम ही साक्षात भगवत प्रणीतम”
और उस भगवान ने दिया वो जो धर्म है, वो धर्म को जानने वाले कुछ लोग हैं “ स्वयंभू, नारद:, शंभू, प्रहलाद, जनको भीष्मो…”
ऐसे बारह है, और उन्होंने ग्यारह नाम लिए और कहा “वयम” मतलब हम लोग। तो हम मतलब, यमराज कह रहे थे, हम लोग मतलब मैं भी, मैं बारहवां, ये ग्यारह हुए और हम लोग कहने से फ़िर बारहवें का उल्लेख हुआ, मैं बारहंवा। मतलब ऐसे आगे ऊपर नीचे नहीं, ऐसे कहा है। वे बाहरवें वो पहले भी हो सकते हैं,तीसरे भी या आठंवे भी हो सकते हैं। लेकिन उनकी नम्रता हैं, औरों के नाम पहले कहे उन्होंने और फिर कहा की हम, मतलब मैं भी। धर्म को जो भली-भांति जानते हैं उनके अनुसार। यमराज ने फिर एक जजमेंट दिया। तुम तो आज भ्रमित हुए हो या जो उसको नहीं लाए तुम, खाली हाथ, एंप्टी पॉकेट आना पड़ा तुमको, तुमको अचरज हो रहा है, ये हुआ क्या? तो अब मैं समझाता हूं, तो सुनो और सावधान। तो क्या कहीं बात? यमराज, यमराज कहे, जो महाभागवत, यमराज महाभागवत हैं, वो वेदग्य हैं, त्रिकालज्ञ हैं, शास्त्रज्ञ हैं और भगवान ने नियुक्त किया है उनको। कोई भी अन्याय नहीं करेंगे वे। तो उन्होंने कहा,
“ तानान यदतवम..” उनको ले आना। आज से उन लोगों को ही मेरे पास ले आना,“ अकृत्य विष्णु कृत्यां… “
जिन्होंने विष्णु या कृष्ण, राम की प्रसन्नता के लिए कोई भी, कोई भी कृत्य नहीं किया है, केवल ऐसे लोगों को ही मेरे पास ले आना। और किसको नहीं लेकर आना? यहां कह रहे हैं?
“जीवहा ना वक्ति भगवत गुण नाम ध्येयम” . जिनकी जिव्हा पर भगवान का नाम नहीं है। वह कहते हैं वही बात।
जीवहा ना वक्ति…. या उनको ले आना। तान आन यदवम। उनको ले आना। थोड़ी सी यहां संकेत कर रहे हैं, किनको ले आना?
जिव्हा न वक्ति… जिनके जिव्हा पर भगवान का नाम नहीं है। जो भगवान का नाम का उच्चारण नहीं करते हैं। जिन्होंने नहीं किया है, उनको ले आना। ओके?
“चेतस चन स्मरती तत चरणारविंदम “
और जिनकी चेतना में भगवान के चरणारविन्द का स्मरण नहीं है।भगवान के चरणों का जो स्मरण नहीं करते हैं, उनको ले आना। “कृष्णायः नो नमती यत छिर एकदापि”
और जो एक समय भी कृष्ण के समक्ष नहीं झुके हैं। देखो यह झुके गए तो इनको नहीं ले जाएंगे। एक बार भी झुक गया तो उनका नाम यमराज के हिट लिस्ट या यमराज का जो सुपर कंप्यूटर, महा-कंप्यूटर में सारा फीडिंग होते रहता है, जैसे साक्षी, साक्षी, विटनेसेस, तो नाम फीडिंग होता है। तो जिसने भी भगवान को नमस्कार किया, उनको नहीं लाना है। जो भगवान का स्मरण करता है, उसको नहीं लाना है। और जो #हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम राम हरे हरे “ का उच्चारण करता है उनको भी नहीं ले आना। उनको ले जाने वाले और हैं, तुमको कष्ट करने की आवश्यकता नहीं है। दूसरी व्यवस्था है। तो एक अध्याय में जो पांचवें स्कंद का छब्बीसवाँ अध्याय में जो नरक की यातना का जो वर्णन है, तो उससे कैसे छूट सकते हैं ?इसका वर्णन, उसकी विधि, फिर अगले स्कंद मतलब छठवें स्कंद के तीन अध्यायों में प्रथम, द्वितीय, तृतीय अध्यायों में शुकदेव गोस्वामी उपाय समझाएं हैं। कैसे बचा जा सकता है? नरक यातना से या नरक लोकों की यात्रा से। और इस प्रकार इस श्रीमद् भागवत कथा में यह हरि नाम का महिमा की स्थापना हुई है। हरि नाम का गौरव शुकदेव गोस्वामी गायें हैं।
निताई गौर प्रेमानंदे हरी, हरी बोल।