
Srimad Bhagavatam 07.15.46
13-10-2022
ISKCON Vrindavan
ऑल ग्लोरीज टु द असेंबलड डिवोटिज, मतलब समझे न? सभी एकत्रित हुए, “ संवेता युयुत्सव “ जैसा कुरुक्षेत्र में एकत्रित हुए थे। वे दूसरे थे, पर कुछ अपने भी थे जैसे पांडव। समस्त उपस्थित भक्तवृन्द की जय हो! ऐसा प्रभुपाद जयध्वनि मे कहा करते थे।
श्रीमद् भागवत् , श्लोक संख्या:- ७.१५. ४६
नोचेतप्रमत्तमसादिन्द्रियवाजिसुता
नीत्वोत्पथं विषयदस्युषु निक्षिपन्ति।
ते दास्यवः सह्यसुतममुं तमोऽन्धे
संसारकूप उरुमृत्युभये क्षिपन्ति॥ 46 ॥
अनुवाद :–
यदि हम अच्युत भगवान् श्रीकृष्ण के उपदेशों का पालन नहीं करते तथा कृष्ण बलराम की शरण नहीं ग्रहण करते ( ऐसा विस्तार से शब्दार्थ दिये हैं श्रील प्रभुपाद, थोड़ा सा तात्पर्य दे दिये यहीं पर) ।
नोचेत् – यदि हम अच्युत कृष्ण की आज्ञा का पालन नहीं करते और बलराम की शरण नहीं लेते ; प्रमत्तम् – लापरवाह, असावधान ; असत् – जो सदैव भौतिक चेतना से ग्रस्त रहते हैं ; इन्द्रिय – इन्द्रियाँ ; वाजि – घोड़ों के समान कार्य करने वाले ; सूताः – सारथी (बुद्धि) को ; नित्वा – लाते हुए ; उत्पथम् – भौतिक कामना के मार्ग पर ; विषय – इन्द्रियविषयों को ; दस्युषु – लुटेरों के हाथ में ; निक्षिपन्ति – फेंक देते हैं ; ते – उन ; दस्यवः – लुटेरों को ; स – सहित ; हय – सुतम् – घोड़ों और सारथी को ; अमुम् – उन सब को ; तमः – अंधकारमय ; अन्धे – अंधे ; संसार – कूपे – भौतिक संसार के कुएँ में ; उरु – महान ; मृत्यु – भय – मृत्यु के भय से ; क्षिपन्ति – फेंक दो ।
अनुवाद और तात्पर्य श्रील प्रभुपाद द्वारा, श्रील प्रभुपाद की जय!
अन्यथा यदि मनुष्य अच्युत भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलदेव की शरण ग्रहण नहीं कर लेता , तो इंद्रियाँ रूपी घोड़े तथा बुद्धि रूपी सारथी , ये दोनों ही भौतिक कल्मष के प्रति उन्मुख होने के कारण अनजाने ही शरीर रूपी रथ को इंद्रिय रूपी मार्ग पर ला खड़ा करते हैं। इस प्रकार जब विषय के धूर्तों – खाना ,सोना तथा मैथुन के द्वारा वो आकृष्ट होता है। घोड़े तथा सारथी भौतिक अस्तित्व रूपी अंधकूप में गिरा दिये जाते हैं। मनुष्य पुनः जन्म मृत्यु की खतरनाक तथा अत्यंत भयावह स्थिति में आ पड़ता है।
तात्पर्य:–
मतलब हम प्रभुपाद की सुन रहे हैं यहाँ,इसलिए ध्यानपूर्वक सुनिए। गौर निताई, श्रीकृष्ण बलराम की रक्षा के बिना मनुष्य भौतिक संसार के अज्ञान रूपी अंधकार से बाहर नहीं निकल सकता। निकल सकता है ? नहीं निकल सकता। इसका संकेत यहाँ “ नोचेत” शब्द से मिलता है ,जिसका अर्थ है कि मनुष्य सदा भौतिक संसार के अंधकूप में रहता रहेगा। जीव को गौर निताई अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण तथा बलराम से बल प्राप्त करना चाहिए। जय बलदेव! श्री गौर निताई की कृपा के बिना अज्ञान के इस अन्धकूप से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है ,नहीं है। “नास्तैव नास्तैव नास्तैव ना गतिर्अन्यथा “ अन्यथा अर्थात् और कोई प्रकार है ही नहीं। जैसा कि चैतन्य चरितामृत आदि लीला के प्रथम अध्याय के द्वितीय श्लोक में कहा गया है,
“वन्दे श्रीकृष्ण चैतन्य नित्यानंदो सहोदितो , गौडोदये पुष्पवांतो चित्रो शमदो तमो अनुदो “ । मैं श्रीकृष्ण चैतन्य तथा भगवान श्री नित्यानंद को सादर प्रणाम करता हूं, नमस्कार करता हूं। मन ही मन में हमको नमस्कार भी करना चाहिए,केवल नमस्कार करता हूँ ऐसा कहना ही नहीं है । बल्कि क्या करना है? नमस्कार करना भी है। जो सूर्य तथा चंद्रमा के तुल्य हैं, वे एक साथ गौड के क्षितिज में अज्ञान का अंधकार दूर करने हेतु उदित हुए हैं। इस प्रकार आश्चर्यजनक रीति से सबको वर दे रहे हैं। यह भौतिक जगत अज्ञान का अन्धकूप है। इस अन्धकूप में पतित हुई आत्मा को गौर निताई के चरण कमलों की शरण ग्रहण करनी चाहिए क्योंकि तभी वे इस भौतिक जगत से सरलता से उभर सकते हैं।
उनके बल के बिना केवल तर्क-वितर्क युक्त ज्ञान के बल पर भौतिकता के बंधन से निकलने का प्रयास अपर्याप्त होगा। हरि हरि! “सुसंस्कृत मनुष्यों के लिए उपदेश”, इस अध्याय का शीर्षक है। क्या शीर्षक है? सुसंस्कृत मनुष्य बनने के लिए उपदेश देने वाले साक्षात् नारायण ही हैं। “नारायण! नारायण!” नारायण को सबको देनेवाले नारद जी और युधिष्ठिर महाराज के मध्य का यह संवाद है, इस सप्तम स्कंध में । तो वहाँ युधिष्ठिर महाराज सुन रहे थे ,अब हम सुन रहे हैं। किसको सुन रहे हैं ?नारद को सुन रहे हैं। फिर उसी को परंपरा में श्रील प्रभुपाद भी सुनाए हैं, तात्पर्य के रूप में कह सकते हैं। श्रीकृष्ण बलराम की जब स्थापना हुई, प्राणप्रतिष्ठा हुई तो अगले ही दिन मॉर्निंग वॉक में श्रील प्रभुपाद कह रहे थे कि “अब मैंने आपको कृष्ण बलराम को दिया है तो आपकी कोई समस्या है तो आप कृष्ण बलराम के समक्ष पहुंचकर कहो, सर! यह मेरी परेशानी है। हे भगवान कृष्ण बलराम! यह मेरी समस्या है। यह मेरी उलझन है ,कोई सुलझाना आपकी तरफ से हो जाए। “ ऐसा प्रभुपाद यहाँ लिख रहे हैं कि रक्षा करने वाले गौर निताई और कृष्ण बलराम है । वैसे कृष्ण बलराम ही है गौरी निताई और यही हैं वैसे राम और लक्ष्मण । त्रेता युग के राम लक्ष्मण, द्वापर युग के कृष्ण बलराम तो कलियुग के गौर निताई की जय! एक ही है। हर युगों में,
“ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥” (BG 4.8)
तो हमारी समस्या का हल तो कृष्ण ही है , हम ऐसा दावा करते रहते हैं। हर प्रश्न, हर मुसीबत का हल भागवत में है, भगवान के पास है। आप नाम लो बस, उस हर समस्या का हल/समाधान केवल और केवल भगवान ही कर सकते हैं।जैसे मृत्यु के भय की, वैसे कई सारी बातें इधर कहीं तो है। हमारी इन्द्रियाँ जब प्रमत्त हो जाती है, प्रमत्त इन्द्रियों को यहाँ “ इंद्रिय वाजि” मतलब उनकी घोड़ों के साथ तुलना की है। हमारी इन्द्रियाँ कैसी है? घोड़े जैसी है। जो लगाम होता है वो है बुद्धि। फिर रथ तो होना चाहिए तो शरीर ही है रथ।
“ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥ (BG 18.61)”
हम लोग आरूढ़ है, प्रवासी है, हम लोग यात्री है तो हम वाहन में विराजमान हुए हैं। माया का बनाया हुआ यह यंत्र है , तो यंत्र की जब बात होती है तो, “ ओह इसमें ४० घोड़े का बल है! इंजन या यंत्र जो भी है। कितना बल? २० या ४० घोड़े का बल है। तो हमारा यह जो इंजन है, यंत्र है यह कितने हॉर्स पावर वाला है? ५ घोड़ों का। हमारी जो पाँच इन्द्रियाँ हैं यही घोड़े हैं, हॉर्स पावर। तो यह खींचते रहते हैं और लगाम ढीला पड़ जाता है। ड्राइवर सो रहा है या उसका दिमाग़ काम नहीं कर रहा या वो बुद्धू ही है। सत् असत् विवेक नहीं है। सत् ,असत् , विवेक ये बुद्धि का ही काम होता है। यह सत् हैं, यह असत् है। वैसे यहाँ कहा ही है “प्रमात्तं असत् इन्द्रियाँ” । कभी इंद्रियाँ कुछ अच्छा भी कार्य करती हैं, सत् कार्य करते हैं और असत् कार्य भी करते हैं।
“ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गत्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते” ॥
(BG 2.62) में कृष्ण कहे हैं।
तो हम जिस प्रकार का ध्यान करते हैं ,अगर असत् का ध्यान है तो और इन्द्रियों का यहाँ “ विषय असत् दस्युषु निक्षिपन्ति”। तुम्हारी इन्द्रियाँ घोड़े भी है और जब विषय के पथ पर चलते हैं या विषय की ओर जाने लगते हैं ,दौड़ने लगते हैं तो क्या होता है? हम विषयों का ध्यान करते हैं ,इन्द्रियाँ और मन भी इसके साथ हैं । फिर कृष्ण कहते हैं “संडगस्तेषूपजायते” तेषू मतलब विषयेषू, उन विषयों में हम आसक्त हो जाते हैं। इन्द्रियों के विषय में हम आसक्त होते हैं। और फिर ऐसे संघ से उत्पन्न न होता है काम। और काम की जब तृप्ति नहीं होती तो क्या होता है? हमको आता है क्रोध, फिर हम मोहित हो जाते हैं और फिर क्या होता है? बुद्धि का नाश होता है। फिर क्या? बुद्धि का नाश हुआ या “विनाश काले विपरीत बुद्धि” । यहाँ कहा है क्षिपंति मतलब गिर जाता है। फिर सब समय वह मृत्यु के भय से डरा रहता है। यह हमारी स्थिति है , हमारा हाल ही ऐसा है। हमारे ध्यान के विषय कौन से हैं? वे मायावी है या कृष्ण विषय हैं हमारे ध्यान का? उसी से समस्त अंतर आएगा, उसी से पूरा ज़मीन आसमान का भेद हो जाता है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषुपजायते।
सङ्गत्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ 62 ॥
(श्रीमद भगवद्गीता 2.62 )
अनुवाद: इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य में उनके प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है और ऐसी आसक्ति से कामवासना उत्पन्न होती है और कामवासना से क्रोध उत्पन्न होता है।
संसार के विषयों का ध्यान किया, उसमें आसक्त हुए , फिर काम उत्पन्न होता है और धीरे धीरे बुद्धि का नाश होता है। यह काम है फिर क्रोध है। व्यक्ति क्रोधान्ध: बनता है, काम हमें अँधा बनाता है , क्रोध अंधा बनाता है। जब हम क्रोधित हो जाते हैं तो फिर कुछ भी करके बैठ सकते है। किसे पता है कि यह क्रोधित व्यक्ति आगे क्या करेगा? यह कुछ भी कर सकता है,कोई भरोसा नहीं है कामी और क्रोधी व्यक्ति का। यही तो शत्रु हैं जिसे दश्यवहा कहते हैं। दश्यु का बहुवचन- दश्यवहा। यह हमारे शत्रु हैं,कौन शत्रु है ? ६ शत्रु है, षड् रिपु कहा गया है। यह जो काम, क्रोध, लोभ,मोह, मद, मात्सर्य आदि यह सब चांडाल चौकड़ी का हिस्सा है। सूचि पूरी हो गयी ? यह हमारे शत्रु हैं जो हमको अँधा बना देते है। सत् असत् विवेक ये बुद्धि का काम हैं, हम विवेकहीन बन जाते है और इस संसार के फंदे में फंस जाते है संसार कूपे, फिर उसी के साथ
“पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे,कृपायापारे पाहि मुरारे ”
अनुवाद: बार-बार जन्म लेना, बार-बार मरना, तथा पुनः माता के गर्भ में पड़े रहना; इस संसार को पार करना अत्यन्त कठिन है। हे मुर के संहारक, अपनी असीम दया से मेरी रक्षा कीजिए।
वैसे वे बुद्धिमान थे, ये शंकराचार्य की ये प्रार्थना है। उन्होंने कहा “ प्रभु प्रभु बचाओ।” पहले तो कहा कि समस्या क्या है? पुनरपि जननम्… है समस्या। वही बातें यहाँ भागवत में भी कहीं हैं दूसरे शब्दों में । और फिर अंत में शंकराचार्य की उस प्रार्थना में : कृपायापारे पाहि मुरारे। पाहि मतलब रक्षा करो :
“हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥”
हम कैसे कहते है? अलग से हेल्प हेल्प नहीं कहते। बल्कि जब हम हरे कृष्ण कहते हैं तो क्या कहते हैं? हेल्प हेल्प!
“अयि नन्दतनुज किंंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।
कृपया तव पादपंकज-स्थितधूलिसदृशं विचिन्तय॥
(चैतन्य चरितामृत 20.32 )
अनुवाद: हे मेरे प्रभु, हे कृष्ण, महाराज नंद के पुत्र, मैं आपका शाश्वत सेवक हूँ, लेकिन अपने स्वयं के कर्मों के कारण मैं इस अज्ञान के भयंकर सागर में गिर गया हूँ। अब कृपया मुझ पर अकारण दया करें। मुझे अपने चरण कमलों की धूल का एक कण समझें।’
जब हम जप करते हैं, प्रभु के नाम को पुकारते है तो यही तो कहते है। कृष्ण के नाम को पुकारते हैं तो हम प्रार्थना ही तो करते रहते है।
“हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥”
कृष्ण का जब नामकरण संस्कार हुआ तो गर्गाचार्य ने क्या कहा? गर्गाचार्य नन्द महाराज से क्या कहे वो आप लोग सुनना चाहते हो? (भक्त: जोर से हरिबोल कहते हुए )
वे कहते है :
“ एश्वः श्रेय अधःश्यत गोप गोकुल नंदन:
अनेन सर्व दुर्गानि यूयम् मँजस तरिश्यथ:।।
यहाँ ’ उरु’ कहा है ला, मतलब विशाल या महान भय मृत्यु का। सर्वदुर्गाणि मतलब जहाँ जाना कठिन होता है। उसी से दुर्गा भी बनता है ,किला बनातेहै और उस किले को दुर्ग या फोर्ट कहते है। जिसको भी इस किले के अंदर रखा गया है उसे पार करना मुश्किल होता है इसलिये इसको दुर्ग कहते है। इसे पार करना या बाहर निकलना कठिन है। “अनेन सर्व दुर्गाणि” मतलब कई सारी समस्याएँ उत्पन्न होती है, बाधाएं उत्पन्न होती है। हमारा जो मार्ग विघ्न से भरा रहता है उसी को गर्ग आचार्य ने यहाँ बताया है कि ये जो कृष्ण है यही तो तुम्हारी सारी समस्याओं और कठिनाइयों में आपकी सहायता करेगा। “ पूरा अनेन व्रजपते साधवो दषु पीडिताः”
पूरा : पहले , जब जब साधु संत मंडली दस्यु पीडिता: होगी याने चोरों लुटेरों से जब जब साधु परेशान हुए हैं तब तब इसी बालक ने ही तो रक्षा की है। सभी संतो का, भक्तों का रखवाला तो यही है।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥31॥ ( श्रीमद भगवद्गीता 9.31 )
अनुवाद: वे शीघ्र धार्मात्मा बन जाते हैं और चिरस्थायी शांति पाते हैं। हे कुन्ती पुत्र! निडर हो कर यह घोषणा कर दो कि मेरे भक्त का कभी पतन नहीं होता।
राखे कृष्ण मरे के? मरे कृष्ण राखे के? – “यदि कृष्ण रक्षा करना चाहते हैं तो कौन तुम्हारा बाल भी बांका कर सकता है? कृष्ण यदि तुम्हें मारना चाहते हैं, तो कौन बचा सकता है?
गर्गाचार्य कह रहे है कि बस हमें विष्णु के पक्ष को अपनाना है, विष्णु के पक्ष को मत देना है।
किसको मत दोगे आप? कृष्ण को। फिर कृष्ण के दल को आप ज्वाइन करोगे तो कृष्ण के हो जाओगे तो, रक्षमान:। ये राक्षस है या असुर हैं या शत्रु हैं , इनको कृष्ण संभालेंगे।
क्योंकि जब-जब समस्या होती है तो भगवान के भक्त “ओ माय गॉड! हेल्प हेल्प” पुकारते हैं। “दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे ना कोई “ यह समस्या भी है और सॉल्यूशन भी है । दुख आता है तो क्या करते हैं हम लोग ? भगवान का स्मरण करते हैं, भगवान पर निर्भर रहते हैं, भगवान की और मुड़ते हैं। इसलिए कुंति महारानी कह रही थी कि प्रभु भेजते रहो समस्या, एक के बाद एक समस्या भेजते रहो, “ विपद: विपद: संतुते शास्वत यत्र यत्र जगतगुरु दर्शनम यत शाद “ जब भी समस्या होगी तो हम आपकी तरफ दौड़ेंगे, आपका दर्शन करेंगे तो फिर क्या? “ न पुनर भव दर्शनम् “ समस्या होगी हम आपकी और दौड़ेंगे, आपका दर्शन करेंगे या कहेगें “ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे” तो आप सुनोगे हमारी पुकार को, आप वहाँ पहुंच भी जाते हो “ यत्र मद भक्त गायंति तत्र तिष्ठामि नारद “, जहाँ भी भगवान के भक्त भगवान के नाम का गान या स्मरण करते हैं ,वहाँ भगवान पहुंच जाते हैं। “ हे गोविंद! हे कृष्ण! “ किसने कहा? द्रौपदी ने कहा तो वहाँ कृष्ण आगए और साड़ी का सप्लाई कितना ? एक पहाड़ जैसा। हमारे लिए भगवान नहीं आते ,भगवान क्यों नहीं आते ? द्रौपदी जैसे पुकारते नहीं तो इसलिए भगवान नहीं आते। तो अगर हम द्रौपदी जैसे पुकार सकते हैं, कुंति महारानी जैसे पुकार सकते हैं या प्रहलाद महाराज ,ध्रुव महाराज ,ये सारे महाराज या श्रील प्रभुपाद जी महाराज जैसे उन्होंने प्रार्थना की है, पुकारे हैं, तो भगवान आएंगे। वैसे और कोई “ देह अपत्य कलत्रादि दिषु असत् सेइने शिवसत्स्व अपि “ ऐसे शुकदेव गोस्वामी कहते हैं “ सावधान! यह संसार के लोगों का विश्वास तो अपना देह , अपने अपत्य पुत्र-पुत्री ,कलत्र (वाइफ) और फिर आदिशु मेरा वकील, मेरा धिस वन, मेरा दैट वन पर ज्यादा भरोसा होता है। लेकिन शुकदेव गोस्वामी कह रहे हैं यह सारे झूठ-मुठ का सैन्य है , तुमने अपना गार्ड भी खड़ा किया हैं, बाहर कुत्ते भी है ,कुत्तों से सावधान भी कहते हो और आपके डिफेंस के लिए बहुत सारी व्यवस्था है, जॉइंट फैमिली है एंड धिस वन दैट वन । लेकिन शुकदेव गोस्वामी शिक्षा दे रहे हैं ये सब बेकार की सेना है, डोंट डिपेंड अप ऑन दैम्। उन पर निर्भर नहीं रह सकते ,जब यमराज आए जाएंगे तो क्या आपके गार्ड गेट पर रोकेंगे ? क्या कुत्ते भोकने लगेंगे? क्या कुत्तों का भौंकना सुनके दे विल गो बैक? नो! वे अपना काम करके ही जाएंगे। एक व्यक्ति बड़ी रफ्तार से कार चला रहा था, इतने में फोन आ गया तो उसे मोबाइल का प्रयोग नहीं करना चाहिए गाड़ी चलाते समय । लेकिन फोन आया तो फोन पर जो बोल रहे थे वे कहे “ आई लाइक टू सी यू, आपसे अपॉइंटमेंट चाहता हूं। “ लेकिन इस व्यक्ति ने जवाब दिया “ नो! नो! आई एम बिजी ,नॉट नाउ, नॉट नाउ,” ऐसा कहते कहते कहते वो गाड़ी रफ्तार से चला ही रहा था, तो गाड़ी खड्डे में या ऑफ डी क्लिफ गिरने जा ही रही थी और इतने में उसे व्यक्ति ने कहा “यमराज स्पीकिंग? “ जो अपॉइंट्मैंट चाहते थे वह यमराज ही थे। लेकिन ये व्यक्ति कहते हैं, “ ना! नो! नो! अभी मरने केलिए समय नहीं है , नो टाइम नेक्स्ट टाइम “ हम कहें कि जन्माष्टमी है, तो वो कहते “नो टाइम ,नेक्स्ट टाइम”। किसमें हूं मैं? काम में हूं। आई एम बिजी। काम में हूंँ के दो अर्थ है। काम मतलब काम, वर्क इस वरशिप। व्यक्ति कार्य कैसे करते हैं? कामी बनके कार्य करते हैं। ये काम मुझे व्यस्त रख रहा है। “ प्रकृतै क्रियमाणानि गुणै कर्माणि सर्वश: अहंकार विमूढ़ आत्मा कर्ता अहं इति मन्यते “ काम उनको व्यस्त रख रहा है। अहं अहं कहते रहते और कार्य करते रहते। गर्गाचार्य मुनि ने और एक सुंदर बात कही है। वह कह रहे हैं “ य एतस्मिंन महाभागा प्रीतिम कुर्वंति मानवा “ जो लोग भाग्यवान है, उनका भाग्य का उदय हो रहा है, “ब्रह्मांड भ्रमिते” कौन है ? भाग्यवान जीव। कौन-कौन है? सभी नहीं हैं भाग्यवान जीव। फिर “गुरु कृष्ण प्रसादे पाय भक्ति लता बीज” । तो महाभागा मतलब जो कोई भाग्यवान होते हैं वह क्या करते हैं?” प्रीति कुर्वांति” वे भाग्यवान इसलिए भी है क्युकी वो भगवान से प्रीति करते हैं, प्रेम करते हैं। संसार के साथ तो काम होता है, हम काम करते हैं, हम कामी होते हैं । यहां गर्गाचार्य कह रहे हैं “काम के स्थान पर प्रेम की स्थापना करो, प्रेम उदित करो, प्रेम जगाओ कृष्ण के लिए” “कृष्ण प्रेम प्रदायते”। चैतन्य महाप्रभु ऐसे प्रकट होकर किसका वितरण किये हैं? कृष्ण प्रेम का वितरण। और कृष्ण प्रेम हम समझते हैं कि नहीं?” हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे हरे” यह क्या है? यह प्रेम है। “ गोलोकेर प्रेमधन हरिनाम संकीर्तन” तो इसका श्रवण कीर्तन करेंगे तो क्या होगा? विष्णु का स्मरण, कृष्ण का स्मरण। कृष्ण बलराम की जय! गौर निताइ का स्मरण करेंगे या राम लक्ष्मण का स्मरण करेंगे हम या उनको संबोधित भी करते हैं जब हम उनको पुकारते हैं।” हरे कृष्ण” मतलब “हे राधे! हे कृष्ण!” ये साढ़े 16 जो शब्द हैं, 16 जो नाम हैं, एक-एक नाम संबोधन है । संबोधन समझते हैं? वी आर अड्रेसिंग, हम पुकार रहे हैं मानो राधारानी समक्ष खड़ी हैं । तो राधे मतलब “ हे राधे!” और कृष्ण मतलब “ ओ कृष्ण!” फिर पुनः “हे राधे हे कृष्ण!” फिर आठ बार राधे राधे ,आठ बार कृष्ण कृष्ण ही है। ये राम भी कृष्ण ही हैं, हरे राम हरे राम वाले। “ प्रीति कुर्वति” जो लोग भगवान से प्रेम करेंगे, यह तो रहस्यमई बात है ,ऐसा करनेवाले “मानव: न अर्यः “ अरि मतलब शत्रु होता है।
दस्यु मतलब भी शत्रु होता है,ऐसे कई समानार्थी शब्द हैं। “ न अर्यः अभिभवन्ति एतान्” इस संसार का कोई भी शत्रु, ये 6 बड़े बड़े शत्रु हैं-काम क्रोध मोह लोभ मद मत्सर्य। पाकिस्तान हमारा शत्रु नहीं है, उक्रैंन का शत्रु रूस नहीं है, रूस का शत्रु उक्रैंन नहीं है। शत्रु तो यह काम है, ये क्रोध है, ये लोभ है। इतना व्यस्त रखता है यह लोभ, कोई समाधान ही नहीं है। जरुरतें तक तो ठीक है, ऐसा महात्मा गाँधी भी कहा करते थे, नीड मतलब जरूरतें। कम से कम जो हमारी जरूरतें है उसको नीड कहते हैं।नीड ठीक है, उसपे हमारा हक है। लेकिन जब आवश्यकता के स्थान पर हमारा लोभ आ जाता है , हम लोभी बन जाते है। लोभी का तो कभी समाधान होना ही नहीं है, सीधे मृत्यु ही होगी। लोभी बनके ही विल बी डेड एंड गौन। यह सभी खतरनाक शत्रु हैं । गर्गाचार्य का कहना है कृष्ण बलराम से प्रेम करो। वही बात तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद कह रहे है कि कृष्ण बलराम से प्रेम करो, गौर निताई से प्रेम करो, फिर शत्रु परेशान नहीं करेंगे और मृत्यु से भी बच जायेंगे। हम मृत्यु से बच गए तो फिर पुनः जनम नहीं लेना पड़ेगा।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ९ ॥ (श्रीमद भगवद्गीता 4.9 )
अनुवाद: हे अर्जुन! जो व्यक्ति मेरे स्वरूप तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह शरीर त्यागने के पश्चात् इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।
वैसे व्यक्ति क्या करेंगे? भगवान् को प्राप्त करेंगे। हरि हरि! तो हम प्रार्थना करते हैं-
“नमो देव दामोदरानन्त विष्णो
प्रभो दुःख-जालाब्धि-मग्नम्
कृपा-दृष्टि-वृष्ट्याति-दीनं बतानु
गृहाणेष मामज्ञमेध्यक्षिदृश्यः” ॥ ६॥ (दामोदराष्टकम)
अनुवाद: हे देव! हे (भक्तवत्सल) दामोदर! हे (अचिन्त्य शक्तियुक्त) अनंत! हे (सर्वव्यापक) विष्णो! हे (मेरे ईश्वर) प्रभो! हे (परम स्वतंत्र) ईश! मुझ पर प्रसन्न होवे! मै दुःख समूह रूप समुद्र में डूबा जा रहा हूँ। अतएव आप अपनी कृपा दृष्टि रूप अमृत की वर्षा कर मुझ अत्यंत दीन-हीन शरणागत पर अनुग्रह कीजिए एवं मेरे नेत्रों के सामने साक्षात रूप से दर्शन दीजिए।
हम लोग वैसे रोज़ ही गा ही रहे है दमोदराष्टकम में “ जालाब्धि-मग्नम् “ जिसमें संसार कूप की बात की है। यहाँ पर भी हम गा रहे है, हम मग्न है, मस्त हैं जालाब्धि में। इस संसार का जो जाल है ,जंजाल है इसमें ड़ूब रहे है, मरके ड़ूब रहे हैं। इसलिये क्या करो ? “हे देव! हे दामोदर!हे अनंत!हे विष्णु! कृपा करो।” प्रसीद माने कृपा करो। “ कृपा दृष्टि वृष्टि याति दीनम वतानु, घ्रिहानेश् मांमज्ञ मेंध्यक्षि दृश्य:” मुझ पर कृपा दृष्टि की वृष्टि करो, “ हे दामोदर! जय दामोदर।” लगे रहिये इस कार्तिक व्रत में। आप जहाँ पर हैं,वैसे वृंदावन में भी बिता सकते हो ये कार्तिक मास, यही सबसे बढ़िया है। आपमें से कौन कौन बितानेवाले हैं पूरा कार्तिक मास? आप बुद्धिमान हो। बुद्धू लोग यहाँ नहीं पहुँचते। हरे कृष्ण भक्त व्यस्त हैं तो वे बुद्धिमान हैं वैसे। तो लगे रहिये और भगवान हम सबको और मुझे भी थोड़ी बुद्धि दे दें। दिमाग दें ताकि हम ऐज़ अ ड्राइवर् जो सफर है, जो प्रवास है उसको पूरा करें।और भी कई बातें तो हैं ही ,आत्मा पेसेंजर है और बुद्धि है संचालक है। सफर में सबसे अधिक रोल किसका होता है ? ड्राइवर का या पायलट का। यात्री अगर सो भी जाते है तो चल जायेगा, लेकिन ड्राइवर अगर सो जाये, पायलट ही सो जाय तो सब कुछ ख़तम। सतर्क रहना है हमको , सावधान! और बुद्धि से काम लेना है। भगवान हम सबको बुद्धि दें और उन्होंने वचन दिया है:-
तेषां सततंयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयन्ति ते ॥ (श्रीमद भगवद्गीता 10.10)
अनुवाद: जो लोग निरंतर प्रेमपूर्वक मेरी सेवा में लगे रहते हैं, मैं उन्हें वह समझ देता हूँ जिसके द्वारा वे मेरे पास आ सकते हैं।
जो मेरी सतत् सेवा में निरंतर लगे रहते हैं उनको मैं क्या करता हूँ? कृष्ण कह रहे है “मैं उनको बुद्धि देता हूँ” । मेरी दी हुई बुद्धि का उपयोग कैसे किया जाना चाहिए? या मैं किसके लिए बुद्धि देता हूँ? ताकि वह व्यक्ति जिसको मैंने बुद्धि दी हुई है, उसका उपयोग मेरी ओर आने में, मैं जहाँ रहता हूँ वहाँ आने में ,अपने दिमाग का प्रयोग करें। ‘उप’ मतलब नजदीक, ‘यान्ति’ मतलब जाना। मै जहाँ रहता हूँ, “गोलोक एव निवसति अखिलात्म भूताः” । तुम आओगे मेरे पास, भगवान् का भी लक्ष्य है कि हमको उनके पास लाना है। वैसे हम आ ही चुके हैं। वृन्दावन धाम की जय! “गोलोकेर वैभव लीला प्रकाश करिला” गोलोक की लीलाएं , वैभव यहाँ गोकुल वृन्दावन में भी प्रकाशित किए भगवान् ने ,इसमें कोई अंतर् नहीं है। हम अनुभव कर सकते है कि हम वृंदावन भगवद्धाम लौट चुके हैं। हम सदा के लिए यहाँ रहने के पात्र बन सकते है ,तो यह सबसे उत्तम होगा।
निताई गौर प्रेमानन्दे, हरि हरि बोल