
Srimad Bhagavatam 10.84.13
31-01-2025
ISKCON Juhu
१९७२ में प्रभुपाद मुझे पूछे थे “हरे कृष्ण लैंड जुहू में कितने लोग आते हैं दिन भर में ? मैंने प्रभुपाद से कहा था “५०, ६०” लोग आते हैं प्रभुपाद। ये बात सुनकर प्रभुपाद कहते हैं, “सो मैनी” । ५० ,६० लोगों के आने को प्रभुपाद कह रहे हैं इतने सारे लोग आ रहे है। तो फिर मैं आज सोच रहा था देखो कितने सारे लोग हैं। केवल प्रातःकाल में इतने आ गए, दिनभर में या प्रत्येक मिनट में पचास, साठ लोग प्रवेश कर रहें हैं। जय राधा रासबिहारी की जय! श्रील प्रभुपाद की जय! इसमें आपकी भी जय हैं! और अन्तोत्गत्वा “परम विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम” । चैतन्य महाप्रभु ने ही कहा है ,”जीत होगी, विजय होगी किसकी? हरे कृष्ण आंदोलन, संकीर्तन आंदोलन की जीत होगी। इसलिए आप हूटिंग करते जाओ या फिर वैसे भी कहा है महाभारत में, “ विजयस्तु पांडुपुत्रा नाम तेषाम् पक्षे जनर्दन:“ , विजय तो पांडव पुत्रों की ही होगी क्योंकि उनके पक्ष में जनार्दन हैं। जिनके पक्ष में कृष्ण हैं या जो कृष्ण के पक्ष में हैं, विजयस्तु उसकी विजय होगी ही । आज की कक्षा में सिर्फ स्वागत की चर्चा होने वाली हैं ,स्वागत की कितनी सारी महिमा भी हैं, सुस्वागतम् । फिर स्वागत के साथ क्या जोड़ दिया ? सुस्वागतम् । तो पुनः स्वागत और अभिनंदन आप सभी का । आज नित्यम भागवत सेव्या के अंतर्गत ग्रंथराज श्रीमद्भागवत का १० .८४.१३ श्लोक
“यस्यात्मबुद्धि: कुणपे त्रिधातुके स्वधी: कलत्रादिषु भौम इज्यधी: ।
यत्तीर्थबुद्धि: सलिले न कर्हिचिज जनशेव अभिज्ञेषु स एव गोखरा:।।
अनुवाद:- जो व्यक्ति स्वयं को बलगम, पित्त और वायु से बनी जड़ देह मानता है, जो अपनी पत्नी और परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता है, जो मिट्टी की मूर्ति या अपनी जन्मभूमि को पूजनीय मानता है, या जो तीर्थस्थान को केवल वहां का जल समझता है, किन्तु जो कभी भी आध्यात्मिक सत्य में ज्ञानी व्यक्तियों के साथ अपनी पहचान नहीं करता, उनसे सम्बन्ध नहीं रखता, उनकी पूजा नहीं करता या उनके दर्शन भी नहीं करता – ऐसा व्यक्ति गाय या गधे से अधिक श्रेष्ठ नहीं है।
तात्पर्य:- प्रभुपाद के शिष्यों द्वारा।
ये वैसे तेरहवाँ अध्याय चल रहा है, श्रील प्रभुपाद दसम स्कन्ध तेरवे अध्याय तक ही भाषांतर/ तात्पर्य स्वयं ही लिखे और वहाँ से अगलेवालेजो भी स्कंद हैं, अध्याय और श्लोक हैं उनके शिष्यों ने इसकी रचना की हुई है। उनकी भी जय हो!
ऐसा व्यक्ति गाय या गधेे के तुल्य है “ स एव” वही तो है। बैल भी कह सकते थे। मुझे पर्सनली गाय कहना अच्छा नहीं लगता ,क्योंकि अगर गाय जैसा है तो अच्छा है न फिर। गौ माता की जय ! शांत प्रवृत्ति की भी होती हैं, गाय की इतनी सारी महिमा है। तो वैसे ऐसे व्यक्ति की तुलना बैल के साथ ठीक है। लेकिन बैल भी अच्छा होता है ,वह भी धर्म का प्रतीक हैं। भागवत में उल्लेख तो है “गौखरा:” और गधा। केवल गधे से काम बन सकता था, गधा कहीं का! कहने से सब आगये उसमे। लेकिन साथ में गौखरा कहा है। “यस्यात्मबुद्धि “ जिसकी बुद्धि है,सोच है या जो मानके बैठा है ,ऐसा यहाँ ‘बुद्धि बुद्धि’ दो बार कहा है और ‘धी धी’ दो बार कहा है, तो ऐसे बुद्धिवाले ऐसे विचारवाले, समझवाले कैसे कैसे हैं? चार प्रकार के हैं जो यहाँ बताया है। पहला है:- “यस्यात्म बुद्धि कुणपे त्रिधातुके “ जो व्यक्ति समझता है तीन धातुओं का (मतलब कफ पित और वायु )का बना हुआ है ये शरीर है। ‘कुणप’ मतलब शव या प्रेत भी कहो या डेड बॉडी,निर्जीव शरीर जिसमें जीव नहीं है । ऐसे शरीर को जो वो स्वयं है ,ऐसा समझता है। यह शरीर ही मैं हूँ ,वैसे दूसरा अच्छा शब्द है देहात्मबुद्धि , ये देह ही आत्मा है। आत्मा कोई अलग से नहीं है। आप कौन हो? हम झट से आईडी दिखाते हैं, अपना फ़ोटोग्राफ़ दिखाते हैं, कि ये मैं हूँ (जो हम नहीं होते हैं, ये आगे की बात है। जो समझता है यह शरीर ही है, ऐसा मान कर बैठा है।
यह शरीर ही सबकुछ है,” यस्यात्मबुद्धि: कुणपे त्रिधातुके” तीन धातु का बना हुआ या पंच धातु का कहो- पृथ्वी, जल ,आग, वायु, आकाश का या फिर और भी तीन धातु जोड़ने हैं तो मन,बुद्धि,अहंकार का सूक्ष्म शरीर भी है। इन सबसे बना हुआ शरीर ही मैं हूँ ,अलग से कोई आत्मा नाम की कोई भी वस्तु नहीं है । समझ में आ रहा है? हाँ या ना? तो यह एक बहुत बड़ी समस्या है संसार में, यहाँ से सारी समस्या की शुरुआत होती है। यस्यात्मबुद्धि: कुणपे त्रिधातुके
यह एक है और दूसरा है “स्वधी: कलत्रादिषु” , यहाँ स्व मतलब मम की बातें होती है। हम केवल दो शब्दों में माया का वर्णन या उल्लेख कर सकते हैं । एक है अहम और दूसरा है मम, “अहम ममेती” ऐसा भागवत में कहा है। अहं मम इति, इति मतलब बस इतना ही, पूर्ण विराम। सारी माया क्या है? अहम और मम। ‘अहम’ तो ये हो गया कि “यस्यात्मबुद्धि: कुणपे त्रिधातुके”, तीन धातुओं या पाँच धातुओं का या अष्टधातु का मिलाकर जो बना हुआ शरीर है वह मैं हूँ। जहाँ तक ‘मम’ की बात है,कलत्रादिषु। कलत्र मतलब पत्नी, बच्चे और साथ में आदिषु भी कहा है। वैसे शुरुआत तो पत्नी से होती है और वैसे यह जो स्त्री शब्द है उसका मतलब जो विस्तार चाहती है। वैसे विवाह करते ही पूरा अपार्टमेंट चाहिए, गृहणी वो तब होगी जब गृह होगा । गृह होगा तो गृहणी भी होगी ,तो घर से शुरुआत होती है। और फिर वहाँ से प्रजा उत्पादन होता है, फिर और रिश्तेदारों की बात भी है, रिश्ते नाते हैं, सगे संबंधी है, संपत्ति है। इनको जो अपना मानता है,अपनों को अपना मानता है, उसे कुछ और तो मानना चाहिए था पर मानता नहीं है । वो बात दूसरी है फिर उसकी व्याख्या हो गई।
जो समझता है कि “आत्मवत् सर्वभूतेषु, लोषत्वत परद्रव्येशु, मातृवत परदारेशु स पंडित:”, ऐसा व्यक्ति पंडित या ज्ञानी समझा जाता है। मैं ये ज़्यादा विस्तार से नहीं कहना चाहता हूँ। आत्मवत् सर्वभूतेषु, जो समझता है कि सारे जो भूत हैं,भूत मतलब भूत नहीं, जीवात्मा है। सारे जीवात्मा कैसे हैं? आत्मवत याने मेरे जैसे हैं ,मेरे हैं मानो मैं ही हूँ। ये विशाल दृष्टि या उच्च विचार हुआ या उसी के अंतर्गत वसुधैव कुटुम्बकम् भी हुआ। “अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्” ये लोग तो अपने हैं, ये तो पराए हैं। ऐसी चेतना ऐसे विचार ऐसी सोच लघु है, नीच है या हलकट हैं। हलकट समझते हैं ? हलकट मतलब यह हल्की बात है। “ उदार चरितानाम तु “ जिनका चित्त उदार है , उदार दिलवाले हैं या विशाल दृष्टि है या उच्च विचार है।
उनका विचार कैसा होता है? वसुधैव कुटुम्बकम, मतलब इस पृथ्वी पर जितने भी लोग हैं मेरे परिवार के हैं। तो कहाँ है ये विचार आजकल?अभी तो हम दो और हमारे दो, या फिर और दो चार जोड़ दो फिर ख़त्म। अपने अहंकार को हम बढ़ाते रहते हैं और बढ़ाते बढ़ाते आगे के बात भी यहाँ आ रही है, “ भौम इज्यधी:” केवल मेरा परिवार और मेरे सगे संबंधी ही मेरे नहीं है, सारे देशवासी भी मेरे हैं। भारत की जय! इंडोनेशिया की जय! जय बांग्लादेश माता की जय! पाकिस्तान माता की जय! और आजकल अमेरिकन, वहाँ के ट्रम्प इतना सारा क्या क्या कह रहे हैं? अमेरिका फ़र्स्ट,अमेरिका फ़र्स्ट! बाक़ी लोग यहाँ से बाहर निकल जाओ,इमीग्रेशन और न जाने क्या क्या चल रहा है। तो अपने ईगो को ,अपने अहंकार को बढ़ा चढ़ाकर कहाँ कहाँ तक पहुँचा देते हो? जितना हमारा बड़ा देश है, भूमि है उसे हम पूजनीय मानते हैं। भारत माता की ,इस माता की , उस माता है जय! लेकिन यह भी अहंकार की बात है ,थोड़ा अहंकार को बढ़ा दिए हैं । लेकिन सही तो यह है कि पृथ्वी पर जितने लोग है एक संसार एक परिवार हैं । कम से कम भारत की सरकार ,अभी जब जी-२० चल रहा था (आपने सुना दिल्ली में) जिसमें 20 देशों के राज्यों के प्रमुख बुलाए गए थे और उस कांफ्रेंस की थीम ही थी “वसुधैव कुटुम्बकम” , एक दुनिया एक परिवार। वैसे ऐसे विचार का भारत भी है ,इसलिए भारत विश्व गुरु भी है ,ये गुरु के विचार हैं । एक होता है गुरु और एक होता है लघु। कुछ लोगों को ऐसा विचार होता है कि मेरा देश पूजनीय हैं, मेरे देशवासियों की जय हो! और उनका फिर जो भी हो, हमें उससे मतलब नहीं है। तो ऐसे विचार , मतलब अब तीन हो गए हैं विचार। गिन रहे हैं ना आप? और फिर है “यत्तीर्थबुद्धि: सलिले न कर्हिचि” -तो बुद्धि बुद्धि धि, घि। ऐसे चार बार कहा है वैसे धि या बुद्धी एक ही बात है। चार प्रकार के विचार जो सही नहीं है। चौथा है “यत्तीर्थबुद्धि: सलिले न कर्हिचि”, तीर्थ यात्रा में जाना और वहाँ स्नान हो गया ,डुबकी लगा ली, यात्रा पूरी हो गई,चलो बैक टू ट्रेन स्टेशन।
तो यह विचार भी सही नहीं है । सलिल मतलब जल ,जल को संस्कृत में सलिल कहते हैं। सलिल एक उत्सव भी होता है जो बंगाल में या स्थानों पर भी मनाते हैं। सलिले,भौमे, सारा सप्तमी में चल रहा है। सब बहुवचन का सप्तमी में चल रहा है मे,मे,मे,मे, जिनका ऐसा विचार है ,तो ऐसे विचार वालों को क्या कहा जा रहा है? इसको और भी थोड़ा विस्तार से कहा है कि उस तीर्थ उस धाम के जो ऐसे जन हैं वो अभिज्ञ हैं ,मतलब ज्ञानी हैं शास्त्रज्ञ है या एक प्रकार से सर्वज्ञ है या उस क्षेत्र या तीर्थ के संबंध में सब कुछ जानते हैं। तो उन लोगों में बुद्धि नहीं है ,उन साधु संतों में बुद्धि नहीं है। वैसे हर तीर्थ के धाम गुरू भी होते हैं। जैसे जेन्विन स्पेयर पार्ट्स होते हैं और फिर नकली स्पेयर पार्ट्स होते हैं। तो आजकल थोड़ा नकली मामला चल रहा है, लेकिन एक समय रीयल धाम गुरु या पंडित जिनको आजकल हम पंडा कहते हैं। पंडों से दूर रहो, वृंदावन में पंडा हैं ,जगन्नाथ पुरी में पंडा हैं ।
पंडित से बना है शब्द पंडा। पंडित मतलब ज्ञानवान,“पंडित: समदर्शिन:”जिसकी समदृष्टि है। जो उन पंडितों से नहीं मिलते,उनसे कथा श्रवण इत्यादि नहीं करते हैं, बस क्या करते हैं? केवल स्नान करते हैं, डुबकी लगाते हैं और हो गया। “यत्तीर्थबुद्धि: सलिले न कर्हिचि- ज्जनेष्वभिज्ञेषु”। ये जो अभिज्ञ जन हैं उनसे सम्पर्क नहीं करते हैं। उनका गाइडेंस लेकर देखना चाहिए धाम को, नहीं तो नहीं दिखाई देगा, कुछ समझ में या कुछ पल्ले नहीं पड़ने वाला है।
हरि हरि! यह जो हम वचन सुन रहे है या पढ़ रहे हैं, ये श्रीभगवन उवाच चल रहा है, भगवान् कह रहे है। वैसे भागवत कथा में आप आज ही आके धमके हो, हर रोज नहीं आ रहे हो, नित्यं भागवत सेव्य नहीं हो रही है। इसलिए आपको पता नहीं लगा होगा कि ये कौन कह रहे हैं ? ये भगवान् कह रहे है। मैं संक्षेप में यह कहना चाहता हूं कि भगवान् स्वयं तीर्थ यात्रा में गए हैं, द्वारका से कुरुक्षेत्र गए हैं, सूर्य ग्रहण का समय है। कुरुक्षेत्र में कई सारे कुंड हैं स्नान केलिए और वहाँ पर एक सूर्यकुंड भी प्रसिद्ध है। कृष्ण, बलराम और कई सारी द्वारका की रानियाँ बहुत बड़ी संख्या में पहुंचे हैं। वैसे एक दूसरा भी कारण था लेकिन मै नहीं कहूंगा, क्यूंकि पिछला जो अध्याय हुआ ‘वृन्दावन वासियों की कृष्ण बलराम से भेंट होना’ । कृष्ण बलराम ब्रजवासियों से बहुत समय से नहीं मिले थे। ७० -८० साल बीत चुके थे और कृष्ण ने “अभी अभी आता हूँ” ऐसा गोपियों को कहा था। “ अक्रूरानेथ
सज़विला कृष्ण रथा मज़े बैठला “ (मराठी अभंग ) मतलब अक्रूर ने रथ को सजाया था। अक्रूर को कंस मामा ने भेजा था ये कहकर कि रथ लेकर जाओ और कृष्ण बलराम को लेकर आओ। तो उसमें कृष्ण बलराम सुबह बैठ गए थे और सायंकाल में पहुंचे थे। जब दोनों जा रहे थे पहली बार ,दोनों के दोनों मथुरा जा रहे है । पहले कभी वृन्दावन को छोड़ के नहीं गए थे, वैसे पहले मथुरा में ही थे फिर अब पुनः मथुरा। कृष्ण कुछ घंटो के लिए ही थे मथुरा में ,जब वे जन्मे थे। अधिकतर वृंदावन में समय बिताया था। तो गोपियों ने रोका है, वे नहीं चाहती है। अक्रूर को कह रही है कि,” किसने रखा है तुम्हरा नाम अक्रूर ? तुम तो क्रूर हो। अक्रूर नहीं क्रूर हो, क्रूर कहीं के।” हमारे प्राण को ले जा रहे हो। वे उनका गला भी पकड़ रही थी, घोड़ो को भी रोक रहीं थी, वैसे ये दूसरा प्रसंग है। मैं ये कह रहा था कि उस समय कृष्ण ने कहा था, “ हे गोपियों मैं अभी जाकर मथुरा से आता हूं। अभी अभी लौट के आता हूँ।” कृष्ण पर फिर कभी नहीं आये। मथुरा में श्रीकृष्ण 18 वर्ष रहे। वहाँ से लौटने की बजाय और दूर चले गए , द्वारका में रहने लगे, विवाह हुए, हर परिवार में 10-10 बच्चे हुए ,काफी बड़ा परिवार बन गया, द्वारकाधीश बने हैं। ब्रजवासी भी श्रीकृष्ण से मिलना चाहते थे। उन दिनों में वैसे पत्र व्यापार चलता था, ब्रजवासी भी कुछ पत्र भेजते थे और डाकिया उन दिनों में चलकर पदयात्रा करते हुए वृन्दावन से द्वारका पहुँचता। ब्रजवासियों के ( अब नाम नहीं लूंगा) सभी अपना अपना निजी पत्र भेजा करते थे। कृष्ण सभी के उत्तर लिखकर के पुनः भेजते थे। फिर डाकिया भी द्वारिका से वृन्दावन चलकर लौटता था। कुछ समय बाद कृष्ण ने स्पीड पोस्ट बनवा दिया, डाकिये को घोड़े दे दिए गए जिससे वह जल्दी पत्र ले जाया करता था। पत्रों का आदान-प्रदान जल्दी होने लगा। कृष्ण कल्पना कर ही रहे थे कि क्या हाल हो गया होगा ब्रजवासियों का? जीना तो क्या जीना ,कृष्ण के बिना। आजकल कुछ लोग तो कहते हैं जीना तो क्या जीना, किसी की बाँहों के बिना। क्या बदमाशी है? यह गोपियों का भाव है कि जीना तो क्या जीना कृष्ण के बिना या बृजवासी ऐसा सोचते हैं।
“युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।
शून्यायितं जगत् सर्व गोविन्द-विरहेण मे॥”
हे गोविन्द! आपके विरह में मुझे एक निमेष काल (पलक झपकने तक का समय) एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है। नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरन्तर अश्रु प्रवाह हो रहा हैं तथा आपके विरह में मुझे समस्त जगत शून्य ही दीख पड़ता है। यह बड़े अचरज की बात है कि दुनिया जीती कैसे है कृष्ण के बिना? अंत में श्रीकृष्ण ने योजना बनाई क्युकी ब्रजवासी मुझसे मिलना चाहते हैं। तो फिर ये सूर्य ग्रहण का बहाना भी हो गया, कृष्ण सोचे मैं स्नान भी कर सकता हूँ, सूर्य कुंड पे कुरुक्षेत्र में। ब्रजवासियों के लिए उन्होंने पत्र भेजे और कहा कि आपके लिए द्वारका तो दूर है यहाँ पहुंचने के लिए, लेकिन कुरुक्षेत्र पास में है और मै वहाँ आ रहा हूँ, आप भी आना। आप भी आना पसंद करोगे के नहीं ? यहाँ पर इस कुरुक्षेत्र में जब कृष्ण आये हैं सूर्यग्रहण के समय, यहाँ महामिलन हुआ है। द्वारका वासी के मुखिया तो कृष्ण बलराम है। सारे वृन्दावन वासी, गोपियाँ भी और राधा रानी भी गयी हैं। नन्द यशोदा का तो क्या कहना? वे तो ग्वालबाल और गाये भी लेके गए हैं कुरुक्षेत्र। उस समय कृष्ण ब्रजवासियों से तो जरूर मिले ही। स्नान का मेला, सूर्य ग्रहण का समय था तो कई सारे ऋषि मुनि वहाँ पहुंचें हैं,” द्वैपायनो नारद: च्यवनः देवलः असित: विश्वामित्रः” बड़ी लम्बी सूचि है। रामः मतलब ‘परशुरामः स शिष्यः’ उनकी शिष्य मंडली, भृगु और भी बहुत सारे ऋषि पहुँचे। “मेक द लॉन्ग स्टोरी शार्ट” ऐसा अंग्रेजी में कहते हैं, लम्बी कहानी को छोटा करें। यह कहानी तो लम्बी है इसको छोटे में करते हुए ये कह सकते है कि ये सारे ऋषि मुनि कृष्ण को मिलने आये हैं या कृष्ण के दर्शन के लिए आये हैं कहो। कृष्ण जिस टेंट में जिस तम्बू में जैसे कुंभमेले में होता है। आज मैं कुम्भ मेले में भी जा रहा हूँ इसलिये मुझे वो टेंट याद आ रहे है, हरि बोल!
उसका भी उल्लेख मैं करना तो चाहता हूँ। संतो का, साधुओं का मिलना जुलना यह बात महत्वपूर्ण है। ये सारे संत महात्मा कृष्ण बलराम के पास पहुंचे जहाँ वे रह रहे थे। कृष्ण और बलराम ने, द्वारका वासियों ने, ब्रजवासियों ने, सभी ने ऋषि मुनियों का भव्य स्वागत किया हुआ है। “सुस्वागतम, सुस्वागतम” माल्यार्पण हुआ है , फिर चन्दन लेपन हुआ है, ये सब कृष्ण और बलराम कर रहे हैं। “ तान दृष्ट्वा सहसो उत्थाय” जब कृष्ण बलराम ने साधु संतो को अपके टेंट की और आते हुए देखा तो, कृष्ण बलराम खड़े हुए। ये विधि भी है ,इससे शिष्टाचार कहा जाता है, जिसका पालन स्वयं कृष्ण कर रहे हैं। कृष्ण इस समय ग्रहस्थ हैं और अपनी भूमिका निभा रहे हैं। पूरेरे संसार के समक्ष एक आदर्श रख रहे हैं। वैसे भी जब सुदामा आये थे उस वक़्त भी कितना सारा स्वागत भगवान ने उस संत का किया,अपने मित्र, अपने लँगोटी यार का किया । वे लंगोट पहनते थे जब छोटे थे आश्रम में।
“ब्रह्मचारि गुरुकुले वसं दन्तो गुरोरहितम” दोनों भी ब्रह्मचारी थे उज्जैन में, अब बहुत समय के बाद मिल रहे हैं। कृष्ण ने सुदामा का स्वागत किया था। जब नारद मुनि आये थे द्वारका तब भी कितना भव्य स्वागत हुआ था। यह संस्कृति है, भगवान् ने सिखाया अपने उदाहरण से, “ अपने आचरि जगते सिखाये “ जैसे चैतन्य महाप्रभु सिखाते रहे। श्रीकृष्ण भी सिखाये, राम भी सिखाये।
तो पहले से ये सब सत्कार,सम्मान,फैसिलिटेशन होता आया है। आई एम आल्सो रिमेंबरिंग कि जब खारघर टेंपल ओपनिंग हुआ, हरि बोल! उस ओपनिंग की जय! वहां पर भी जो संत मंडली ,इस्कॉन लीडर्स एवं वृंदावन के साधु संत आए थे तो फैसिलिटेशन हुआ। एक विशेष कार्यक्रम क्या रहा? संतों का सत्कार और सम्मान हुआ । नथिंग न्यू, यह सब पहले से चल रहा है जब से सृष्टि की रचना हुई। 5000 वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण की प्रकट लीला के समय में भी यह सब हुआ है। फाइनली सबको आसन दिए हैं, हैव ए सीट, उपविशन्तु, या बसा नमस्कार। श्रील प्रभुपाद जी कहते थे “ऐट लीस्ट रेसेप्शन के अंतर्गत ऑफर अ सिंपल सीट और फिर जल दे दो। वैसे बंगाल में सिर्फ जल नहीं देते हैं, क्या देते हैं ? खाबेर जल । पीने का जल नहीं देते हैं, खाने का जल देते हैं। मतलब साथ में पहले कुछ मिष्टांन्न भी देते हैं। खाओ भी और फिर पियो भी। महाराष्ट्र में केवल जल ही देते हैं । फिर प्रभुपाद कहे, “ सम स्वीट वर्ड्स” कुछ मधुर वाणी से वचन कहो । फिर सिंपल बेसिक रिसेप्शन , यह हमारे कलचर् या संस्कृति के अंतर्गत है। “ अतिथि देवो भव” यह हमारा ब्रीद वाक्य या मोटो है। अतिथि/ गेस्ट का कैसा स्वागत सम्मान हो ? मानो देवता पहुंच गए हो। अतिथि देवो भव ऐसे साइन बोर्ड भी लगाया करते थे अपने द्वार पर। लेकिन अब उसके स्थान पर क्या आ गया? कुत्तों से सावधान! 1972 या जब इस मंदिर का निर्माण शुरू होना था तब प्रभुपाद ‘फूड फॉर लाइफ’ शुरू किए थे। खिचड़ी प्रसाद में खिचड़ी के लिए जो चावल उपयोग होता था उन दिनों में याने 1970s में कहो ,वो कुछ कुछ कुछ कंट्रोलड था।
आप खुले बाजार में चावल खरीद नहीं सकते थे; 5 किलो ही मिल सकता है एक परिवार को, आदि। तो मेरी सेवा हुई थी उन दिनों में ,चाँद सोसायटी है और कई सारी समिति है, वहां मैं डोर टू डोर जाता था। वैसे यहाँ प्रोपोस्ड जो बिल्डिंग है, शुरुआत में प्रभुपाद 14 स्टोरी बनाना चाहते थे। उसका डिजाइन लेकर के मैं जाता था कि हम मंदिर बनाने वाले हैं, गेस्ट हाउस आदि होगा, हम प्रसाद वितरण करते हैं तो प्लीज थोड़ा सहायता कीजिए, चावल दीजिए । उन दिनों में “कुत्तों से सावधान” साइन बोर्ड पर लिखा जाता ही था ,तो लोग दरवाजा खोलना तो दूर, छेद में से देखते थे कि कौन आया है ? यह कोई साधु आया है अगर देखते तो द्वार खोलते थोड़ा, मुझे लगता कि आशा की किरण है शायद कुछ देने वाले हैं। नेक्स्ट क्या करते? छू..कुत्ते को मेरे पीछे लगा देते । फिर मैं ऊपर की मंजिल पे भागता और कुत्ते से पीछा छुड़वाता।या वो लोग सिक्योरिटी वाले को बोलते “कौन आया है ? साधु आया है क्या? किसने आने दिया उसको?उसको बाहर करो। “ कुछ भले आदमी तो मदद भी करते थे, लेकिन अधिकतर कुत्तों से सावधान इस प्रकार का कल्चर फॉलो करते थे। पर अब धीरे धीरे काफी कुछ चेंज हो गया है, हम खुश हैं। चलो अब कुरुक्षेत्र की बात करते हैं,कुरुक्षेत्र धाम की जय! श्रीकृष्ण ने संतो को बिठाया है और यह जो वचन है वो फाइनल स्टेटमेंट जैसा है। वैसे श्रीकृष्ण के हाथ में माइक्रोफोन है और वह स्वागत कर रहे हैं मधुर वाणी में गौरव गाथा गा रहे हैं संतों की, “ अहो वयं जन्म वृतों लब्धम कारष्नेंन तत् फलम्” हमारा जीवन सफल हुआ।
कृष्ण कह रहे हैं कि हमारा जीवन सफल हुआ । क्या हुआ? देवानाम अपि दुष्प्प्रापम यद् योगेश्वर दर्शनम्’ , जो देवताओं को भी दुर्लभ है संतों का दर्शन , वह हमें यहाँ प्राप्त हो रहा है। वे स्वयं आकर में दर्शन दे रहे हैं,” अहो भाग्यम् ! ते पुनन्ति उरु कालेन दर्शना देव साधव:” अनेक विधि विधानों से या देवी देवताओं की अर्चना से इत्यादि, तीर्थों में स्नान से, बहुत समय के उपरांत व्यक्ति शुद्ध या पवित्र होता है। किंतु संतो के दर्शन मात्र से हम पवित्र होते हैं। ‘ पुनन्ति’ मतलब शुद्धिकरण होता है। वैसे एक के बाद एक हमें तो केवल दर्शन ही नहीं, हम तो स्पर्श कर सकते हैं उनके चरणों को ,छू सकते हैं। हो सकता है कि वे हमें आलिंगन भी दें । ऐसा अवसर भी प्राप्त हुआ है हमको , हम आसन दे सकते हैं, उनको भोजन खिला सकते हैं, उनकी उपस्थिति हमारा भाग्य है। “ विपश्चितो घग्नंती मुहूर्त सेवया”, केवल मुहूर्त सेवय , मुहूर्त मतलब कुछ क्षण। जिसको हम कहते है ‘ साधु संग साधु संग सर्वशास्त्र कय, लव मंत्र साधु संगे सर्व सिद्धि होय “ यही बात कृष्ण कुरुक्षेत्र में संतों को संबोधित करते समय कह रहे थे। संतों की जय हो! भक्तों की जय हो! तो कहते-कहते यहां तक पहुंचे हैं और इतना ही कहेंगे। यह स्वागत का भाषण है ,वेलकम स्पीच, कृष्ण का वेलकमिंग स्पीच, साधुओं का स्वागत और सम्मान करते हुए कृष्ण कह रहे हैं। यहां थोड़ा उपदेश भी किया इस श्लोक में। कुछ लोग का दिमाग क्या सोचता है? ”यस्य आत्मबुद्धि कुनपे त्रिधातु के “ मतलब इस शरीर को ही कुछ लोग ‘मैं हूं’ मानते, देहात्म्बुद्धि ऐसी होती है। कुछ लोग अपने परिवार को इतना बड़ा मानते हैं, वाइफ और रिश्तेदार तक बस फिनिश्ड, इतना ही सीमित मानते हैं। कुछ लोग भूमि, अपने देश को अपना मानते हैं, अपने अहंकार को बढ़ाते बढ़ाते ,ईगो को इतना बढ़ाते जितना हमारा देश है। यह भी सही नहीं है और यह तीर्थ बुद्धि भी वही तो बात है। भगवान कुरुक्षेत्र में है, वे स्वयं ही वहाँ स्नान के लिए गए हैं ।
भगवान भी केवल वहाँ स्वयं स्नान ही नहीं करना चाहते थे ,वे साधु संग भी चाहते हैं और ऐसी अवस्था हो चुकी है। जो तीर्थ बुद्धि वाले तीर्थ यात्रा में जाते हैं स्नान आदि करते हैं ,दर्शन भी करते होंगे, किंतु वहाँ के जो अभिज्ञ जन हैं, विद्वान है, संत हैं, उनके चरणों में नहीं पहुँचते, उनसे श्रावंती गायंती नहीं करते ,उनसे हरि कथा नहीं सुनते , ऐसे लोगों की तुलना किन के साथ-साथ की गयी? “स एवं गोखरा: “ऐसे लोग गाय या गधे हैं गधे। फूल नंबर वन। कुंभ मेला महोत्सव की जय! कुंभ मेले में इस्कॉन इतना सारा साधुसंग प्रदान कर रहा है, इस मेले में स्वयं प्रभुपाद भी गए थे। 1971 में अर्धकुंभ मेला चल रहा था और प्रभुपाद सारे भारत भर में भ्रमण करते हुए ,विदेश के शिष्यों के साथ “हरे कृष्ण उत्सव” मना रहे थे। उन्होंने वाराणसी में मनाया था, गोरखपुर में मनाया था और वहाँ से प्रभुपाद जनवरी 71 में कुंभ मेला आए थे और उस मेले में प्रभुपाद पार्टिसिपेट किये। फिर 77 के समय प्रभुपाद का स्वास्थ्य ठीक नहीं था, तो भी मुझे याद है वह मॉर्निंग वॉक, जुहू बीच पर । प्रभुपाद ने कहा, “ मैं कुंभ मेले में जा रहा हूं डॉक्टर पटेल आप भी चलो।” पर पटेल बोले “इट्स वेरी कोल्ड, इट्स वेरी कोल्ड, बहुत ठंडी है” और सलाह दे रहे थे कि आप भी मत जाओ । तो भी प्रभुपाद गए ही, स्पेशल ट्रेन से गए, स्पेशल कोच का अरेंजमेंट हुआ था। 77 के कुंभ मेले में भी प्रभुपाद गए, फिर उस समय तक कुछ इंडियन्स भी ज्वाइन किए थे ।
लेट 70s से लेकर 77 तक, याने 6-7 साल भारत में प्रभुपाद का मूवमेंट और प्रभुपाद एक्टिव थे। इंडियन्स भी ज्वाइन किए थे ,मैं भी ज्वाइन किया था। उसके पहले यहीं ज्वाइन किया था, हरे कृष्ण लैंड जुहू में। तो उसमें भी प्रभुपाद रहे। प्रभुपाद का ऐसा स्टेटमेंट है कि “ हम लोग स्नान के लिए नहीं जाते हैं, हरे कृष्ण लोग वहाँ स्नान के लिए नहीं जाते। हम लोग वहाँ प्रचार के लिए जाते हैं, हम लोग वहाँ कीर्तन करने के लिए जाते हैं , वहाँ हम लोग ग्रंथ वितरण के लिए जाते हैं, हम लोग प्रसाद वितरण करने के लिए जाते हैं और वही हो रहा है इस समय हरे कृष्ण इस्कॉन कैंप नंबर वन हो चुका है। द टॉक ऑफ द टाउन, टाउनशिप एस्टेब्लिश हो चुकी है ,कुंभ मेला नगर कहो वहाँ हरे कृष्ण का गरमा गरम हल्वा प्रसाद , इस ठंडी के बीच में और सिर्फ हल्वा नहीँ बल्कि फुल प्लैट ऑफ प्रसाद। आपने कुछ विडियो वगैरह देखे? वहाँ के मेगा किचन में गौरांग प्रभु इत्यादि कई सारे भक्त जुड़े हुए हैं और इस्कॉन जुहू से सारा फाइनेंशियल असिस्टेंस भी चलता रहता है सदियों से। धन्यवाद इस्कॉन जुहू एंड अदर इस्कॉन्स आल्सो। कुछ लाखों भागवत गीता का वितरण हो चुका है, हंड्रेड एंड थाउज़ैन्ड ऑफ भगवद गीता। पदयात्रा पार्टी भी पहुँची तो सारे कुंभ मेले और नगर में सर्वत्र गौर निताई के विग्रह रथ में विराजमान होके भ्रमण किए और इंटरनेशनल ग्रुप ऑफ इस्कॉन डिवोटीज सर्वत्र “ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ,हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे” जारी रखे। वहाँ त्रिवेणी संगम है, तीन नदियों का लेकिन गंगा है, यमुना है परंतु सरस्वती कहाँ है? सरस्वती दृश्यमान नहीं है, न हम प्रत्यक्ष दर्शन और न ही स्पर्श कर सकते हैं सरस्वती के साथ। तो कहते हैं कि वहाँ आने वाले साधु संतो के मुखारविंदों से जो वचन निकलते हैं, कथा कीर्तन निकल रहा है, निश्रित होता है, वही है सरस्वती मैया। गंगा में स्नान हुआ , जमुना में स्नान हुआ और सरस्वती में भी हो गया। प्रभुपाद के जो ग्रंथ हैं, उनमें जो अमृत है उसमें भी स्नान।
“ सर्वात्मा-स्नपनम् परमं विजयते श्री-कृष्ण-संकीर्तनम्” (चैतन्य चरित्रमृत अन्त्य लीला 20.12)
अनुवाद: “भगवान कृष्ण के पवित्र नाम के जप की विजय हो, जो हृदय के दर्पण को साफ कर सकता है और भौतिक अस्तित्व की धधकती आग के दुखों को रोक सकता है। यह जप वह बढ़ता हुआ चंद्रमा है जो सभी जीवों के लिए सौभाग्य का श्वेत कमल फैलाता है। यह सभी शिक्षाओं का जीवन और आत्मा है। कृष्ण के पवित्र नाम का जप पारलौकिक जीवन के आनंदमय सागर का विस्तार करता है। यह सभी को शीतलता प्रदान करता है और हर कदम पर पूर्ण अमृत का स्वाद लेने में सक्षम बनाता है।’ ठीक है मै अभी रुकता हूँ वरना मेरी फ्लाइट मिस हो जाएगी। किसी का कोई प्रशन्न है ? हरे कृष्ण! मेरा एक कमेंट है कि प्रयागराज में तीनों नदियां वास करती है जैसे आप बताये हैं तो प्रायः लोगों की भावना होता है कि हम वहां जाके तीर्थ में स्नान करें जिससे हम पाप से मुक्त हो जायें और प्रभु का दर्शन करें। ऐसा सामान्य लोगों का ज्यादा विश्वास होता है और जो कथा सुनने के लिए उत्सुक होते हैं वह कथा सुनते है। जब शुकदेव गोस्वामी भागवत कथा कर रहे थे, ऐसा पद्मपुराण के भागवत महात्म्य में उल्लेख आता है कि वहाँ देवता पहुंच गए। उनके पास कुछ कुम्भ मेले का बचा हुआ अमृत था। पहले तो आपस में देवता और असुर लड़ते रहे कि हम पहले पीएंगे, हम पहले पीयेंगे। उसमें से जो बचा हुआ था देवताओं ने सोचा था कि राजा परीक्षित ७ दिनों के बाद नहीं रहेंगे, उनका तिरोभाव हो जायेगा। तब शुकदेव गोस्वामी से देवताओं ने कहा कि ये अमृत पिलाइये आप राजा परीक्षित को और कथा रूपी अमृत आप उसके बदले में हमें दे देना। जब शुकदेव गोस्वामी ने देवताओं का ये प्रस्ताव सुना तो उन्होंने समझाया कि आप अपराध कर रहे हो, भागवत अमृत के प्रति आप अपराध कर रहे हो। जो आठवां नाम अपराध है वैसा ही है कि कुम्भ मेले का अमृत आपको दुखों से मुक्त कर सकता है, अजर अमर बना सकता है। ‘अजर’ मतलब बूढ़ा नहीं होगा कोई और ‘अमर’ मतलब किसी की भी मृत्यु न होना। आप स्वर्ग में जा सकते हो ,यह भी एक प्रकार की मुक्ति है और दूसरी मुक्ति है अहम् ब्रह्म अस्मि। लेकिन यह दोनों प्रकार की मुक्ति से बढ़िया है भक्ति, मुक्ति के परे है भक्ति।
कृष्ण-भक्त – निष्काम, अतैव ‘शांत’
भुक्ति-मुक्ति-सिद्धि-कामी – सकली ‘अशांत’ (चैतन्य चरितामृत 19.149)
अनुवाद: क्योंकि भगवान कृष्ण का भक्त इच्छा रहित होता है, वह शांत रहता है। सकाम कर्म करने वाले भौतिक भोग चाहते हैं, ज्ञानी मोक्ष चाहते हैं, और योगी भौतिक ऐश्वर्य चाहते हैं; इसलिए वे सभी कामी हैं और शांत नहीं हो सकते। कृष्ण भक्त की कोई कामना ही नहीं रहती, उसे प्रेम प्राप्त होता है तो उसी से वह प्रसन्न रहता है। कृष्ण भक्त गौड़ीय वैष्णव इसको कर्मकाण्ड इत्यादि मानते हैं। इससे मुक्ति तो संभव है लेकिन प्रेम प्राप्ति तो भक्ति से ही होती है।
“हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे – हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।”
भागवत अमृत, चैतन्य चरितामृत , प्रसाद अमृत, यही अमृत है। कई बार हम कुम्भ मेले में जाते तो है लेकिन वही लोग अमृत तुल्य चाय पीते हैं। हमारी चाय कैसी है?अमृत तुल्य चाय। बद्रिक आश्रम में जब हम गए तो हमनें वहाँ भी देखा। हमलोग देख रहे थे, बद्रिक आश्रम के दर्शन कर रहे थे। तो आगे जाकर एक स्थान पर एक बोर्ड पर देखा ‘भारत की आखरी चाय की दूकान’। इसके आगे चाय रूपी अमृत नहीं मिलेगा, पीना है तो इसके आगे मौका नहीं मिलेगा, यह आखिरी अवसर है। यहीं पियो और आगे बढ़ो। यह जो विचारधारा है,” स एव गोखरा:” इसी मालिका में उनका भी समावेश होता है।
आखिरी सवाल किसी का है ?
गुरु महाराज हम आपको खुश करना चाहते है तो क्या करें ?
ब्रज हरी प्रभु आप क्या कहेंगे? इनसे पूछो इनको खुश करो ब्रजहरी प्रभु को और राधा रासबिहारी की सेवा करो।
“मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः” ॥ 34 ॥
अनुवाद: अपने मन को सदैव मेरा चिंतन करते रहो, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी पूजा करो। पूर्णतया मुझमें लीन होकर तुम निश्चय ही मेरे पास आओगे। यह करो तो भगवान प्रसन्न होंगे , श्रील प्रभुपाद प्रसन्न होंगे फिर हम भी प्रसन्न होंगे, आप भी प्रसन्न होंगे, सभी प्रसन्न होंगे।
हरे कृष्ण!
परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज की जय!
श्रील प्रभुपाद की जय!