Srimad Bhagavatam 12.6.31–43
27-05-2023
ISKCON Vishal Nagar

उसी प्रकार विद्वान भक्तगण श्रीभगवान् की लीलाओं का वर्णन अपनी अपनी अनुभूति के अनुसार करते हैं। 

 

तात्पर्य:-

परम पूर्ण सत्य अनंत है, सुन रहे हैं आप? वैसे एक एक शब्द एक एक वाक्य को सुनना है। कोई भी जीव अपनी सीमित क्षमता से अनंत को नहीं जान सकता। श्रीभगवान् निराकार, साकार तथा अंतर्यामी हैं। एक एक वचन सत्य है। जब वे निराकार के विषय बनते है तो इन विभिन्न स्वरूपों में भगवान् की लीलाओं का आंशिक अनुमान बड़े-बड़े विद्वान भक्त ही लगा पाते हैं। अतैव श्रील सूत गोस्वामी ने अपनी अनुभूति के अनुसार श्री भगवान् की लीलाओं का वर्णन करने का जो कार्यभार अपने उपर लिया है उचित ही है। वास्तव में स्वयं भगवान् ही अपना वर्णन कर सकते हैं और उनके विद्वान भक्त भी उनका उतना ही वर्णन कर सकते हैं जितनी भगवान् उन्हें शक्ति प्रदान करते हैं। सरल है, आप समझ गए हो? हरि बोल! ओके फिर कथा की कोई आवश्यकता नहीं है। यहाँ पहला ही वाक्य है तात्पर्य में, “ परम पूर्ण सत्य अनंत है” और भी कुछ आगे बातें तो हुई हैं। इस अनंत को विद्वान भक्त जानते हैं लेकिन वे भी अपनी क्षमता के अनुसार जानते हैं। भगवान् जो अनंत हैं उनको पूर्णतः तो भगवान् ही जान सकते हैं, और कोई नहीं। भगवान् अनंत हैं, हैं कि नहीं? इसी पर कुछ चर्चा करते हैं। आपने स्वीकार तो कर लिया वे अनंत हैं।

अद्वैतम् अच्युतम अनादि अनंत रूपम “ राइट दैर। भगवान् के कितने रूप हैं? अनंत रूप हैं। अनंत के अनंत रूप हैं। अन्+ अंत से अनंत शब्द बना है, मतलब अंत नहीं है जिसका। वे अनंत कैसे हैं? यहाँ बताया जा रहा है, “ अद्वैतम् अच्युतम..” आदि। भगवान् के रूप भी अनंत है और फिर हर रूप भी अनंत हैं।एक बात महाराष्ट्र में बहुत कहते हैं, “ अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक “ भगवान् कैसे हैं? एक दो कोटि नहीं, अनंत कोटि ब्रह्मांडों के वो नायक हैं। भगवान् के दो प्रकार के साम्राज्य कहे हैं। वे केवल अनंत कोटि ब्रह्माण्ड के ही नायक नहीं हैं, वे वैकुंठ नायक भी हैं। एक समय ब्रह्मा जी आये द्वारका में, भगवान् से मिलना चाहते थे, ऐसे बैल बजाई होगी। गेट पर वे थे, गेटकीपर ने कहा भगवान् से पूछ के आता हूँ। “ नो एडमिशन विदाउट पर्मिशन” । भगवान् ने जब सुना कि ब्रह्मा आये हैं, ये लंबी कथा सुना रहा हूँ मैं। भगवान् ने चौकीदार से कहा,पूछो कि, “कौन से ब्रह्मा आये हैं? “ चौकीदार ने कहा, “ भगवान् जानना चाहते हैं कि कौन से ब्रह्मा आये हैं?” ये बात जब ब्रह्मा ने सुनी तो उनका दिमाग चक्रा गया। कौन से ब्रह्मा आये हैं, इस से ये संकेत मिलता है कि और भी ब्रह्मा होने चाहिए। “ठीक है तो उनको बता दो कि मैं चतुरमुखी ब्रह्मा,चार कुमारों का पिताश्री आया हूं “। भगवान् ने कहा,”अंदर ले आओ”। ब्रह्मा जी को जब प्रवेश प्राप्त हुआ, तब भगवान् जानते ही थे कि इसके मन में ये शंका उत्पन्न हुई है, ये पहले सोचते थे कि मैं अकेला ही ब्रह्मा हूँ। उतने में और एक व्यक्ति आगये, उनके पांच सिर थे, पंचमुखी। उन्होंने साष्टांग दंडवत किया। “उपविषतु”, आप अपना स्थान ग्रहण कर सकते हो भगवान् ने कहा। फिर 6 सिर वाले, 10 सिर वाले, 1000 मुखवाले व्यक्ति आते रहे, वे सभी के सभी ब्रह्मा थे, अनंतकोटि ब्रह्माण्डों से अनंतकोटि ब्रह्मा आगये। तब ये हमारे ब्रह्मा ने देखा और सोचा कि मैं तो छोटा सा चूहा ही हूँ सबके मध्य में, या मच्छर ही हूँ, नहीँ के बराबर हूँ। अनंत कोटि ब्रह्माण्ड हैं। महाविष्णु ,भगवान् के विस्तार के विस्तार के विस्तार हैं क्युकी भागवत में ही कहा है,

ऐते च अंशकला पुन्साम कृष्णस्तु भगवान् स्वयं

ऐते मतलब ऑल दीज़, सभी के सभी। इसी प्रथम स्कंध के तृतीय अध्याय में कहा है कि भगवान् श्रीकृष्ण ही सभी अवतारों के स्त्रोत हैं। होने तो चाहिए 24 लेकिन 22 अवतारों का उल्लेख होने के उपरांत लिखा है “ऐते”, मतलब ये जो अभी-अभी जिन अवतारों का वर्णन किया गया है वे सब अवतार या तो कला हैं, या अंश हैं, या अंश के अंश हैं और मैं कौन हूँ? “कृष्णस्तु भगवान् स्वयं”, मैं स्वयं भगवान् हूँ। तो भगवान् कृष्ण से महासंकर्षण और फिर महाविष्णु  प्रकट होते हैं।

महाविष्णु जब उच्छश्वास करते हैं- एक श्वास होता है और दूसरा उच्छश्वास। भगवान जब उच्छश्वास लेते हैं या करते हैं(लेना तो अंदर की बात है) तब ये अनंतकोटि ब्रह्माण्ड भगवान के रंध्रों से कहो,उनके शरीर के रोम-रोम से उत्पन्न होते हैं। हर ब्रह्माण्ड में एक-एक ब्रह्मा को भी जन्म देनेवाले भगवान ही होते हैं । सृष्टि के प्रारंभ में उत्पन्न होने वाले या जन्म जिनको प्राप्त हुआ, वे ब्रह्मा थे, जो पूरी तरह से विकसित थे चतुर्भुज रूप में। ये नहीं कि सृष्टि के शुरुआत में अमीबा था, वैसे अमीबा का बाप भी था पहले-  विठोबा थे पहले और फिर ब्रह्मा। डार्विन थ्योरी ऑफ एवोल्यूशन का कहना है कि पहले अमीबा था, फिर विकास होता रहा, फिर एक प्रजाति से दूसरी बनी, फिर फाइनली बंदर बन गया। हम जो मनुष्य हैं हम बंदर की औलाद हैं उनके अनुसार। उसको पता नहीं है कि हम ब्रह्मा की औलाद है, बंदर की नहीं। यह एक अच्छी ख़बर भी है कि सरकार इस सारी शिक्षा प्रणाली, सारे सेलेबस इत्यादि में काफ़ी परिवर्तन कर रही है और एक परिवर्तन यह भी होने जा रहा है कि डार्विन थ्योरी ऑफ़ इवैल्यूएशन बाहर कर दी जाएगी। इसका कोई स्थान नहीं, ये तो बस थ्योरी है, एक अनुमान या मनोधर्म की बात है। यह ब्रह्मा सौ वर्षों के लिए जीते हैं । ब्रह्मा की आयु कितनी है ? सौ वर्ष की। ब्रह्मा के सौ वर्ष तो बहुत लंबा काल होता है। चार युग होते हैं-चतुर्युग। हरि हरि! ब्रह्मा के एक दिन में एक हज़ार, “सहस्त्र युग पर्यन्तम्” । कृष्ण भी कहे हैं भगवत गीता में ,ब्रह्मा की आयु कितने होती है?सहस्त्र युग पर्यन्तम्। ये आयु नहीं बल्कि यह दिन हुआ, ब्रह्मा के बारह घंटे हुए। फिर और बारह घंटे से रात होती है। रात और दिन  मतलब दो हज़ार चतुर्युग के साइकल। दोनों मिलाके ब्रह्मा के 24 घंटे हुए,उसका गुणा 7 से करें तो क्या होगा? ब्रह्मा का एक सप्ताह। फिर इसको गुणा 4 करेंगे तो ब्रह्मा का एक महीना हुआ। फिर इसको गुणा 12 करेंगे तो ब्रह्मा का एक साल। ऐसे ही इसको गुणा 100 करेंगे तो सौ वर्ष, इतनी लंबी आयु वाले ब्रह्मा हैं। इतने में भगवान महाविष्णु क्या करते हैं? जो स्वास छोड़ा था, अब स्वास को लेंगे तो सारे ब्रह्माण्ड उनमें प्रवेश करेंगे। महाविष्णु भगवान की जय! यह भगवान की महानता है, भगवान् महान हैं। ऐसा सुनते तो है,पढ़ते तो है लेकिन प्रभुपाद कहते हैं कि दुनिया नहीं जानती हैं भगवान कैसे महान है? भगवान को महान क्या बनाता है? यह दुनिया नहीं जानती है। यह भगवान की महानता है का बस एक उदाहरण है,नमूना कहो। यह जो कालावधि या टाइमलाइन है, उसके हिसाब से फिर महाविष्णु की आयु कितनी है? भगवान् की आयु कितनी है? अनादि/ अनंत। अनंत मतलब अंत ही नहीं भगवान की आयु का। इतनी तो साँस ली उन्होंने , वे साँस लेते ही रहते हैं। स्वास और उच्छस्वास चलता ही रहता है।

इसलिए भगवान को कहते हैं:- 

 

“गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि” 

भगवान् कैसे हैं? आदि पुरुष है, मूलरूप हैं ।

“आद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च” 

यह भी भगवान् का महिमा है। जो पुराना होता है,बूढ़ा होता है तो फिर वह निकम्मा भी होता है, उसका सौंदर्य चला जाता है। फिर ऐसा व्यक्ति के साथ हम सेल्फी वग़ैरह खींचना नहीं चाहेंगे। लेकिन भगवान आदिपुरुष होते हुए भी क्या है? “नवयौवनं च”, सदा के लिए युवा हैं, सदा के लिए भगवान नए हैं या युवावस्था में रहते हैं। कृष्ण तो यह 16 वर्ष से अधिक होते ही नहीं हैं,किशोर अवस्था में रहते हैं। तो इस कालावधि  का भी इस दुनिया को पता नहीं है,यह काल भी अनंत है। एक तो भगवान ने कहा, “कालोऽस्मि”- अहम् कालः ऽस्मि। ऐसा वाक्य है। “मैं कौन हूँ? मैं क़ाल हूँ।” तो काल कैसा है? अनंत है। भगवान का यह जो काल रूप हैं वह भी अनंत है। तो यह दुनिया बहुत समय से है और फिर निर्माण होता है, फिर स्थिति होती है और फिर प्रलय होता है,”भूत्वा भूत्वा प्रलीयते” ऐसा एक नियम है। हो होकर, हो होकर, भूत्वा मतलब होकर। प्रलय होता है हमारे शरीर का। वैसे ब्रह्माण्ड के जब पिंड में भी होता है, तो हमारे शरीर का भी भूत्वा भूत्वा प्रलय होता है। बस कल्पना करो, वैसे कल्पना करना भी कठिन है यह जो लंबी कालावधि है। ये डार्विन थ्योरी ऑफ़ इवैल्यूएशन मनानेवाले या फिर पाश्चात्य देश के जगत के लोग सब अनाड़ी/अज्ञानी हैं और हम भी कुछ कम नहीं हैं अनाड़ी/ अज्ञानी। यह जो अनंतकाल या अनंत है,मनुष्य भी शुरुआत से ही है। तो हम जब यह महा…भारत..आप सो तो नहीं रहे हैं? सुलाने के लिए कथा नहीं हो रही हैं।आपको जगाने के लिए गौरांग पुकार रहे हैं,” जीव जागो, जीव जागो”!

“उत्तीष्ठीत जाग्रत”-  उठो, जागो और समझो। 

“वरामी बोधत”- आपको वरदान प्राप्त हुआ है। कौन सा वरदान है? _दुर्लभ मानव” यह मनुष्य जीवन बड़ा दुर्लभ है,इसको हम प्राप्त किए हुए हैं, तो इसका हमें फ़ायदा उठाना है। “ जो सोवत है वो खोवत है”। मैं लॉस एंजेलिस में था कुछ साल पहले तो वहाँ कुछ उत्सव की तैयारी से हो रही थी, तो मैंने किसी लोकल से पूछा, “क्या हो रहा है यहाँ? “ तो उन्होंने कहा कि, “हम लॉसएंजेलिस की सालगिरह मना रहे हैं, जब से यह शहर की स्थापना हुई और फिर आगे विकास और निर्माण हुआ है। “ तो हमने पूछा, “कितना पुराना है आपका यह लॉसएंजेलिस?” तो उस व्यक्ति ने कहा, “लॉसएंजेलिस बहुत पुराना शहर है।”  वह बहुत पुराना कहकर लंबा खींचना चाहते थे, मुझे प्रभावित करना चाहते थे कि यह सच में बहुत पुराना है। फिर हमने जब पूछा कि, “कितना पुराना है आपका शहर? “ तो पता है उन्होंने क्या कहा? २०० वर्ष पुराना। तो २०० वर्ष को पाश्चात्य देश के लोग खूब पुराना समझते हैं।

वो ओल्ड है तो फिर हाउ ओल्ड इज़ द्वारका, अयोध्या? वैसे तो ये धाम शाश्वत हैं। कितनी पुरानी है द्वारका या वृंदावन या इवन पंढरपुर? ऐसा पूछना भी नहीं चाहिए क्युकी वो पुराना तो है ही नहीं, नया है। पुराना होते हुए भी नया है और ऐसा कोई समय नहीं था कि जब वो स्थान कभी थे नहीं। “ भूत्वा भूत्वा प्रलीयते” वाला नियम भगवान की लीला स्थलियों पे लागू नहीं होता। एक समय ये बृह्मांड ही नहीं रहेगा तो पुणे भी नहीं रहेगा, न दिल्ली रहेगी, न लॉस ऐंजेलेस रहेगा। लेकिन kyat रहेगा? वृंदावन रहेगा,द्वारका रहेगी, मायापुर धाम की जय! ये धाम भी अनंत हैं। भगवान अनंत और भगवान से संबंधित वस्तुयें भी अनंत है। हम भी बहुत छोटे हैं लेकिन खुदको समझते बहुत मोटे हैं। 

“विद्या ददाति विनयम “ विद्या देती है हमको विनय। हम विनयी होते हैं ज्ञान लेने से। हम अनाड़ी हैं, विद्वान नहीं हैं। खुदको बहुत कुछ समझते हैं, सेंटर ऑफ द यूनिवर्स। “सर्वे सर्वा” अगर कोई है तो मैं ही हूँ। फिर और बड़ा बनने के लिए हम कहते, “ अहं ब्रह्मा अस्मि “ तक पहुँच जाते हैं, जो लास्ट स्नेयर ऑफ माया है। अहं को इतना बड़ा बनाना चाहते हैं जितने भगवान हैं। ये माया की हद हो गयी, क्रॉसड् ऑल लिमिट्स। हम लहान हैं लेकिन बनाना चाहते हैं महान। लेकिन जो हम हैं नहीं, वे हम हो नहीं सकते, ऐसा प्रभुपाद एक समय कहे। एक भक्त था टिटॉन्, शिकागो में। वो अभी अभी प्रभुपाद से मिलने आ रहा था। उसके हावभाव या बोलचाल से प्रभुपाद को लगा कि ये व्यक्ति भगवान बनाना चाहता है। प्रभुपाद ने पूछा, “ यू वांट टू बी गॉड और यू वांट टु सर्व गॉड?तुम भगवान् बनाना चाहते या उनकी सेवा करना चाहते हो?”व्यक्ति ने सोचा कि स्वामीजी पूछ रहे हैं कि क्या तुम भगवान बनाना चाहते हो? तो जरूर स्वामी में ऐसा सामर्थ्य जरूर होगा इसीलिए तो पूछ रहे हैं। व्यक्ति ने जवाब दिया,”ऑफ कोर्स आई वांट टू बी गॉड”। ये सुना तो प्रभुपाद ने आगे कहा, यू वांट टू बी गॉड, डज़ दैट मीन नाव यू आर नॉट गॉड? बात स्पष्ट है कि तुम भगवान बनना चाहते हो क्युकी तुम भगवान नहीं हो। फिर आगे प्रभुपाद कहे, वन हू इज़ नॉट गॉड, कैनोट बी गॉड। जो भगवान नहीं है वो भगवान बन भी नहीं सकते। फिर आगे प्रभुपाद कहे गॉड इज़ गॉड। गॉड नेवर बिकम्स गॉड। ही वाज़ नॉट गॉड एंड ही सडैनली बिकम गॉड, ऐसा कभी नहीं होता। गॉड इज़ आल्वेज़ गॉड और हम हमेशा से भगवान के दास/ सेवक हैं। 

कृष्ण कहे हैं:-

 “ममेवाँशों जीवलोके जीवभूत: सनातन:”( गीता 15.7)

‘ मम एव अंश:’-ये भी बहुत बड़ी बात है। हम सब दास तो हैं ही लेकिन हम भगवान के अंश भी हैं। और ये अंश कैसा है? सनातन:। हम भी सदा के लिए रहने वाले हैं, हम मरने वालों में से नहीं हैं। 

“न जायते न मृयते व कदाचित् “ ( गीता 2.20)

ऐसा कृष्ण ने कहा कि मरने से कोई संबंध नहीं है तुम्हारा।

जैसे मैं सनातन हूँ , शाश्वत हूँ तो तुम भी वैसे ही हो क्युकी तुम मेरे अंश हो, भगवान अंशी हैं।

“ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीरायस्य यशश: श्रिय:”

भगवान् षड् ऐश्वर्य पूर्ण हैं। कृष्ण अंशी हैं, लेकिन उनके दूसरे

अवतार अंशी नहीं हैं, अंशी एक है।  

“कृष्णस्तु भगवान् स्वयं “ 

अवतार भी अंश हैं, हम जीवात्मा भी अंश हैं। फिर इसमें दो प्रकार कहे हैं। एक स्वांश और दूसरा  विभिन्नांश।

“नाना अवतारों भुवणेषु किंतु “  या

“संभवामि युगे युगे” 

भगवान जो अवतार लेते हैं, वे अवतार भी उनके अंश हैं। 

“ऐते च अंश कला पुन्साम”

हम भी अंश, अवतार भी अंश। इनमे अंतर क्या है? भगवान के अवतार उनके स्वांश हैं और हम उनके विभिन्नांश हैं।

भगवान अच्युत हैं  तो उनके स्वांश भी अच्युत हैं। हम विभिन्नांश हैं इसलिए च्युत हैं,हमारा पतन संभव है, माया में फंसना संभव है। लेकिन स्वयं भगवान और उनके अवतार/ स्वांश ( जो आते हैं इस ब्रह्मांड में) का पतन नहीं होता। वे तो सदैव मुक्त रहते हैं क्योंकि वे भगवान ही हैं। 

“माया मुग्ध  जीवेर नहीं स्वतः कृष्ण ज्ञान

जीवेर कृपार् कैला कृष्ण वेद पुराण “

अलग-अलग समय भगवान प्रगट होके हमको मुक्त करने की विधि सिखाते है, भगवद् गीता का उपदेश करते हैं। हरि हरि! या फिर आके हरिनाम देते हैं। 

“हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे “

ये सब कहते समय पता नहीं मैं रुकने वाला हूँ कि नहीं?

भगवान तो सर्वत्र हैं, पहले ये बात कहनी चाहिए थी मुझे।

भगवान् सर्वज्ञ हैं,उन्हे  “अभिज्ञ स्वराट्” कहा गया है श्रीमद् भागवत के पहले ही श्लोक में। भगवान अभिज्ञ हैं, सर्वज्ञ हैं। लेकिन सर्वज्ञ क्यों हैं? क्युकी भगवान् सर्वत्र हैं। ये एक छोटा वाक्य है लेकिन इसका अर्थ गहरा है। भगवान अनंत हैं, सर्वत्र हैं, “ अंडान्तरस्त परमाणु च यानतरस्तं”, भगवान् हर ब्रह्मांड में हैं गर्भोदकशायी विष्णु रूप में कहो। 

और फिर ये बन जाते हैं क्षीरोदकशायी विष्णु और फिर कण- कण में भगवान, यह फैक्ट है,केवल यह सुनने और पढ़ने की बात नहीं है। 

“अंडानतरस्थ  परमाणुचयान तरस्तं” तो भगवान सर्वत्र हैं इसलिए वे सर्वज्ञ भी हैं। किंतु हम सर्वत्र नहीं है इसीलिए हम सर्वज्ञ भी नहीं हैं। आपका सुख-दुख आप जानते हो, हम अपनी बॉडी का सुख-दुख जानते हैं क्योंकि हमारा जो क्षेत्र है, जिस क्षेत्र के हम क्षेत्रज्ञ होते हैं वह है बॉडी। कितने प्रकार के जीव हैं? “जलजा नव लक्षणी”  नौ लाख प्रकार के जल-चर प्राणी हैं, जल में जन्म लेने वाले और जल में विचरण करने वाले। “क्रिम्या” कृमि मतलब कीटाणु ,जीवजंतु ये कितने प्रकार के हैं? 11 लाख प्रकार के हैं। फिर हर प्रकार में असंख्य जीव हैं। मक्खी एक योनि है, कितनी मक्खियां हैं? अनंत। यह सब जीव हैं अलग-अलग योनि में, टोटल मिलाकर 84 लाख प्रकार की योनियां हैं और सारे ब्रह्मांड भर में “उर्ध्वम गच्छति सत्वस्थः” हैं। इस वाक्य से पता चलता है कि स्वर्ग लोक में भी लाइफ एक्जिस्ट करती हैं, ये साइंटिस्ट को पता नहीं है। “ अध: गच्छन्ति तामसा”  नीचे जाएंगे कौन? जो तामसिक हैं। “मध्ये तिष्ठन्ति राजसा “ जो राजसी हैं वे इसी संसार में आयेंगें। ऑल आवर यूनिवर्स जीव सर्वत्र हैं और असंख्य हैं। अहंकार से मुक्त होने के लिए भी ज्ञान उपयोगी हो सकता है, होना चाहिए। जीव कितना मोटा है?कितना लंबा-चौड़ा है? शास्त्र कहता है, “ केशाग्र” मतलब केश के अग्रभाग का 10,000 वां भाग। केश के अगर सौ टुकड़े करो, उसमें से एक उठाओ और फिर उसके और सौ टुकड़े करो, उसमें से एक उठाओ, दैट इस योर साइज। यह तुम्हारा-हमारा साइज है। इस साइज के जो हम हैं, हम इस देह में रहते हैं। इसलिए जीवात्मा को देही कहा गया है। तो मैं तो केवल इस देह में हूंँ  मैं आपके देह में नहीं हूँ, मैं और कहीं नहीं हूँ। मैं यहां पर भी नहीं हूँ, मैं वहाँ नहीं हूँ, मैं और कहीं नहीं हूँ। मैं केवल और केवल इस शरीर में हूँ। कठोपनिषद में शरीर को एक वृक्ष की तुलना दी है और इस वृक्ष की शाखा पर दो पक्षी बैठे हैं। एक पंछी है परमात्मा, “सर्वस्व च अहम हृदय समन्विष्टः”  सबके हृदय प्रांगण में मैं रहता हूंँ  या मैं सबके साथ रहता हूंँ। इस परमात्मा के पास में बगल में ही हम भी रहते हैं, आत्मा भी रहता है। परमात्मा और आत्मा साथ में रहते हैं। हमारी आत्मा को वैसे ‘हमारी आत्मा’ नहीं कह सकते, ‘मैं आत्मा’ कहना होगा। इसको समझिये जो सूक्ष्मता है। ‘मेरी आत्मा’ कहेंगे तो मैं अलग और मेरी जो आत्मा है वह अलग है।बल्कि मैं ही आत्मा हूँ। हरि हरि!  हम और कहीं नहीं हैं केवल और केवल देह में हम हैं। इसीलिए भी हमारा ज्ञान सीमित है। हमारा क्षेत्र है यह बॉडी । फिर थोड़ी ज्ञानेंद्रियों की मदद से, वी गैदर सम इनफॉरमेशन, हम कुछ जानकारी या ज्ञान प्राप्त करते हैं। पर फ़िर भी कुछ इंद्रियां लिमिटेड हैं, इंद्रियां मर्यादित हैं इसीलिए हमारा प्राप्त किया हुआ जो ज्ञान है वह भी सीमित रहता है। भगवान के संबंध में जो जानना है या भगवान को जानने की जो बातें हो रही हैं, वह तो हम भगवान से ही सुन सकते हैं। यहाँ लिखा भी है भगवान को जानने वाला कौन है? भगवान ही हैं। थोड़ा-थोड़ा बाकी भी जान सकते हैं, लेकिन पूर्णतः तो भगवान ही भगवान को या स्वयं को जानते हैं। हरि हरि! 

“हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे

 हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे”

यह भी जान ले कि हम च्युत हैं, अच्युत नहीं हैं। हम पतित हैं और पतितों को सहायता की आवश्यकता होती है, हेल्प! हेल्प! कुएं में कोई गिरा हुआ है तो हेल्प! हेल्प! करेगा तो भगवान सुनते हैं कहो या भगवान ने व्यवस्था की हुई है। “मैनें यह ज्ञान विवस्वान को दिया, विवस्वान ने मनु को दिया, मनु ने इक्ष्वाकु को दिया, “ एवं परंपरा प्राप्तम् इमम राजर्षयो विदु:”। भगवान ने कहा कि परंपरा में ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। यह परंपरा की जो श्रृंखला है, जो चैन है इसको रस्सी भी कहा जाता है। जो पुकारते हैं मदद करो, हेल्प! हेल्प! तो भगवान क्या करते हैं? रस्सी को डालते हैं, एक तरीके से हेल्पिंग हैंड कहो। तो हमें टाइटली उसको पकड़ना है। जैसे प्रभुपाद कहे,”कैच होल्ड ऑफ माय धोती” ,हिस् लोटस फीट। तो फिर क्या होगा?

“महाजनों येन गतः स पन्था” महाजनों के पीछे-पीछे जाएंगे। महाजन कहाँ जाते हैं? भगवत धाम जाते हैं। तो उनका अनुगमन करनेवाले भी कहाँ जाएंगे? भगवत धाम जाएंगे। तो हम च्युत हैं, पतित हैं। कहां से गिरे हुए हैं? वैकुंठ से। वैकुंठवासी तुकाराम महाराज की जय! तुकाराम महाराज को भगवान अपने धाम ले गए।वैसे वह चाहते थे कि “मुझे ले चलो, मुझे ले चलो, मुझे ले चलो” । इसी भाव के साथ वे… .  

“जय जय राम कृष्ण हरि, जय जय राम कृष्ण हरि, 

जय जय राम कृष्ण हरि, जय जय राम कृष्ण हरि”

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, 

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे “

…गा रहे थे। 

“अयि नन्दतनुज किंकरम् पतितम  माम् विषमे भवाम्बुधौ, 

कृपया तव पाद पंकजम् स्थितम धूलि विचिंतयः “

 मुझे उठाइए, मैं आपका हूँ। मुझे ले चलिए, मुझे ले जाइए।

तो भगवान ने जैसे द्रौपदी की पुकार को सुना वैसे ही तुकाराम महाराज की भी सुनी। 

वे सभी की सुनते हैं वैसे। अगर हम तुकाराम महाराज जैसे पुकारेंगे, गजेंद्र जैसे पुकारेंगे, तो भगवान् आयेंगे।कभी थोड़ी देर हो सकती है लेकिन अंधेर नहीं होता। 

“अवश्य रक्षीबे कृष्ण रक्षिशयति विश्वासः” हमारा विश्वास पक्का होना चाहिए कि कृष्ण जरूर रक्षा करेंगे। इन भावों के साथ हम पुकारते रहेंगे, स्पेशली

“हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे “

डज़ वैकुंठ एक्ज़िस्ट्? हरि बोल! वैकुंठ से विमान आया, यहाँ लैंडिंग भी हुई, जब न कोई एयरलाइंस थी न एयर पोर्ट था इस पृथ्वी पर। 450 वर्ष पूर्व वैकुंठ से विमान आया तुकाराम महाराज उसपे आरूढ़ हुए और जाते-जाते क्या कहे? 

“आमि ज़ातो अमचा गावाँ, अमचा राम राम घ्यावा 

राम राम घ्यावा , अमचा राम राम घ्यावा “

आप भी विठ्ठल विठ्ठल बोलो तो आप भी आ सकते हो। 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण बोलो और आजाओ। 

श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय! 

हम कलयुग के जीवों केलिए वही विठोबा, वही पांडुरंग गौरांग बने। पांडुरंग गौरांग! पांडुरंग गौरांग! गौरांग बनके श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रगट हुए। वे भगवान् ही थे लेकिन बन जाते हैं भगवान् के भक्त। जो उपदेश वगैरह किये थे कृष्ण बनके 

“मन्मना भव मदभक्तो मद्याची माम् नमस्कुरु” 

ये गीता का सार ही है कहो, 18 वे अध्याय अंत में कृष्ण कहे

“ मेरा स्मरण करो, मेरे भक्त बनो, मेरी अर्चना करो, मुझे नमस्कार करो “ ऐसा कृष्ण कहे  ,”तुम करो, यू डू धिस“। लेकिन वही कृष्ण जब बन जाते हैं श्रीकृष्ण चैतन्य, 

तो जो जो कहा था कृष्ण ने कि ऐसे करो वैसे करो, वैसा ही करके दिखाये भगवान् इस गौरांग, इस भक्त रूप में। 

“पंच तत्वात्मकम् कृष्णम भक्त रूप स्वरूपकम “ 

भगवान् ने भक्त के रूप धारण किया और भक्ति करके दिखाई। 

“ शिक्षार्थम् एकः पुरुष: पुराण:”

शिक्षार्थम् मतलब सिखाने केलिए। “श्रीकृष्ण चैतन्य शरीर धारी” महाप्रभु ने वैसा रूप धारण किया। वैसे वो रूप भी सदा केलिए है गोलोक में। उस रूप में भगवान् प्रगट हुए और भक्ति करके दिखाई-सिखाई, 

“अपनी आचारि जगते सिखाई “

विशेष करके उन्होंने कीर्तन किया , क्यों किया ऐसा? क्युकी इस कलयुग का धर्म ही है संकीर्तन। 

“ कलिकालेर धर्म हरिनाम संकीर्तन “ 

“ श्री राधार भावे ऐबे गौरा अवतार

हरे कृष्ण नाम गौर करीला प्रचार “ ( वैष्णव गीत “ जय जय जगन्नाथ “) 

उन्होंने हरिनाम का प्रचार सर्वत्र किया, सर्वत्र मतलब  विदिन इंडिया,भारत की सीमा के अंतर्गत। वे फिर भविष्यवाणी भी किये, इस नाम का प्रचार कहाँ तक फैलेगा? 

“पृथ्वीते आछे  जतो नगर आदि ग्राम

सर्वत्र प्रचार होईबे मोर नाम “

मेरे नाम का प्रचार होगा, कहाँ-कहाँ तक? पृथ्वी के हर नगर और हर ग्राम में  प्रचार होगा। भारत के अंदर वे स्वयं ही प्रचार-प्रसार किये, भारत के बाहर भी वे कर सकते थे। लेकिन प्रभुपाद कहे, “ ही लैफ्ट दैट फॉर इंटर नेशनल सोसाइटी फॉर कृष्ण कान्सियस्नैस्” । नहीं तो हमलोग क्या करते अगर वे ही सबकुछ कर देते तो? श्रील प्रभुपाद को आदेश मिला, “ जाओ हे सेनापति भक्त , विदेश जाओ “। फिर प्रभुपाद विदेश गए, वहाँ से 14 बार पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाया और “ जेट एज परिव्राजकाचार्य” बने। जहाँ-जहाँ गए वहाँ- वहाँ डिमांड रही और सर्वत्र कीर्तन होने लगा। ‘इवन हिप्पीज़ बिकैम हैप्प्पिज़्’ । हरि हरि!

आप सब भी “चैंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी”। कीर्तन जप कर रहे हो सभी? सबने तो नहीं कहा। हरि बोल! 

वैसे ‘ओनैस्टी इज़ द बेस्ट पॉलिसी’। हमलोग किसी पे मेहरबानी तो नहीं करते, जब हम कीर्तन भक्ति करते हैं। हरि हरि!  ये जो संबंध और संग आपको प्राप्त हुआ है यहाँ इस्कॉन में, उनके भक्तों/संतों/ साधुओं के साथ , इस संबंध को बनाये रखिये। फिर स्वयं ही बन जाईये संत और साधु। ये हरे कृष्ण कीर्तन तो सभी केलिए है। 

“गृहे थाको वने थाको सदा हरि बोले डाको “( वैष्णव गीत ‘ गाये गौरा’) 

आप घर के गृहस्थ हो या वन के ब्रह्मचारि/ संयासी हो, दोनों केलिए एक ही धर्म है। “ कलिकालेर धर्म हरिनाम संकीर्तन “। 

“सुखे दुखे भूले नाको

वदने हरि नाम करो रे “ (वैष्णव गीत ‘ गाये गौरा’) 

सुख-दुख में भूलना नहीं। 

“ जीवन होइलो शेष न भजिले ऋषिकेश “ 

यहाँ भक्ति विनोद ठाकुर कह रहे हैं कि जीवन तो व्यतीत हो रहा है, हर एक दिन, हर एक रात, हर एक सप्ताह और एक वर्ष। इसको ऐसे ही ख़ाली-फुकट बीतने मत दो, उसका पूरा लाभ उठाओ। कृष्ण भक्त बन ही जाओ आप। क्युकी कृष्ण कहे, 

“ मन्मना भव मदभक्तो मद्याची माम् नमस्कुरु” मेरे भक्त बनो। 

हरि हरि! 

धन्यवाद हरे कृष्ण!