Srimad Bhagavatam
HADAPSAR 25-31-Day 3
25-12-2022
ISKCON Pune

सुस्वागतम्  आप सभी, का आप सुन रहे हो? सुस्वागतम्..स्वागत के साथ आपका आभार भी आपकी उपस्थिति के लिए। वैसे आप थक नहीं रहे हो,दो दिन की कथा हुई और आप थके नहीं। “ वयम तु न  वित्तृप्याम स्वादु स्वादु पदे पदे”, नैमिषारण्य में जो ऋषिगण उनकी संख्या तो बहुत बड़ी थी 88,000। तो उन्होंने भी कहा “हमारी तृप्ति नहीं हो रही है, आप और सुनाइए” स्वादु  स्वादु पदे पदे। तो वैसे भाव आप में भी उदित हो रहे हैं और आपका उत्साह आज तो क्या कहे? कमाल या धमाल किया आपने। इतने दिन से तो बैठे थे, आज तो आप सब उठके खड़े हुए, खड़े होकर आप तो नृत्य कर रहे थे। हरि बोल! वैसे यह कथा के श्रवण की सिद्धि या  पूर्णता है। एक दिन बताए भी थे ‘भागवत महात्म्य’ के अंतर्गत चार कुमार कथा सुना रहे थे और  भगवान प्रकट हुए कई सारे परि रों के साथ। फिर वहाँ  महासंकीर्तन हुआ। कीर्तन के साथ सभी इंक्लूडिंग ज्ञान और वैराग्य भी नृत्य करने लगे।  हम भी वैसे जब शुरुआत में आते हैं तो हम ज्ञान वैराग्य की स्थिति में होते हैं। किन्तु वे भी नाचने लगे। निश्चित भगवान भी यहाँ उपस्थित हैं अपने  विग्रह के रूप में भी और “हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे” ये भी एक भगवान का रूप ही है, “ कलिकाले नामरुपे कृष्ण अवतार” ।कल अवतारों की चर्चा हो रही थी तो उसमें से एक अवतार कौन सा है? ‘कलिकाले नामरूपे’ कलियुग में ये नाम के रूप में भगवान प्रकट होते हैं। जब हम कहते  “हरे कृष्ण  हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे  हरे” तो भगवान प्रकट होते हैं। “ नाम नाचे जीव नाचे, नाचे प्रेम धन” तो फिर नाम भी नाचने लगता है, मतलब भगवान भी नाचते है और जीव भी नाचता है और इसी के साथ सबको प्रेमधन की प्राप्ति होती है । “कृष्ण प्रेम प्रदायते”  कृष्ण कन्हैया लाल की जय! द्वारकाधीश की जय! कन्हैया लाल तो वृन्दावन में थे और  द्वारकाधीश द्वारिका में।  थोड़ी सी या अधिक द्वारकाधीश की लीलाए-कथाएँ हम सुना रहे हैं। 

श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कन्ध पर आधारित हम कुछ कथा, कुछ ही कह पाते है। कथा का तो सागर है, कथा का तो समुद्र है, कथामृत तो सिन्धु है, किंतु हम तो कुछ बिंदु ही  छिड़काते हैं आपकी ओर। सिंधु में से कुछ कथामृत बिन्दु ही पर्याप्त है हमारे लिए। वहीं बन जाता है फिर सागर हमारे लिए। 

“ ओम पूर्णमद: पूर्णइदम् पूर्णात् पूर्णम उदच्यते” सागर से जो भी निकलते हैं बिंदु, वे भी पूर्ण बन जाते है। “ सर्वात्मा स्नपनम परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तनम् “ हम उस कथा  के सागर या सिन्धु से बन गये बिन्दु, तो उस कथामृत के बिन्दु में हम फिर हम क्या करते है? गोते लगाते हैं या चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “स्नपनम” मतलब हम स्नान करते हैं। यहाँ हमारा अभिषेक, आत्मा का अभिषेक होता है और उसी के साथ “ ययात्मा सुप्रसीदति”  उसीसे आत्मा प्रसन्न होती है , जो हम हैं। हम यह शरीर नहीं हैं, हम आत्मा हैं। तो जब आप नृत्य कर रहे थे तो मैं सोच रहा था, नाउ यु आर रिलैक्सस्ड।  टेक इट ईज़ी, रिलैक्सस्ड। यह सारा संसार कितने सारे तनाव और दबाव में है। ऑप्प्रेशन-सप्रेरशन दबाव-डिप्रेशन से परेशान हम, फिर आपको देखा तो लगा नाओ  यु आर  रिलैक्स्ड, एट होम। आपकी आत्मा अब आनंद लूट रही है। जब व्यक्ति नृत्य करता है तो क्या समझना चाहिए? प्रसन्न होगा यह व्यक्ति, ही मस्ट बी वैरी हैप्पी । वैसे तो पागल भी नाचते  हैं, तो क्या हुआ ? कृष्ण के लिए पागल होकर हम भी नाच सकते  हैं। हमको पागल कहा जा सकता है। चैतन्य महाप्रभु भी कहे,

“किबा मंत्र दिला गोसाईं,किब् तार बोल,

जपिते जपिते मंत्र करिल पागल “ 

आपने हमें कौनसा मंत्र या महामंत्र दिया है? जब से इस महामंत्र का मैं कीर्तन और जप करने लगा हूँ, क्या हुआ है? मैं तो पागल हो गया हूँ। मायापुर-नवद्वीप वे लोग मुझे पागल कह रहे  हैं। पगला बाबा, पागल कहीं का! हर व्यक्ति वैसे पागल तो होता ही है, कुछ माया के पीछे या माया उनको पागल बनाती है। तो कुछ को कृष्ण, कृष्ण का नाम, कृष्ण की कथा, इत्यादि पागल बनाती है। मैं यहाँ आ ही रहा था तो रास्ते में जहाँ हम गाड़ी में बैठने जा ही रहे थे, एक माताजी हमें मिली जो कल यहाँ कथा में थी। वह भी कह रही थी महाराज आपकी कल की कथा ने तो हमको पागल बना दिया। हम लौटेतै समय घर में पहुँच भी गये लेकिन  नींद भी नहीं आ रही थी। मैं सोचती रही वही बातें जो आपने सुनायी।  कम-से-कम एक व्यक्ति को तो हमने प्रसन्न किया तो उससे जॉब सैटिस्फैकशन  हुआ। हम ये जॉब कर रहे हैं, कथा सुना रहे है, आई वाज सेटिस्फाइड, एक व्यक्ति तो प्रसन्न हुआ। पता नहीं आपमें से कोई प्रसन्न हुए नहीं हुए? थैंक यू। 

द्वारकाधीश की जय! द्वारकाधीश कुरुक्षेत्र तीन बार गये। भगवान का कुरुक्षेत्र में आगमन और कुरुक्षेत्र की भेंट। एक समय तो  सूर्य ग्रहण का समय था, 5000 वर्ष पूर्व की बात है। सूर्यग्रहण या फिर चंद्रग्रहण भी होता है तो किसी पवित्र नदी में, कुन्डो में स्नान केलिए साधक जाते रहते हैं। तो स्वयं भगवान द्वारकाधीश अपनी रानियों के साथ, जिनकी संख्या कितनी थी? 16,108 रानियों के साथ। ऑफकोर्स वसुदेव और देवकी माता-पिता के साथ भी और कई सारे मंत्रियों के साथ भी। भगवान कुरुक्षेत्र जाने ही वाले थे , ऐसा कहूँगा तो फिर कथा शुरू होगी। कथा तो है ही लेकिन मुझे यह कथा विस्तार से नहीं सुनानी थी और सुनाऊंगा भी नहीं। कृष्ण को वृंदावन मथुरा छोड़कर कोई सौ वर्ष  बीत चुके थे(ऑलमोस्ट हंड्रेड ईयर्स) या थोड़े कुछ वर्ष कम हो सकते हैं। तो वृजवासी “ शुण्यायिताम् जगत सर्वं गोविंद विरहेंण में “ उनके लिए गोविन्द के बिना सारा जगात शून्य है। विरह की व्यथा से वे मर रहे थे मानो, हरि हरि! कृष्ण को मिलने केलिए इतने उत्कंठित थे, इतने लालायित थे, पूछो नहीं और इस बात को कृष्ण जानते थे और स्वयं कृष्ण भी ऑफ कोर्स  मिस कर रहे थे। “ उद्धव मोहे बृज  विसरत नाहि” , हे उद्धव मैं वृंदावन को भूल नहीं सकता, “ये मथुरा कंचन की नगरी” वैसे उस समय  कृष्ण मथुरा में थे तो उद्धव से कह रहे थे, “ यह मथुरा है कंचन की नगरी,यहाँ व्यापार चलते रहते हैं सोने-चाँदी के और कई सारे व्यापार चलते रहते हैं। लेकिन वृन्दावन में तो प्रेम के व्यापार चलते हैं। बाकी  व्यापारों से मथुरा में आई एैम नाट हैप्पी, मै प्रसन्न नहीं हूँ। मुझसे ब्रज भूला नहीं जा सकता।” 

तो दोनों भी एक दूसरे को मिस कर रहे थे। अगर हमारी बात करें तो क्या हम भगवान को मिस करते हैं? ये हैं हमारा दुर्दैव। 

भगवान के बिना, वैसे कहा तो है, “जीना तो क्या जीना” । लोग तो और कुछ कहते हैं, लेकिन मैं कहता हूँ, “जीना तो क्या जीना कृष्ण भगवान के बिना”। आत्मा के लिए कृष्ण की जीवन हैं, अदर वाइज़ मरण ही है या बारम्बार मरण है। 

“पुनरपि जननम पुनरपि मरणम,

पुनरपि जननी जठरे शयनम्,

इह संसारे खलु दुस्तारे, 

कृपया पाहि पारे मुरारे।। “ 

शंकराचार्य “भज गोविंदम” में गाये हैं इस वचन को। वे गए हैं ही “भज गोविंदम भज गोविंदम, गोविंदम भज मूढ़ मते “  

 ओ मूर्ख, हे गधे! क्या करो? भज गोविंदम, गोविंदम भज  मूढ़ मते। “ नही नहीं रक्षति संनिहिते काले”

वाराणसी में एक पंडित महापंडित संस्कृत के विद्वान थे, संस्कृत ही रटते रहते थे । उसको संबोधित करते हुए शंकराचार्य कहते हैं, “भजे गोविंदम् ए मूढ़मते! भज गोविन्दम्”। “भजे पांडुरंगम! परब्रह्म लिंगम।” शंकराचार्य जब पंढरपुर आये तो, वैसे मुझे और कुछ सुनाना है, वे पंढरपुर में आए उन्होंने पंढरीनाथ का दर्शन किया, विट्ठल-रुक्मणी का दर्शन किया तो फिर उन्होंने वैसे एक अष्टक लिखा, “ पांडुरंग अष्टक”।

जो ” पांडुरंगाष्टक “ करके प्रसिद्ध है। पांडुरंग, पांडुरंग! उस अष्टक में कहते हैं :- 

महायोगपीठे तटे भीमरथ्यां

वरं पुण्डरीकाय दातुं मुनीन्द्रैः ।

समागत्य तिष्ठन्तमानन्दकन्दं

परब्रह्मलिङ्गं भजे पाण्डुरङ्गम् ॥१॥

 

परब्रह्मलिङ्गं में लिङ्गं का  मतलब रूप, फ़ॉर्म। वैसे अद्वैत का प्रचार करने या निर्गुण निराकार वाले, इसको मायावाद भी कहते हैं, जिसका प्रचार करने के लिए उनका अवतार हुआ था और वे प्रचार भी किए। भगवान का रूप नहीं हैं ,गुण नहीं हैं, भगवान निर्गुण है,निराकार है, ऐसा प्रचार करनेवाले शंकराचार्य पंढरपुर आए तो कहने लगे, “ भज गोविंदम,”  ओह नहीं! वो तो वहाँ कहे थे वाराणसी में। तो पंढरपुर मैं कहने लगे, “परब्रह्मलिङ्गं भजे पाण्डुरङ्गम्” तो क्या हम मिस करते हैं कि नहीं ? ऐसी बात कह रहे थे पूछ रहे थे आप सबसे । इसी के साथ स्मरण भी दिला रहे थे कि मिस करना चाहिए, भगवान का स्मरण करना चाहिए। कृष्ण को जब कुरुक्षेत्र जाना था, जहाँ सूर्य कुंड है वहाँ स्नान करने के लिए , तो कृष्ण ने द्वारकाधीश ने समाचार पत्र भेजे। लगभग हरेक के नाम से पर्सनल लैटर प्राइवेट हाथ से लिखा हुआ, टाइप किया हुआ नहीं। टाईप में पर्सनल नहीं होता। हाथ से लिखा हुआ था और हस्ताक्षर भी, “यौर सिंसियरली, द्वारकाधीश”। वे पत्र जब मिले नंदबाबा को, यशोदा, राधा रानी को भी, गोपियों ग्वालबाल सभी के नाम से थे । उनके हर्ष उल्लास की कोई सीमा ही नहीं रही, सब कूद पड़े,” हम जाएंगे, कुरुक्षेत्र धाम की जय! चलो कुरुक्षेत्र, चलो कुरुक्षेत्र,चलो कुरुक्षेत्र चलते हैं।”  यहाँ संक्षिप्त में ये कहना था कि कुरुक्षेत्र में मिलन हुआ द्वारकावासियों और द्वारकाधीश का ब्रजवासियों के साथ, वृंदावन के वासी ब्रजवासी कुरुक्षेत्र में मिले, सम्मेलन हुआ, मिलन हुआ।

“इतीदृक् स्वलीलाभिरानंद कुण्डे

स्व-घोषं निमज्जन्तम् आख्यापयन्तम्

तदीयेशितज्ञेषु भक्तिर्जितत्वम

पुनः प्रेमतस्तं शतावृत्ति वन्दे ॥ दमोदराष्टक ३॥” 

तो मिलन की लीला का आनंद सभी ने लूटा ,वहाँ कुरुक्षेत्र में आनंद का कुंड ,आनंद का सागर उत्पन्न हुआ।

“ चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं

श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।

आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं

सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्।।” 

(शिक्षाष्टक 1) 

 ब्रजवासी इस समय जो  गए थे कुरुक्षेत्र, वे एक संकल्प के साथ गए थे,क्या था संकल्प? इस वक़्त जब मिलेंगे कृष्ण को और बलराम भी होंगे वहाँ, उनको पुनः द्वारका लौटने नहीं देंगे, हम उनको वृंदावन ले आएंगे। यह संकल्प था। कैसे ले आएंगे? वे तो रथ में बैठकर आएंगे ही द्वारकाधीश जो हैं, वृंदावनवासी तो बैलगाड़ी में बस बैठकर गए थे लेकिन द्वारकावासी तो अपने अपने रथों में थे। वे सब क्षत्रिय मंत्री थे और ब्रजवासी का धन तो गाय हैं, गोधन और बैल भी हैं । तो बैलगाड़ी से आना जाना चलता था गोकुल में या वृंदावन में तो उसी में बैठकर वे गए थे। तो उन्होंने सोचा कि कृष्ण और बलराम साथ में सुभद्रा भी उनकी बहन, जब वे रथ में बैठे होंगे तो हम उस रथ को ,वैसे घोड़े तो होंगे पर उन घोड़ों को गेट आउट कहेंगे,घोड़ों को हटा देंगे है और हम ही बन जाएँगे घोड़े। या ज़रूरत है तो हम गधे क्यों नहीं बन सकते भगवान के लिए ? घोड़ा हो या गधा जो भी हो हम बन जाएंगे , हम उस रथ को खींचकर लाएंगे, कृष्ण बलराम को वृंदावन ले आएंगे। जगन्नाथ पुरी में जो जगन्नाथ रथयात्रा होती है ,होती है कि नहीं ? सुना तो होगा? वहाँ पर हर वर्ष इसी लीला की पुनरावृत्ति होती है कहिए। वैसे उस समय तो कृष्ण नहीं गए थे वृंदावन। लेकिन प्रयास तो हुआ कृष्ण को, कृष्ण के रथ को खींचते हुए वृन्दावन लाने का प्रयास। तो जगन्नाथ पुरी में जहाँ जगन्नाथ मंदिर है वो वैसे द्वारका है कहो या कुरुक्षेत्र है ।  और जगन्नाथ पुरी में और एक मंदिर है उसे गुंडिचा मंदिर कहते हैं, तो गुंडिचा मंदिर वृन्दावन है। रथयात्रा जब होती है तो रथ को खींचनेवाले वृंदावन के भक्तों के भाव में, ब्रजवासियों के भाव में या गोपी भाव में, नंदबाबा के वात्सल्य भाव में या उनके मित्रों के सख्य भाव में आकर या भाव को अपनाते हुए जगन्नाथ के रथ को द्वारका या कुरुक्षेत्र से गुंडिचा मंदिर मतलब वृंदावन की ओर ले जाते हैं । 

जगन्नाथ रथयात्रा जो जगन्नाथ पुरी में सम्पन्न होती है ये उसके पीछे का यह संक्षिप्त में इतिहास हैं कहो। इति+अ+आस । यह सारी इतिहास की बातें । इति मतलब ऐसे, अ माने आस, मतलब ऐसी ही घटनाएँ घटी, जिसको इतिहास कहते हैं। एक था राजा एक थी रानी, राजा थे राम और रानी थी सीता। इनकी जो कहानी है राजा रानी की कहानी, यह कहानियाँ नहीं हैं, इतिहास है। यह फ़ेक्ट हैं, ऐतिहासिक घटनाएँ है।हरि हरि! यह पहली विज़िट है। पहली बार कृष्ण कुरुक्षेत्र गए थे, फिर दूसरी बार महाभारत में  कुरुक्षेत्र का जो यह युद्ध हुआ, 

धृतराष्ट्र उवाच

“धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:। 

मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥ 

(भगवद् गीता १.१) 

तो उस समय भगवान गए। दोनों ही पहुँचे दुर्योधन भी पहुँचे और अर्जुन भी पहुँचे। दोनों ही चाहते थे भगवान का सहयोग योगदान आनेवाले युद्ध में। भगवान ने कहा ठीक है एक हिस्से में मेरी नारायणी नामक सेना होगी, एक अक्षौहिणी सेना। और दूसरे हिस्से में केवल मैं रहूंगा, मैं युद्ध मैं रहूंगा लेकिन युद्ध नहीं खेलूंगा। आगे होनेवाला जो युद्ध है, शास्त्र में उसे युद्ध उत्सव कहा है, युद्ध उत्सव। भगवान की लीला वहाँ होने वाली है कुरुक्षेत्र में। तो केवल रासलीला से रासोत्सव ही नहीं है , जो युद्ध हुआ वह भी उत्सव कहा है। तो उस उत्सव में अंततोगत्वा दुर्योधन ने लेली सेना और फिर उन्होंने सोचा या कहा, देखो अर्जुन इसको केवल एक व्यक्ति मिले और मुझे तो पूरी सेना प्राप्त हुई। 

“यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: ।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥” १८.७८ ॥

यह भगवत गीता का अंतिम वचन है जो वहाँ संजय ने कहा संजय उवाच। उसने  इसलिए भी कहा वैसे क्युकी गीता के पहले श्लोक में धृतराष्ट्र उवाच है और धृतराष्ट्र ने पूछा है

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव: ।

मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥ १.१ ॥

कि संजय बता दो मेरे पुत्र और पांडू की पुत्र युद्ध करने की इच्छा से कुरुक्षेत्र में एकत्रित हुए हैं, क्या हो रहा है वहाँ? युद्ध में क्या होता है ? एक पार्टी जीत जाती है, दूसरी हार जाती हैं । हार और जीत ही होती । भगवद्गीता के पहले श्लोक में पूछे गए प्रश्न का उत्तर भगवद्गीता के अंतिम श्लोक में संजय दिए । हे संजय बता दो ,तो संजय उवाच । भगवद्गीता के अंतिम 5 श्लोक, संजय उवाच। तो संजय ने कहा जहाँ जहाँ है कौन? कौन जहाँ जहाँ है?

“ यत्र योगेश्वर: कृष्णो” , जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं ।

“यत्र पार्थो धनुर्धर:” और जहाँ पर धनुर्धर अर्जुन जैसे धनुर्धर है। तत्र वहाँ क्या होता हैं? तत्र श्री, वैभव भी होगा । और क्या होता है? विजयों , वहाँ विजय होती है, जीत होती है। जहाँ कृष्ण और अर्जुन जैसी जोड़ी होती हैं, जहाँ  कृष्ण और कृष्ण के भक्त होते हैं वहाँ विजय होती है, इसको याद रखिये । महाभारत में यह भी बात कही गई है कि विजय तो निश्चित ही पाण्डु पुत्रों की होगी, क्यों? उनके पक्ष में जनार्दन हैं, कृष्ण हैं, इसलिए पांडु पुत्रों की विजय निश्चित है। और यतः धर्मो ततः जयः। ऐसा भी सिद्धांत है जहाँ धर्म है वहाँ जीत है, विजय हैं। “सत्यमेव जयते” सत्यम एव जयते। एव क्यों कहा है? सत्य जयते कह सकते थे। एव मतलब ही या सिर्फ़ सत्य की ही जीत होती है। वैसे हम इतना ही सुनते हैं लेकिन उसका एक और पार्ट है। नानृतं:, न मतलब जीत नहीं होती किसकी? झूठ की जीत नहीं होती। सत्य नानृतं:, मतलब झूठ। तीसरी बार कृष्ण जब आते हैं कुरुक्षेत्र वो होता है युद्ध होने के उपरांत। कृष्ण पांडवों के साथ, युधिष्ठिर महाराज के साथ हस्तिनापुर पहुँच जाते हैं और हस्तिनापुर में ही रहते हैं। और इस समय युद्ध की शुरुआत में तो अर्जुन की बारी थी शोक करने की। शौक़ से व्याकुल अर्जुन, इसीलिए कृष्ण को भगवद्गीता का उपदेश सुनाना पड़ा। लेकिन कुरुक्षेत्र युद्ध के उपरांत अब युधिष्ठिर महाराज शोक कर रहे हैं,’ मेरे कारण, मेरे लिए, ६४ करोड़ लोग मारे गये। रिश्तेदार ,मित्र, ये और वो मारे गए , ताकि मैं राजा बनूँ । कृष्ण बहुत समझा बुझा तो रहे थे। अर्जुन को गीता का उपदेश सुनाकर कृष्ण को यश मिला क्योंकि अर्जुन ने कहा है कि अंत में,

“ नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।

स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव ॥”  १८.७३ ॥

“मैं मोहित तो था लेकिन आपका उपदेश सुनकर मोह नष्ट हुआ।” वैसे यह कृष्ण अर्जुन के संवाद में अर्जुन का यह अंतिम वचन है, १८ वे अध्याय में। अब जो बचे हुए श्लोक है वे  संजय उवाच है । अर्जुन ने जब कहा कि “आप के आदेश का, आपकी इच्छा का मैं पालन करूँगा।”  ऐसा कहा तो बस डायलॉग ख़त्म, संवाद समाप्त होता है। अर्जुन ने कहा, “मेरा मोह नष्ट हुआ, संदेह नहीं रहा, स्थित हो गया मैं गीता के वचन सुनकर” अर्जुन धीर गम्भीर होगए । लेकिन  हस्तिनापुर में कृष्ण दो महीने समझाते बुझाते रहे, लेकिन युधिष्ठिर महाराज शोक करते ही रहे, करते ही रहे। यह कृष्ण की रचना या व्यवस्था कहो।

इतने में समाचार आता है कि भीष्म पितामह का प्रयाण/ प्रस्थान होने जा रहा है। पांचों पांडव और कृष्ण दौड़ पड़े, बैक टू कुरुक्षेत्र, पुनः कुरुक्षेत्र आये। वैसे विस्तार से वर्णन है महाभारत में कि कई सारे राजऋषि, देवऋषि, असंख्य मात्रा में वहाँ एकत्रित हुए जब पता चला कि ग्रेंड फ़ादर जानेवाले हैं। कृष्ण बलराम तो प्राचीनतम हैं लेकिन मनुष्य में से कहो या भक्तों में से कहो, भीष्म पितामह एक महान विशेष व्यक्तित्व रहे और वे ग्रेट ग्रैंड फादर रहे। उनकी उम्र कुछ 400 वर्षों की थी और बड़े ही सम्माननीय थे, इत्यादि-इत्यादि । पांडवों के ,सभी के हितैषी थे। वे गांगेय भी थे क्युकी गंगा के पुत्र थे इसलिए गांगेय। स्वर्ग में कई सारी शिक्षाएं ग्रहण करके आये। स्वयं  परशुराम उनके गुरु बने स्वर्ग में , और वे जब लौटें तो उनका नाम देवव्रत हुआ था। उन्होंने संकल्प ही लिया ताकि शांतनु महाराज (उनके पिताश्री) विवाह कर सके मत्स्यगंधा के साथ । उन्होंने क्या संकल्प लिया? मैं जीवन भर के लिए अविवाहित रहूँगा ( इसको वैसे बृहद व्रत कहते हैं); कई सारे  व्रत है लेकिन यह ब्रह्मचर्य व्रत को बृहद व्रत कहा है। ब्रह्मचर्य का व्रत लिया ‘ मै अविवाहित रहूंगा, अखंड ब्रह्मचारी रहूंगा ।  यही बातें जब देवताओं ने सुनीं तो वे कहने लगे,” भीषण भीषण! ये तो बड़ी भयानक प्रतिज्ञा है। राजपुत्र का ऐसा संकल्प जिससे उनका नाम भीष्म हुआ,भीष्म पितामह। वे इस कुरुक्षेत्र के युद्ध में दुर्योधन की ओर से लड़ रहे थे, सेनापति ही थे। 18 दिन तक चला कुरुक्षेत्र का  युध्द ,भगवद्गीता में 18 अध्याय हैं और महाभारत में 18 पर्व हैं,उसमें से एक पर्व का नाम है भीष्म पर्व। भीष्म पर्व कहो या अध्याय कहो, इसके 25 वें अध्याय से 42 वें अध्याय तक गीता है। अध्याय संख्या 25 भगवद्गीता का पहला अध्याय हैं। इसी पर्व का 42 वां अध्याय भगवद्गीता का  १८ वां अध्याय  है। महाभारत जिसमें एक लाख श्लोक  हैं  और महाभारत को प्रभुपाद कहा करते थे ,जो सही ही है, ‘हिस्ट्री ऑफ़ ग्रेटर इंडिया’,महान भारत का इतिहास है महाभारत। भगवद गीता ईज़ पार्ट ऑफ  महाभारत। हम हिन्दू भी हैं, यह भी हैं, वह भी हैं लेकिन गीता और भागवत ये दो अलग अलग ग्रंथ हैं, इतना भी पता नहीं चलता हम में से कईयों को। अभी नहीं पूछूंगा आप में से कितने जानते हो या नहीं जानते? गीता तो भगवान ने सुनाई है कुरुक्षेत्र में जिसमें 700 श्लोक है और  श्रीमद्भागवत एक बृहद ग्रंथ हैं जिसमें 18,000 श्लोक हैं, द्वादश स्कन्ध हैं, और 335 अध्याय हैं। गीता में 18 अध्याय हैं और  भागवत में 335 अध्याय हैं और 18 हज़ार श्लोक हैं। श्रीमद् भागवत के वक़्ता रहे शुकदेव गोस्वामी और यह भागवत कथा हस्तिनापुर के बाहर, आउट स्कर्ट्स ऑफ  हस्तिनापुर हो रही थी,गंगा के तट पर जहाँ परीक्षित सब कुछ त्यागकर वैराग्यवान बनकर उपस्थित हुए थे। तभी वहाँ आगये थे राजर्षि, महर्षि, सभी पहुँचे, फिर शुकदेव गोस्वामी का भी आगमन हुआ । उस स्थान को शुकताल  कहते हैं, वहाँ एक वृक्ष भी है और उस वृक्ष के नीचे बैठकर शुकदेव गोस्वामी ने सात दिनों तक कथा सुनाई। इसलिए भी शायद  भागवत सप्ताह होता है। सप्त+ आह, आह का मतलब दिन, याने सात दिन, तक कथा शुकदेव गोस्वामी ने सुनाई राजा परीक्षित को, तो वो है श्रीमद् भागवत। 

भागवत भी अन्य पुराणों  जैसा इतिहास है और  सारे  ब्रह्मांडों का इतिहास है उसमें। भागवत के द्वितीय स्कंध में श्रीमद् भागवत के 10 टॉपिक हैं, १०  विषय हैं । उसमें ‘ईशानु कथा’   है; ‘ईश’ मतलब भगवान और ‘अनु’ मतलब भक्त ,भक्त और भगवान की कथा है। कल जिन अवतारों का उल्लेख हम कर रहे  थे उसमें से कई  सारे अवतारों  का वर्णन,उनकी लीलाओं का वर्णन, उनके  उपदेशों का वर्णन श्रीमद्भागवत  में है। उन 335 अध्यायों में से नब्बे अध्याय तो श्रीकृष्ण का चरित्र ही है याने एक चौथाई हिस्सा।  दशम स्कंध जिसको टेंथ कैंटो कहते हैं वो श्रीकृष्ण का चरित्र है। जो ग्यारहवाँ  स्क्न्ध  है श्रीमद्भागवत का उसमें एक और गीता है। एक तो महाभारत में गीता है, उसको भगवद्गीता कहते हैं। श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कंद  में भी और एक गीता है ,वो गीता भी कृष्ण ही सुनाए, लेकिन उस गीता को नाम दिया है, उद्धव गीता। सुने हो आप? ये उतनी ही विस्तृत है,वैसे भगवद्गीता से अधिक  श्लोक और अधिक अध्याय आपको इस गीता में मिलेंगे ।  गीत भी सॉंग ऑफ़ गॉड, कृष्ण का ही गीत है,  कृष्ण ही सुनाए हैं। वैसे वहाँ संवाद है उद्धव और कृष्ण का लेकिन नाम दिया है उद्धव का नाम। गीता और भागवत दो अलग अलग ग्रंथ है भी कहिए, या वैसे दोनों मिलके एक सम्पूर्ण ग्रंथ ही बन जाते हैं। दे कंप्लिमेंट  ईच अदर, एक दूसरे के पूरक हैं  गीता और भागवत्। या गीता  जहाँ समाप्त होती है, समाप्ति पर कृष्ण कहे, “सर्वधर्मांन परित्यज्य “, मेरी शरण में आ जाओ”। लेकिन जब हम भागवतम खोलते हैं पहला वचन क्या है? “ओम नमो भगवते वासुदेवाय” यहाँ से शुरुआत हैं ,भगवान की शरण वासुदेव की शरण से शुरूआत है। भगवद्गीता में कृष्ण गीता सुना सुनाकर अर्जुन को प्रेरित कर रहे थे कि वे शरण में आएं, या जीव शरणागति लेगा भगवान की ।  लेकिन भागवत् के प्रारम्भ में ही भगवान की शरण की बात कही है,” सत्यम परम धीमहि”  ऐसा प्रथम स्कंध प्रथम अध्याय प्रथम श्लोक में ही कहा । सत्यम परम धीमहि (हम ध्यान करते हैं किसका ध्यान? सत्यम परम धीमहि)।सत्य तो भगवान हैं। नाउ बैक टू कुरुक्षेत्र। कृष्ण पांचों पांडवों को लेकर कुरुक्षेत्र पहुँचे हैं और असंख्य ऋषि मुनि भी वहाँ पहुँचे  हैं। युद्ध के दसवें दिन से, फ़्रॉम द टैन्थ डे ऑफ़ दि बैटल ऑफ़ कुरुक्षेत्र , मकर संक्रांति के दिन तक, 14 जनवरी को क्या होता है? मकर संक्रांति। संक्रमण होता है, दक्षिणायन से  उत्तरायण में सूर्य प्रवेश करता है। दक्षिणयान सदर्न हेमिस्फीयर से  नॉर्दन हेमिस्फीयर। भीष्म पितामह जिनको उनके पिताश्री ने ही वरदान  दिया था, क्या वरदान था? तुम जब चाहोगे तब मर सकते  हो या शरीर को त्याग सकते हो इसको क्या कहते हैं? इच्छामृत्यु। जब चाहोगे तभी शरीर को त्याग कर सकते हो, कोई ज़बरदस्ती तुमको मार नहीं सकता, तुम जब चाहोगे,वैन यू वांट। हम को तो श्राप मिला हुआ है, उनको तो वरदान मिला हुआ था। तो इतने दिनों तक कुरुक्षेत्र का वॉर भी हुआ, जो बचे वे प्रस्थान कर लिए, जो मरे थे वो  तो गए ही, जो भी हुआ, लेकिन ग्रेंड फ़ादर भीष्म शरशैया   पर, ‘ऑन बैड ऑफ़ एरोज़’ लेटे हुए हैं। वहाँ पांडव जब पहुँचते हैं तो भीष्म कहते, “पानी, पानी”। दुर्योधन वग़ैरह भी वहाँ थे, वैसे तो नहीं होनी चाहिए थे। तो लोटा भरके या गागर भरके दुर्योधन जल लेकर आये थे, भीष्म कहे,” नॉट धिस  वॉटर, आई नीड गंगाजल। तो अर्जुन ने अपना गांडीव धनुष बाण उठाया, जमीन से गंगा प्रकट हुई और जल सीधे भीष्म पितामह के मुख में प्रवेश किया। क्योंकि भीष्म देव के हाथ भी  बिजी थे,उनमें भी बाण लगे हुए थे। अर्जुन की जय! वे धनुर्धारी नंबर  वन थे उस समय के। वैसे एकलव्य भी थे लेकिन फिर “मुझे अंगूठा दे दो दक्षिणा के रूप में”  तो फिर उनका नंबर चला गया। अर्जुन ही फिर नम्बर वन धनुर्धारी रहे। वहाँ पर युधिष्ठिर महाराज, जो शोकाकुल थे ही अब भी, तो उनका और ग्रेंड फ़ादर भीष्म का संवाद हुआ।  जो भी उत्तर ग्रेंड फ़ादर भीष्म ने सुनाए , उसको सुनके ही( जैसे अर्जुन ने कहा था, “ नष्टो मोहा “..) .शोक से, मोह से मुक्त हुए युधिष्ठिर महाराज। यह दर्शाया भगवान ने कि मेरी भक्त का जो संदेश/ उपदेश/ उनके मुखारबिंद से निकली हुई वाणी मुझसे भी  अधिक महत्वपूर्ण/ मोर पावरफुल हो सकती है। इसका डेमोस्ट्रेटशन प्रत्यक्ष यहाँ दर्शाए हैं। वे  सुनाके सुनाके युधिष्ठिर महाराज को तो थक गए, लेकिन यहाँ ग्रेंड फ़ादर भीष्म को यश प्राप्त हुआ है और युधिष्ठिर महाराज भी शांत हुए, प्रसन्न  हुए और फिर इसी के साथ ग्रैंड फ़ादर भीष्म का प्रयाण हो रहा है, प्रस्थान करेंगे, शरीर को त्यागेंगे और जिस प्परिस्थिति में भीष्म पितामह ने शरीर त्यागा ये बड़ा  ही दुर्लभ प्रसंग है। व्यवस्था है या परिस्थिती है।

ऐसे बहुत कम उदाहरण है मरण के क्योंकि यहां क्या हो रहा था ? हम कल गा ही रहे थे, “ इतना तो करना स्वामी, जब प्राण तन से निकले, गोविंद नाम लेकर तब प्राण तन से निकले”। गंगा का तट हो, आप भी आजाना, दर्शन देना। यहां वैसे कुरुक्षेत्र में सरस्वती बहती थी, अब सरस्वती तो लुप्त हो चुकी है, उसका दर्शन नहीं होता,कहीं कहीं पर होता है। लेकिन एक समय वहीं  से सरस्वती बहती थी, तो सरस्वती के तट पर कहो और स्पेशली कृष्ण भगवान की उपस्थिति में, श्रीकृष्ण के मुखमंडल का कहो, चरणकमलों का कहो, सारे सर्वांग का दर्शन और ध्यान करते-करते  उन्होंने प्रस्थान किया। पितामह भीष्मदेव की जय! तो यह तीसरी बार कृष्ण आए थे कुरुक्षेत्र में । वे दूसरी बार जो आए थे उस समय का थोड़ा अधिक वर्णन बचे हुए समय में हम करना चाहेंगे। वह कुरुक्षेत्र के युद्ध का प्रसंग है। कृष्ण कहे ,” मैं युद्ध में रहूंगा लेकिन युद्ध नहीं करूंगा”। तो कृष्ण तो आए हैं और देखिए कौनसा रोल, कौनसी भूमिका निभा रहे हैं? कृष्ण बने हैं ‘पार्थ सारथी’ नाम सुना है? पार्थ मतलब अर्जुन ,अर्जुन के रथ के सारथी बने हैं मतलब ड्राइवर।

अपने भक्त के लिए भगवान क्या-क्या नहीं बनते? पहले मैसेंजर भी बने थे और  हस्तिनापुर गए थे ताकि कुछ कंप्रोमाइज हो, संधि हो सके।”अरे आधा राज्य नहीं, तो पांच गांव तो दो”  कृष्ण ने  ऐसा प्रस्ताव रखा। पर दुर्योधन ने कहा,” पांच गांव तो बहुत होते हैं , सुई की नोक जितना स्थान घेरती है उतना भी नहीं देंगे”। तो भगवान का जो मिशन था वो एक दृष्टि से सफल नहीं हुआ, फिर पर्याय क्या बचा? युद्ध ही पर्याय बचा, 12 साल का वनवास भी हुआ, 1 वर्ष का अज्ञातवास भी हुआ।   विराट नगरी में कृष्ण बलराम दोनों ऐसे  पांडवों को मिले थे तब वहां से कृष्ण को हस्तिनापुर भेजा था। दुर्योधन ने कृष्ण को गिरफ्तार करने का भी प्रयास किया था, तो भगवान ने क्या किया? विराट रूप धारण किया और कहा लो करो गिरफ्तार मुझे। कृष्ण के लिए उन्होंने बहुत पार्टी और मेजबानी भोजन वगैरह की व्यवस्था की थी, लेकिन दुर्योधन के भाव में बहुत अहंकार की दुर्गंध आ रही थी भगवान को।  सारे पकवान तो थे लेकिन वहां भगवान ने भोजन स्वीकार नहीं किया। भगवान ने वहां से प्रस्थान किया।

भगवान क्या कहते हैं? “ पत्रम पुष्पम फलम तोयम, यो में भक्तया प्रयचछती” ,गीता के नवें अध्याय श्लोक संख्या छब्बीस में कहे हैं। पत्रम् पुष्पम् फलम् मतलब शाकाहारी भोजन। वैसे हमको शाकाहारी भोजन भी नहीं खाना चाहिए, हमको वेजिटेरियन नहीं होना चाहिए, हमें कृष्णेटेरियन होना चाहिए। पहले भगवान को भोग लगाकर, वैसे भगवान भोगी है,” भोक्ताराम यज्ञ तपसाम” ऐसा गीता में कहे हैं। प्रसाद हमारे लिए, भोग भगवान के लिए और जब उन्होंने ग्रहण किया तो बन गया प्रसाद/मर्सी हमारे लिए। वही कृष्ण और एक समय जब विदुर के घर गए थे। विदुर और विदुर रानी कुटिया में रहते थे।जब कृष्ण आए  मतलब  ‘वी वी वी आई पी’ वेरी वेरी इंर्पोटेंट पर्सन जब कुटिया में आए तो वे दोनों संभ्रमित हुए और सोचने लगे कैसे बिठाये? क्या खिलाएं? उस समय विदुरानी ने भगवान को थाली में केले के जो छिलके हैं उसी को काटकर देदिया और केला जो खाने का होता है वह कचरे के डिब्बे में फेंक दिया। छिलके काट के थाली में अर्पित किए। कृष्ण जब खा रहे थे, “ आह! ऐसा भोजन तो मैंने जीवन भर में कभी नहीं किया, इतना मधुर है। तो भगवान किसके भूखे होते हैं? भक्ति भाव के। सारा संसार उन्हीं का है, सारे पकवान,अन्न इत्यादि भगवान ही देते हैं, “ एको बहूनाम यो विदधाति कामान “।

सबों की कामना, इच्छा या आवश्यकता की पूर्ति करनेवाले हैं एक अकेले कृष्ण ही हैं , उनको हम क्या खिला सकते हैं? कृष्ण तो भूखे नहीं है, फिर भी  विदुरानी ने उनको प्रसन्न किया ,ऐसे ही शबरी ने भी राम को प्रसन्न किया था ।  कौन कहता है कृष्ण खाते नहीं है? क्यों नहीं खाते? शबरी जैसे खिलाते नहीं या विधुरानी जैसे खिलाते नहीं या यशोदा जैसे खिलाते नहीं, इसलिए कृष्ण नहीं खाते होंगे। अधिकतर हम लोग ‘पत्रम पुष्पम फलम तोयम’ के बजाय ‘मटनम चिकनम्’ खाते हैं। हरि हरि! कृष्ण के लिए यह मेनू नहीं है और हम मनुष्यों केलिए भी यह अभक्ष्य भक्षण हुआ।  कृष्ण कुरुक्षेत्र में पहुंच रहे हैं अर्जुन को लेकर, “ श्वतेर हयेर युक्ते महती संधने स्थितौ माधव पांडवश्चैव दिव्यौ  शंखौ प्रदद्मधु “ । भगवान एक महान रथ को चला रहे हैं जिसको सफेद घोड़े खींच रहे हैं और उस रथ में विराजमान हैं माधव (कृष्ण), पांडव(अर्जुन) और आते आते ही दिव्य शंख ध्वनि दोनों ने की। “ पांचजन्यो ऋषिकेशो”  ऋषिकेश श्रीकृष्ण ने पांचजन्य नामक और धनंजय ने (अर्जुन का दूसरा नाम है, क्युकी वे धन को इकट्ठा करनेवाले थे) देवदत्त नामक शंख का दिव्य नाद किया। जैसे रथ आगे पहुंचा है युद्ध में अर्जुन कहते हैं, “मैं और मेरे साथ युद्ध करने केलिए कौन तैयार है?कौन कर सकता है मेरे साथ युद्ध?” अर्जुन बड़े उत्साही हैं,शूरवीर हैं। जैसे वहां पहुंचते हैं तो कृष्ण को अर्जुन ने कहा, “सेन्यौर उभ्यो मध्ये रथम स्थापय मे अच्युत” , मेरे रथ को दोनों सेना के बीच में खड़ा करो। कृष्ण ने रथ को दोनों सेना के बीच में खड़ा किया। “थोड़ा आगे ले जाओ न,” तो कृष्ण ने रथ को आगे बढ़ाया, सेना के मध्य में खड़ा किया । कुरुक्षेत्र में गए हो? श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र धाम की जय! जहां अर्जुन ने कहा था कि मेरे रथ को बीच में खड़ा करो,उस स्थान पे भी एक रथ बनाया है जिसमें कृष्ण अर्जुन को  बिठाया है। वह स्थान आज भी है, एक निश्चित स्थान है, एग्जैक्ट लोकेशन और वहाँ पर एक वृक्ष भी है, जिसको अक्षयवट कहते हैं। जो उपदेश अर्जुन ने सुना, वह उपदेश इस वृक्ष ने भी सुना और वह वृक्ष अमर हो गया, अक्षय हो गया। ही वास ए विटनेस, यह वृक्ष साक्षी था और आज भी है वहाँ वो वृक्ष, आप देख रहे हो न? यहां बैठे-बैठे आप दर्शन कर रहे हो, नमस्कार करो उसे वृक्ष को,उस धाम को भी।  कृष्ण ने जब दोनों सेना के मध्य में रथ को खड़ा किया और फिर कृष्ण ने जो बात कही है, इतनी ही बात भगवत गीता के पहले अध्याय में कृष्ण कहे हैं। केवल आधा वाक्य है, “ पश्य” मतलब, “ देखो! देखो! तुम देखना चाहते थे ना कि कौन युद्ध करना चाहता है? “ पश्य ऐतान समवेतान कुरुन् “ । 

कौरव ही तो यहाँ एकत्रित हुए हैं युद्ध करने के लिए। यह बात जब सुनी है तो इस बात ने अर्जुन पर बहुत प्रभाव डाला और अर्जुन इसीके साथ अब यूटर्न लेने वाले हैं। इतने जोश के साथ ये शूरवीर युद्ध खेलना चाहते थे, खेलने की इच्छा थीं पर अब वो शिथिल होने लगेंगे।  धीरे धीरे अब अर्जुन कहने वाले हैं, “ आप युद्ध करने के लिए कह रहे हो, युद्ध करने के लिए हम आये तो हैं लेकिन, “ मुखम्  च परिशुष्यति”  मेरा गला सूख रहा है, मेरा सारा अंग अंग कांप रहा है, हाथ से गांडीव छूट रहा है और आप युद्ध करने को कह रहे हो। मुझे राज्य नहीं चाहिए, मुझे सुख नहीं चाहिए, स्वजनों की हत्या मुझे नहीं करनी है। इसमें मुझे कोई श्रेय नहीं दिख रहा है, कोई फ़ायदे की, कल्याण की बात मुझे  नहीं दिख रही हैं। ऐसा कहते गए, कहते गए अर्जुन और फिर अंतोगत्वा अर्जुन ऐसे बैठ गए, धनुष बाण भी रखे हैं बगल में। ऐसे हताश उदास  संभ्रमित अर्जुन को अब उठाना है, लड़ाई तो बैठ के नहीं होती, लड़ाई कैसे होती है? उठके होती है और बातें बैठ के होती हैं। तो अर्जुन बैठे हैं मतलब? भैंसे की गाड़ी में बहुत कुछ लोड होता है और  धूप के दिन हैं, तो भैंसा कभी कभी गाड़ी को नही खींचना चाहता। आगे नहीं जाता है तो जो मालिक है, किसान है वह भैसा को पीटता हैं। वो आगे बढ़ता है फिर आगे जाकर भैसा बैठ जाता है ।  मतलब क्या कहना चाहता है? फुलस्टॉप, फिनिश्ड, मुझे आगे नहीं बढ़ना है, इस गाड़ी को नही खींचना है, तो अर्जुन बैठ गए मतलब,”नो नो नो वार, नो वार “ फिर भगवान ने सारा उपदेश भगवद गीता का सत्रह अध्याय में सुनाया है। कुरूक्षेत्र कहाँ है आप जानते हो न? दिल्ली से नौर्थ में हस्तिनापुर। 

हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र और संजय बैठे हैं और वहाँ बैठे बैठे संजय को दूरदर्शन हो रहा है ( टेलीविज़न), वे वहाँ कुरुक्षेत्र के  दृश्य को देख रहे हैं और कृष्ण का उपदेश भी सुन रहे हैं और वे भी खुद सुना भी रहे हैं। यहाँ तक कि कौन क्या सोच रहा है? यह भी ज्ञात हो रहा है, पता चल रहा है संजय को। वैसे उन्होंने कहा गीता के अंत में, “ व्यास प्रसादात श्रुत्वान”, यह  सब जो मैं सुन सका यह कैसे संभव हुआ? व्यास प्रसादान। श्रील व्यासदेव वैसे मिले थे धृतराष्ट्र को और उसको वे कहे थे, “ मैं तुम्हें दृष्टि दे सकता हूँ”। तो धृतराष्ट्र ने कहा, “नो! नो! नो! नहीं चाहिए। मैं मेरे पुत्रों की हत्या होते हुए देखूंगा, प्लीज़ मुझे आंखें मत दीजिए, मेरी आंखें मत खोलिए। आप चाहते हो तो फिर संजय को आप ऐसी पावर ऑफ़ अटॉर्नी, ऐसी शक्ति प्रदान कीजिये। तो वैसे ही हुआ था इसीलिए ‘ऑनेस्टी  इज़ द  बेस्ट पॉलिसी’। इसलिए संजय ने कहा गीता के अंत में, “व्यास प्रसादान”, व्यास की कृपा मैं देख सका, सुन सका। कुरुक्षेत्र का सारा का सारा दृश्य यहाँ हस्तिनापुर में  धृतराष्ट्र को सुनाए संजय। यह कुरुक्षेत्र ,राजा कुरु ने वहाँ हल भी चलाया था ,इसीलिए कुरुक्षेत्र कहलाया, ‘कुरु का खेत’। वहाँ इन्द्रदेव भी आये थे और पूछ रहे थे, “ क्यों क्यों क्यों? आप इतने बड़े सम्राट हो और हल चला रहे हो।(उस समय  कुरु नाम का राज्य था) । फिर वहाँ पास में पाँचाल भी था। पाँचाल की फिर पांचाली, ‘द्रोपदी’, द्रुपद राजा भी अग़ल बग़ल में थे। अभी तो वो स्टेटस अलग अलग राज्य बनें  लेकिन यह जो आप नक़्शा देख रहे हो वो फ़ाइव थाउज़ेंड ईयर ओल्ड नक्शा है। इसमें कुरु राज्य है, पांचाल भी बग़ल में आप देख रहे हो और कौशल देश देख रहे हो, लाइक दैट । इसमें वर्धा भी है,वैसे 5000 वर्ष पूर्व महाराष्ट्र भी था। दक्षिण भारत को द्रविड़ कहते थे, ‘पंच द्रविड़’ और गुजरात को ‘गुर्जर देश’ ऐसा शास्त्रों में पुराणों में उल्लेख आता है। 

तो  गीता इतनी महत्वपूर्ण है क्या कहना? कितना कह सकते हैं? जैसे कल बता रहे थे, “ निगम कल्पतरूर गलितम् फलम्”। सारे शास्त्र एक वृक्ष और उस वृक्ष का ‘गलितम फलम’ है  ग्रंथराज श्रीमद्भागवतम्। गीता को वैसे ही गीता उपनिषद भी कहते  है, ‘गीतोपनिषद्’। गीता महात्मय में कहा गया है,” सर्वो उपनिषदौ गावों”, सारे ग्रंथों का वृक्ष बना था ( ऐसा वर्णन है भागवत का)। गीता के बारे में कहा है कि वह सभी उपनिषदों  का सार है । उपनिषद से बनी है गाय, “दोग्धा गोपालनन्दनः”   और दोहन करने वाले कौन हैं? गोपाल नंदनः । तो यहाँ गाय हैं और दोहन भी हो रहा है। तो फिर कोई बछड़ा भी चाहिए, “पार्थो वत्सः” पार्थ वत्स है। “सुधीर्भोक्ता” मतलब जो बुद्धिमान लोग हैं जो इसका श्रवण अध्ययन करेंगे वे सुधीर्भोक्ता हैं। “दुग्धं गीतामृत महत”, इस प्रकार ये गीता का दूध कहो, ये अमृत है और इसके पान से, “ गीता गंगोदकम् पित्वा पुनर्जन्म न विद्यते”  गीता रूपी जो गंगाजल या दूध अमृत है (आप यहाँ चित्र में भी देख रहे हो) पुनर्जन्म न विधयते। गीतोंपनिषद । भगवान ने हम पर कई प्रकार की कृपा की है, उसमें  यह भगवत गीता का संदेश/ उपदेश सबसे अधिक महत्वपूर्ण देन है या भेंट है। मैं कहते ही रहता हूँ कि भगवान ने जाते-जाते हमारे लिए पीछे एक चिट्ठी/पत्र लिखके छोड़े  और वह क्या है? भगवद्गीता । वे अर्जुन को तो, “निमित्त मात्रम् “ बनाए है। लेकिन भगवान का गीता सुनाने का जो उद्देश्य कहो या लक्ष्य/ टार्गेट तो हम हैं। हमारे लिए भगवान ने भगवद गीता का उपदेश सुनाया और इसीलिए हमको इस मनुष्य जीवन में इस गीता का ज़रूर अध्ययन करना चाहिए। “ एकम शास्त्रम  देवकीपुत्रम् गीतम्”, ऐसा भी महात्म्य में कहा है। बस एक शास्त्र ही पर्याप्त है, वन स्क्रिप्रप्चर्  इस इनफ और वो कौनसा है? एकं शास्त्रं देवकीपुत्र गीतम्।  देवकी पुत्र का गीत भगवद्गीता एक शास्त्र पर्याप्त है। “एको देवों देवकीपुत्र एव”  देव भी वैसे एक की है और वही पर्याप्त है  और  वह देव कौन हैं? “आदिदेव देवकीपुत्र”  देवकी का पुत्र ही ,” गोपाला गोपाला देवकीनंदन गोपाला”। 

तो एक शास्त्र ,एक भगवान् और “ एको मंत्र: तस्य नामानि यानी “  पूरे संसार के लिए एक ही मंत्र पर्याप्त है और वह है, “ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम हरे हरे”

 और हम सभी के लिए एक की जॉब,ओनली वन ऑक्यूपेशन है और वह क्या है? “ तस्य देवस्य सेवा” उस भगवान की सेवा ही हमारा व्यवसाय/हमारा जीवन होना चाहिए, हमारा जॉब  होना चाहिए । भगवान की सेवा में हम कार्यरत हों, यही भगवद्गीता सिखाती है,भक्तियोग सिखाती है। अंतरराष्ट्रीय श्रीकृष्ण भावनामृत संघ की जय! जिसको इस्कॉन भी कहते हैं। इसके संस्थापकाचार्य श्रील प्रभुपाद की जय! श्रील प्रभुपाद ने भगवद्गीता प्रस्तुत की और उस भगवत गीता को प्रभुपाद नाम दिए हैं, “भगवद्गीता ऐज़ इट इज” या “भगवत गीता यथारूप” या “भगवद् गीता जशी आहे तशी “ । इसका भी कारण है कि क्यों प्रभुपाद ऐज़ एस ईंट कहे लेकिन आज वो सुनाने में बहुत समय लग जायेगा। 

हम  रेकॉमेंड करते हैं  आप सभी के लिए यह भगवद्गीता जिसका संसार की ८० भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इनक्लूडिंग चाइनीज़, स्वाहिली फॉर अफ़्रीकनस, हिब्रू एंड  दिस वन  दैट वन , 80 लैंग्वेजिज में। इसका वितरण भी हो रहा है ,उन उन देशों के लोग भक्त बन रहे हैं। इसीलिए इसको  “भगवद्गीता एैज  इट ईज” कहना होगा। जैसे अर्जुन भ्रम से मुक्त हुआ, शंका मुक्त हुआ “ गत संदेहा “ हुआ। फिर  अर्जुन भगवान की सेवा के लिए तैयार हुआ। ये भगवत गीता पढ़ने से भी हज़ारों लाखों करोड़ों लोग, सौ से अधिक देशों में, भगवान की सेवा में रत हो रहे हैं। दिस इज़ द फैक्ट और इवन चाइना में भी “मटनम चिकनम रैटम” ( दे इट एवरीथिंग) कुछ हद तक बंद हुआ है। मैं वहाँ गया था 10 वर्ष पूर्व, मैंने पता लगवाया कि वहाँ ब्रैड तो मिलते ही हैं, ऐंट ब्रेड भी मिलती  मतलब चींटी को डालते हैं। उन्होंने हमको दिखाए कई सारे  खेत कि “ धिदस इज़ अ रैड एंड फ़ील्ड, दिस इज़ अ वाइट एंड फ़ील्ड” । तो कई सारी प्रकार की चिंटी थी ब्रैड में। जो भी खाएंगे वो चिंटीवाला ब्रैड तो वे मानव से दानव बनेंगे। योहान है जो चाइना में, कोविड नाइनटीन की शुरुआत हुई और संसार भर में फिर उसको फैलाया। बेचारे चायनीज़ स्वयं भी फंसे। हम प्रार्थना करते हैं वैसे क्युकी कई सारे अपनी जान को खो रहे हैं। जैसा खाते हैं वैसे बनते हैं, “जैसा अन्न वैसा मन” यू आर व्हाट यू ईट। खाने से शरीर तो बनता ही है उसी के साथ मन भी बनता है। राजसिक, तामसिक या सात्विक जैसा आहार है वैसा हम बनते हैं। हरि हरि! इट्स अ बिग टॉपिक। ये तीन गुणों पे एक अध्याय ही है भगवद् गीता में, वेरी इम्पोरटैंट । आप सब पढ़िये ise भगवद् गीता को, ये यहाँ उपलब्ध भी है।आज मैेने ये सब सुनाने का इसलिए भी सोचा क्योंकि इसी दिसंबर महीने में भगवान् ने गीता सुनाई। वो मोक्षदा एकादशी का दिन था। कितने बजे सुनाई? सूर्योदय के समय, करीब सुबह सात बजे। महाभारत का धर्मयुद्ध सूर्योदय से सूर्यास्त तक चलता था तो प्रातः काल में ही भगवान् ने ये उपदेश सुनाया उसी कुरूक्षेत्र में , जहाँ हमारे गुरु महाराज भी गए थे 1975 की बात है। वहाँ इस्कॉन का मन्दिर हो उसके लिए भूमि देखने के लिए गए थे। उस समय गुलज़ारी लाल नंदा करके प्राइम मिनिस्टर ऑफ इंडिया थे कुछ समय केलिए। प्रभुपाद और उनकी काफी दोस्ती मैत्री थी तो वे प्रभुपाद को कुछ जगह दिखाये थे। प्रभुपाद जैसे कुरुक्षेत्र से वृंदावन आये तो दूसरे ही दिन प्रभुपाद ने 6 दिसंबर 1975 को मुझे संन्यास दिक्षा दी। हरि बोल! ये दंड देख रहे हो, डरना नहीं। महाराज के पास भी है, “ प्लीज़ शो यौर दंड “ ये आपकी रक्षा के लिए है। तो प्रभुपाद मुझे त्रिदंडी संयासी बनाये कुरुक्षेत्र से जैसे ही लौटे थे। गीता का 18 वां अध्याय जो है उसको संयास योग कहते हैं। तो उसी कुरुक्षेत्र में अब इस्कॉन का भव्य कृष्ण अर्जुन मन्दिर बन रहा है (जो कुछ ऐसा दिखेगा) और उसका उदघाट्न होने वाला है एक दो साल में।

ये गीता का प्रचार प्रसार विश्व भर में हो रहा है। लिटरली, अक्षरशः करोड़ों की संख्या में भगवद् गीता के वितरण हो चुका है चाइना, अमेरिका, अफ्रीका, हर जगह में और वहाँ के लोग कृष्ण भक्त बन रहे हैं गीता पढ़के और गीता का वितरण कर रहे हैं। आप भी भगवद् गीता ऐज़ इट इज़ लीजिये। कई लोग गीता तो ले लेते हैं , “ भगवद्गीता जशी आहे तशी”  लेते हैं और जशी आहे तशी रख देते हैं। बल्कि आप इसको खोलिए पढ़िये, प्लिज़ रीड। जब पढ़ोगे तो भगवान् आपसे बात करेंगे। वो चेंजिंग बॉडी वाला वीडियो क्लिप है जिसमे बताया है हम लोग कैसे एक योनि से दूसरी यौनि में जाते रहते हैं। “ देहीनो अस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनम ज़रा “ इसमें जो बात कही है भगवान् ने उस पे आधारित एक टेप है। आर यू रेडी? दिखा दो फिर। साउंड है कि नहीं? ओके गो अहैड। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! 

परम पूज्य लोकनाथ स्वामी गुरु महाराज की जय! हरे कृष्ण! ज़ोर से 

हरे कृष्ण महामंत्र बोलके महाराज जी का धन्यवाद देंगे। 

“ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे 

हरे राम हरे राम राम रमे हरे हरे “।। 

बड़ा महत्वपूर्ण श्लोक आज महाराज जी ने बताया जिसको मैं पुनः रिपीट करना चाहूंगा। 

“ सर्वो उपनिषदों गावो दोग्धा गोपाल नंदनम

पार्थो वत्स सुधिर भोक्ता दुग्धम गीतामृतम महत् “ 

जितने भी उपनिषद हैं वो एक गाय हैं, जिसको भगवान् कृष्ण स्वयं दुह रहे हैं, गीता रूपी ज्ञान ये अमृत है, अर्जुन  बछडा बनके उसका रसपान कर रहे हैं और अर्जुन के माध्यम से ये गीतामृत रूपी ज्ञान हम लोगों को प्राप्त हुआ है।