
Srimad Bhagavatam
HADAPSAR 25-31-D4
25-12-2022
ISKCON Pune
“उद्धव मोहि ब्रज विसरत नाही “, तब कृष्ण उस समय में मथुरा में पहुँचे थे। यह मराठी में भी हैं, हम थोड़ा ऑर्डर चेंज कर रहे हैं।
“सोडुनिया गोपीना कृष्ण मथुरेसि गेला
अक्रूराने रथ सजविला कृष्ण रथामध्ये बैसला”
कंस ने भेजा है अक्रूर को मथुरा से वृन्दावन कृष्ण-बलराम को मथुरा लाने के लिए। अब अक्रूरजी तो सायंकाल को पहुँचे वृंदावन ,दूसरी प्रातःकाल को वे कृष्ण और बलराम को रथ में बिठाकर मथुरा ले जा रहे है। तो उस समय वृन्दावन वासी / बृजवासी तो इस बात का स्वागत तो नहीं कर रहे हैं, स्पेशली गोपियाँ तो बहुत ही दुखी हैं और अपना शोक व्यक्त कर रही हैं। वही शोक, वही व्याकुलता इस मराठी गीत में दर्शायी है जो छोटा ही है। आप समझ पाओगे, भाव का खेल है, भाव को समझना है और यथासंभव ऐसे भाव हमें उदित करने हैं, प्रकाशित करने हैं, हममें भी भाव प्रेम तो है किंतु वो सुप्त है। वो अभी आच्छादित है, उसको जागृत करना है इसलिए कथा- कीर्तन और ये भजन भी है।
“सोडुनिया गोपीना कृष्ण मथुरेसि गेला
अक्रूराने रथ सजविला कृष्ण रथामध्ये बैसला”
अक्रूर ने रथ को सजाया प्रातः काल में ही। वहाँ ब्रजवासी एकत्रित हुए हैं, गोपियाँ भी आ पहुँची है और जानना चाहती हैं अब क्या होगा? रथ तो तैयार किया जा रहा है, अक्रूर द्वारा सजाया जा रहा है, अब नेक्स्ट क्या होगा? उन्होंने कृष्ण- बलराम को भी उसी रथ में बैठते हुए देखा,ये बात अच्छी नहीं है कि कृष्ण-बलराम रथ में विराजमान हो ही गए। वे सभी इस रथ को, कृष्ण-बलराम के मथुरा प्रस्थान को, रोकना चाहते थे। गोपियाँ आगे बढ़ती हैं और वे कहती हैं, “अरे! अरे! तुम्हारा नाम तो अक्रूर है, लेकिन तुम तो क्रूर हो।किसने रखा तुम्हारा नाम अक्रूर? हे क्रूर! वैसे कृष्ण-बलराम यदि जा रहे हैं,कहीं भी या मथुरा जा रहे हैं तो सारे ब्रजवासी भी साथ में जाना चाहते हैं। जैसे राम वनवास के लिए प्रस्थान कर रहे थे तो सारी अयोध्या तैयार हो गई है और सब जा रहे थे वैसे सीता-राम- लक्ष्मण के पीछे-पीछे। वहाँ के वृक्ष तो सोच रहे थे(अयोध्या की बात है) कि बेचारे हम भी मनुष्य होते तो हम भी जाते। लेकिन हाय! हे दुर्दैव! हम तो स्थावर हैं, हम तो अपने स्थान से हिल-डुल भी नहीं सकते । भाग्यवान हैं ये अयोध्यावासी। वैसे यहाँ ब्रजवासी भी सोच तो रहे है । क्या हम भी जा सकते हैं?
“ वाटे जावे त्याच्या बरोबरी” आप भी जाना चाहोगे कृष्ण के साथ? इसको टॉक ऑफ़ द टाउन कहते हैं,सर्वत्र चर्चा हो रही है, “अरे! अरे! कृष्ण जा रहे हैं। क्या हम भी जा सकते हैं? “ या “ बोधयन्तः परस्परं “ कहो। आपस में चर्चा हो रही है। त्रेतायुग में प्रकट हुए जो राम और लक्ष्मण, आप सुन रहे हो? वही राम और लक्ष्मण द्वापर युग में कृष्ण-बलराम बन जाते हैं या कहो कि कृष्ण-बलराम ही त्रेतायुग में राम और लक्ष्मण बनते हैं। और फिर क्या होता ? त्रेतायुग के बाद द्वापर के बाद आ गया कौन सा? सभी को ध्यान है कि अब कौन सा युग आ गया? कलियुग, जिस युग के हम निवासी हैं।
वही कृष्ण-बलराम गौरांग-नित्यानंद के रूप में प्रकट हुए। “नंदनंदन जेई शची सुत होईलो सोई
बलराम होईलो निताई “
जो नंदनंदन श्रीकृष्ण थे, वो बन जाते हैं शचिनन्दन। मतलब गौरांग शचिनन्दन और बलराम बन जाते हैं नित्यानंद प्रभु। श्री गौर निताई की जय! जो पंचतत्व हैं उसमें मध्य में हैं गौरांग या शचिनन्दन और उनके दाहिने हाथ में हैं नित्यानंद प्रभु,आपकी जानकारी के लिए। हमने कहा था वैसे कृष्ण-बलराम अवतारी हैं। वे अवतार लेते हैं और बन जाते हैं गौर-निताई कलियुग में। वे भी अवतारी हैं और त्रेतायुग में वे राम-लक्ष्मण बन जाते हैं ।
इसी भाव वाला एक और गीत है, यदि मुझे जल्दी मिलता है तो पीछा नहीं छोड़ेंगे जब तक वो नहीं मिलता है। जैसे मैं पहले कह रहा था कृष्ण मथुरा अभी पहुँच गये हैं। इन सभी को छोड़कर कृष्ण-बलराम मथुरा गये हैं । लेकिन मथुरा में वे उतने सुखी नहीं है जितने की वे वृन्दावन में थे। क्युकी वृन्दावन में अधिक प्रेमी हैं। मथुरा के भक्तों का भी प्रेम है ही कृष्ण से, किन्तु वृन्दावन के भक्तों का प्रेम सर्वोपरि हैं।
इसलिए भी कृष्ण कह तो रहे थे, मोहि बृज बिसरत नाहि। कृष्ण तो मथुरा से न तो गये, न तो जा सकते थे। हम नहीं बताएंगे कि क्यों? दूर तो नहीं था । वैसे हमारी दृष्टि से देखा जाए तो 10 किलोमीटर दूरी पर था वृन्दावन, लेकिन कृष्ण नहीं जा रहे हैं, ना ही जा सकते हैं। तो उन्होंने उद्धव को भेजा विशेष पत्र के साथ। ब्रजवासियों के लिए पत्र/मैसेज को उद्धव-संदेश भी कहते हैं। उद्धव-संदेश आपने सुना? वैसे संदेश तो कृष्ण का ही था, लेकिन संदेश लेकर गए जब उद्धव और वृंदावन पहुँचे तो ब्रजवासी मिलते हैं। वृंदावन वासी तो कृष्ण की प्रतीक्षा में थे लेकिन उनके बदले में और कोई आ गये। वैसे उद्धव भी कृष्ण जैसे ही दिखते हैं, दिखने में कृष्ण जैसे ही हैं, काले साँवले हैं। उनकी अजानुलंबित भुजायें भी हैं, वे स्वयं भी सौंदर्य की ख़ान हैं, इतना ही नहीं वे कृष्ण जैसे ही वस्त्र पहनते हैं। बल्कि वे कृष्ण के ही वस्त्र पहनते हैं, जैसे कृष्ण में पहन लिए वस्त्र कुछ बार, फ्यू टाइम्स तो वो दे देते थे कि उद्धव तुम पहन लो इसको। और वैसे ही रथ में (जैसे रथ में कृष्ण-बलराम बैठकर वृन्दावन से मथुरा आए थे) उद्धव वृंदावन जब आ रहे थे तो सभी ने दूर से देखा तो कहा,”आयो रे। आ गए,आ गए कौन? कृष्ण आ गए।” उन्होंने सोचा तो ऐसा किन्तु जब रथ और पास आ ही गया तो निराश हो गये बृजवासी। वे कहने लगे, गाने लगे, तुम क्यों आए हो? खैर आए हो तो स्वागत है, किंतु तुम कृष्ण को क्यों नहीं लाए? नहीं तो वापस जाओ और कृष्ण को ले आओ, कृष्ण को मिला दो हमें।
“ मिला दो श्याम से उद्धव तेरे गुण हम भी गाएंगे “।।
कीर्तन:
मिला दो श्याम से उद्धव
तेरे गुण हम भी गाएंगे ॥
गाइए आप भी अपने भाव व्यक्त कीजिए…
गोकुल को छोड़कर जब से
गए वापस नहीं आये ॥
खता क्या हो गई हमसे,
अर्ज़ अपनी मनाएंगे॥
मिला दो श्याम से उद्धव
तेरे गुण हम भी गाएंगे ॥
प्रीत हम से लगाकर के
बीसारा नंदनंदन ने ॥
चरण में शीश धर धर के
हम उनको मनाएंगे॥
मिला दो श्याम से उद्धव
तेरे गुण हम भी गाएंगे ॥
गाएंगे ……………
मिला दो श्याम से उद्धव
तेरे गुण हम भी गाएंगे ॥
फिर कभी आए गोकुल मे हमें दर्शन दिला देना॥
गाइए…..
हमें दर्शन दिला देना॥
मिला दो श्याम से उद्धव
तेरे गुण हम भी गाएंगे ॥
मिला दो श्याम से उद्धव
तेरे गुण तेरे गुण हम भी हम भी गाएंगे गाएंगे ॥
मिला दो श्याम से उद्धव
तेरे गुण हम भी गाएंगे ॥
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
गाते रहिए।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
गौर निताई, श्री श्री गौर निताई!
राधा कुंजबिहारी राधा कुंजबिहारी राधे!
राधा पंढरीनाथ,राधा पंढरीनाथ राधे!
प्रभुपाद श्रील प्रभुपाद!
निताई गौर हरि बोल, हरि बोल, हरि बोल, हरि बोल!
निताई गौर प्रेमानंदे…. हरि हरि बोल!
जय ॐ विष्णु-पाद परमहंस परिव्राजकाचार्य अष्टोत्तर-शत श्रील ए.सी.भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की जय!
अनंत-कोटी वैष्णव-वृंदा की जय!
नामाचार्य हरिदास ठाकुर की जय!
प्रेम से कहो…
श्री-कृष्ण-चैतन्य, प्रभु नित्यानंद, जय अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि-गौर-भक्त-वृंद की जय!
श्री-श्री-राधा-कृष्ण गोप-गोपीनाथ, श्याम कुंड, राधा कुंड, गिरि गोवर्धन की जय! वृंदावन-धाम की जय!
मथुरा-धाम की जय! द्वारिका धाम की जय!
जगन्नाथ-पुरी धाम की जय! पंढरपुर धाम की जय!
मायापुर धाम की जय! गंगा-माई की जय!
यमुना-माई की जय! तुलसी-देवी की जय!
समवेद भक्तवृदं की जय! हरिनाम संकीर्तन की जय!
ग्रंथराज़ श्रीमद् भागवतम की जय!
श्रील प्रभुपाद की जय!
उपस्थित समस्त भक्तवृंद की जय!
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले।
स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्॥
हे कृष्ण करुणासिन्धो दीनबन्धो जगत्पते।
गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तु ते॥
तप्तकाञ्चनगौराङ्गी राधेवृन्दावनेश्वरी।
वृषभानुसुते देवी प्रणमामी हरिप्रिये॥
वाञ्छा-कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः॥
“सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी ।
कर कटावरी ठेवूनियां ॥१॥
तुळसी हार गळां कासे पीतांबर ।
आवडे निरंतर हेंचि ध्यान ॥ध्रु.॥
मकरकुंडले तळपती श्रवणी ।
कंठी कौस्तुभमणि विराजित ॥२॥
तुका म्हणे माझे हेचि सर्व सुख ।
पाहीन श्रीमुख आवडीनें ॥३॥”
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् ।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
नमो महावदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते
कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः।।
कृष्णाय वासुदेवाय देवकी नन्दनाय च ।
नन्दगोप कुमाराय गोविन्दाय नमो नमः ॥
श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौर भक्तवृन्द।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय!
आप भी गाइए..
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय!
पुनः स्वागत है आपका।
आप जो पुनः पुनः आ रहे है , पुनः स्वागत है आपका ।
मैं भी आ ही रहा हूँ । तो हम आ रहे है या हमें कोई ला रहा है। अंतर है ना ? मैं तो समझता हूँ कि हमे कोई ला रहा है । कौन है वह? कौन है ?
“ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोण भाग्यवान जीव
गुरु-कृष्ण-प्रसादे पाय भक्ति-लता-बीज ।।” (चैतन्य-चरितामृत मध्य 19.151)
अनुवाद: “अपने कर्म के अनुसार, सभी जीव पूरे ब्रह्मांड में भटक रहे हैं। उनमें से कुछ उच्च ग्रह प्रणालियों में ऊपर उठ रहे हैं, और कुछ निचले ग्रह प्रणालियों में जा रहे हैं। कई लाखों भटकते जीवों में से, जो बहुत भाग्यशाली है, उसे कृष्ण की कृपा से एक प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु के साथ जोड़ने का अवसर मिलता है। कृष्ण और आध्यात्मिक गुरु दोनों की कृपा से, ऐसा व्यक्ति भक्ति सेवा की लता का बीज प्राप्त करता है।
हमको लाने वाले कौन है? कृष्ण हैं। लेकिन कैसे कृष्ण?
“हे कृष्ण करुणा सिंधु !” वे करुणासिन्धु हैं। इसका सबूत भी क्या है कि वे हमको यहाँ ला रहे हैं उनकी कथा श्रवण के लिए और उनका कीर्तन सुनने के लिए? उनकी कृपा के बिना यह नहीं होता । कुछ आपके पुण्य का फल भी हो सकता है, लेकिन आपसे पुण्य करवाने वाले भी वही हैं।
“ बहुत सुकृतांची ज़ोढ़ी मनु न मनु रे विठ्ठले अवढी “
एक पुण्य, दूसरा पुण्य; एक सुकृति, फिर दूसरा सुकृत्य जब इसका ग्रैंड टोटल हो जाता है तो फिर क्या होता है ? फिर हमें विट्ठल अच्छे लगने लगते हैं, कृष्ण और श्रीराम में प्रेम उत्पन्न होता है । आप जो यहाँ आ रहे हो , आप अपना कृष्ण से जो प्रेम है उसको भी प्रदर्शित कर रहे हो । वैसे आप दिखाना तो नहीं चाहते हो लेकिन कैसे टाला जा सकता है? कोई भी देख सकता है, हम भी देख सकते हैं आपके कृष्ण प्रेम को । कृष्ण से यदि प्रेम नहीं होता तो आप यहाँ क्यों आते?क्यों मरते यहाँ आने के लिए ?
आप ऐसा सोच सकते हो कि अभी कथा शुरू हो रही है? नहीं! नहीं! कथा तो बहुत पहले की शुरू हो गई है । ये कीर्तन है, फिर मंगलाचरण है और फिर भजन-कीर्तन है, यह भी कथा के अंतर्गत ही है, यह कथा ही है। एक तो कथा कही जाती है या कथा गाई जाती है ? कथा को कहते है या कथा को गाते हैं ? कीर्तन मतलब कीर्ति , भगवान की कीर्ति गाना, “कीर्तनीय सदा हरि:”। कथा भी कीर्तन ही है और कीर्तन तो कीर्तन है ही ।
कीर्तन के भी प्रकार है:- उसको कहते है नाम कीर्तन, रूप का कीर्तन, रूप की कीर्ति, भगवान के गुण का, गुणावली का। भगवान् कैसे हैं? “गुणार्णव” अथार्थ गुण के सागर हैं, गुणों की ख़ान हैं। जब गुणों की चर्चा होती है तो गुण-कीर्तन,नाम-कीर्तन,लीला-कीर्तन(भगवान के लीलाओं का कीर्तन), धाम-कीर्तन।
वृंदावन धाम की जय! द्वारका धाम की जय!
पंढरपुर धाम की जय!
धाम महात्म्य भी होता है, जैसे हम भागवत महात्म्य सुना रहे थे तो फिर धाम का भी महात्म्य है,कीर्ति है, कीर्तन है। फिर गुण का महात्मय है, महात्माओं का महात्मय है, भगवान के परिकरों का,भक्तों का महात्मय है। वैसे भागवत को “ ईशानु कथा “ भी बता रहे थे। ईश मतलब भगवान् और अनु अथार्थ उनके अनुयायी/परिकर/भक्त कहो, इन सभी का महात्मय है । यही तो है भागवत। हरि हरि!
हम जीव हैं और अभी हम सुन रहे हैं।वैसे सभी जीवों का भगवान से प्रेम है, यह भी सुना ही है । लेकिन एक बात नहीं सुनी या मैंने नहीं कहीं,
“श्रवण आदि शुद्ध चित्त करह उदय
नित्य सिद्ध कृष्ण प्रेम साध्य कभुनय “।।
भगवान से जो हम जीव का प्रेम है वो सुप्त है अभी । उसको कोई बाहर से बाजार में प्रेम नहीं मिलता। जैसे 5 kg प्रेम दे दो या 50 टन प्रेम चाहिए मुझे। जो धनवान है वो ज़्यादा में खरीद सकते है । वैसे प्रेम तो संसार में है ही नहीं। जीव का प्रेम भगवान से ही अब भी। “श्रवणादि शुद्ध चित्त करो उदय”,जब हम सुनते हैं, श्रवण करते हैं। श्रवण आदि मतलब श्रवण , कीर्तन , स्मरण , वंदन , पाद सेवनम,अर्चनम , वंदनम , दास्यं , साख्यम , आत्मनिवेदन।
हमने क्या कहा अभी-अभी ? नवधा भक्ति के नाम गिनाए, उसमे प्रमुख है श्रवण कीर्तन । श्रवण इत्यादि करने से प्रेम उदित होता है, जागृत होता है और प्रेम प्राप्ति ही वैसे जीवन का लक्ष्य है, प्रेममयी सेवा ही जीवन का लक्ष्य है । हरि हरि! समय तो सीमित होता ही है इसलिए कभी-कभी लोग कहते है की मरने के लिए समय नहीं है । वैसे अगर ये कथा सुनेंगे तो फिर मरना भी नहीं पड़ेगा। हाँ ये भी है कि अगर एक बार जन्म ले ही चुके हैं, तो एक बार ही मरना पड़ेगा, सिर्फ एक बार। यदि श्रवण, कीर्तन, वंदन अगर नहीं करेंगे तो पता है कितने जन्म हमारा इंतज़ार कर रहे है? हज़ारों- लाखों जन्म इंतज़ार कर रहे हैं। जन्म लेना अच्छा है क्या ? हाँ कह सकते हैं क्यूँकि तब तो स्वागत होता है । पर क्या मरना अच्छा है क्या? कोई कोई मुंडी हिला रहे हैं, हाँ या ना ? लेकिन मरना ही पड़ता है ।
श्रीकृष्ण भगवद गीता में कहते हैं :
“जन्म मृत्यु जरा व्याधि दुख: दोषानुदर्शनम्”
जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि – यह चार दु:ख के कारण हैं । इससे हम सदा के लिए मुक्त होंगे यदि भगवान की शरण में आयेंगे । कृष्ण ने कहा है न, कहा तो है लेकिन हमें क्या? कहा होगा तो कहने दो। कृष्ण ने कहा है,
“सर्वधर्मान् परित्यज्य माम् एकम् शरणम् व्रज
अहम् त्वम् सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।
अगर मेरी शरण में आओगे तो जितने भी पाप तुम किए हो, जाने-अनजाने में, पाप का तो फल भोगना ही पड़ता है अलग-अलग जन्म में, लेकिन मैं तुम्हें मुक्त करूँगा। हरि हरि!
पुनः कृष्ण कहे हैं कि मेरी गीता पढ़ो,मेरे वचन समझो। भगवद गीता/ भागवतम का श्रवण करो, सीखो समझो यह शास्त्र, यह विज्ञान। आत्मसाक्षात्कार के विज्ञान को समझो,सुनो,पढ़ो, मनन करो,”बोध्यन्तः परस्परं “ करो या आपस में चर्चा करो,इसको भलीभाँति या तत्वतः समझो ।
“जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन”॥ 9 ॥ (श्रीमद् भगवद्गीता 4.9)
अनुवाद: हे अर्जुन! जो व्यक्ति मेरे स्वरूप तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह शरीर त्यागने के पश्चात् इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।
मेरे जन्म और लीलाओं को,नाम-रूप-गुण-लीला धाम को जो तत्वतः समझता है/यथारूप समझता है या वैज्ञानिक तौर पर समझता है या शास्त्रोक्त रूप से समझता है। शास्त्रोक्त मतलब शास्त्र+ऊक्त , जो शास्त्रों में कहा है तो सत्य ही होना चाहिए। अर्जुन जब सुन रहे थे कृष्ण को तो सुनते-सुनते जब ये संवाद दसवें अध्याय में पहुंचा तो अर्जुन ने कहा,
“सर्वम एतम ऋतं मन्ये यन्मां वदसी केशव:”
हे केशव आप जो भी सुना रहे हो यह सत्य है। ऋतं मतलब सत्य, मन्ये मतलब मैं स्वीकार करता हूँ ।
“इदं शास्त्रं प्रमाणं ते ”
शास्त्र क्या है? प्रमाण है। शास्त्र में कहा है तो सत्य है। कृष्ण कहते हैं गीता/भागवत में , कई सारी अथॉरिटीज भी हैं:-
“ स्वयंभू नारद शम्भु कुमार कपिलो मनु
प्रहलादौ जनकौ भीष्मों बलिर व्यासकी वयं “।।
ये द्वादश भागवत हैं,शास्त्र आचार्य हैं। ये केवल सत्य ही कहते हैं,सत्य के अलावा कुछ नहीं कहते हैं ।
हमारी बात कैसी है ? जो भी कहते है झूठ ही कहते हैं । सत्य का पता ही नहीं है तो कहेंगे भी कैसे सत्य? सत्य सुना ही नहीं तो कैसे कहेंगे सत्य? भगवान सत्य है, भगवान है कि नहीं ? है कि नहीं? “अस्ति अस्ति” आपने तो ‘हरि बोल!’ कहा या ‘है है’ कहा। लेकिन संस्कृत में कहेंगे “अस्ति अस्ति” हाँ वे हैं । जो स्वीकार करते है, जिनको मंजूर है, जो अनुभव कर रहे हैं कि “भगवान हैं “, ऐसा जो कहते हैं कि “भगवान है” उनको “आस्तिक” कहते हैं और भगवान को न मानने वाले को “न+अस्ति+क” या नास्तिक कहते हैं ऐसा कहने वाले या करने वाले को।“क” मतलब कृतिक याने कार्य को। जितने भी नास्तिक हैं उनको तो भगवान् के संबंध में ज़ीरो कहते हैं। भगवान के संदर्भ में वे जो भी जानते हैं वह सारा झूठ है या रिलेटिव ट्रुथ कहते हैं, जो आज है वह सत्य कल नहीं है, रिलेटिव है।
हरि हरि!
रुक्मिणी मैया की जय!
रुक्मिणी है की नहीं? किसे पता?
रुक्मिणी मैया थी भी और हैं भी ।
रुक्मिणी द्वारकाधीश की जय!
प्रभुजी ने कहा कि हम कुछ द्वारकाधीश की लीलाएं सुनायेंगे तो ये सुननी थीं भी और हैं भी । घड़ी की ओर भी देखना पड़ रहा है ।आज आपके बीच पंढरपुर मंदिर के अधिकारी व्यवस्थापक मंडल यहाँ पहुँचे हैं । पंढरपुर को क्या कहते है? “भू वैकुंठ” अर्थात पृथ्वी पर वैकुंठ।
पंढरपुर धाम की जय!
वहाँ उनकी बहुत बड़ी योजना है जिसका नाम है “भूवैकुंठ”। वे अभी अपना कुछ समय के लिए प्रस्तुतीकरण करने वाले हैं आप सभी की उपस्थिति में।कथा तो मुझे सुनानी है ही, ये मैं कह चुका हूँ इसलिए भी। यह नहीं की अभी-अभी कथा प्रारंभ हुई है। कथा किस समय शुरू हुई? कितने बजे? कम से कम 7 बजे से कथा शुरू हो चुकी है।
बहुत समय पहले; नाम-कीर्तन, लीला-कीर्तन, आदि। कीर्तन तो चल रहा है नाम का या फिर लीला का, धाम का, हमारे पंढरपुर के प्रोजेक्ट का प्रस्तुतीकरण भी कीर्तन ही होगा। विट्ठल-रुक्मिणी, राधा पंढरीनाथ की प्रसन्नता के लिए ही कुछ योजना वहाँ बन रही है, उसके संबंध में सुनना भी कथा ही है। ‘मी एंड माय माइंड’ – मी यानी मेरा मन। उस टीम का बिल्कुल शुरुआत में ही परफॉर्मेंस होना था, लेकिन उनको बीच में रोका, उसको भी आपको जरुर देखना है, यह विशेष प्रस्तुतीकरण है।
आपका मन कैसा है? अर्जुन ने तो कहा था, “चंचलम् हि मन: कृष्ण” मेरा मन चंचल है। आपका भी है कि नहीं? मन को ऐसा बनाया ही है, लेकिन कृष्ण तो कहते हैं कि ‘मन निग्रह’ – माइंड कंट्रोल, ‘इंद्रिया निग्रह’ – सेंस कंट्रोल । हमारे हरेकृष्ण युवा भक्त एक छोटी-सी नाटिका प्रस्तुत करने वाले हैं तो उसको भी आपको देखना है और फिर आरती भी देखनी-सुननी है, आरती उतारनी है और प्रसाद लिए बिना कोई ( ऐसे बताने की आवश्यकता भी नहीं है) आध्यात्मिक/ दिव्य कार्यक्रम पूरे भी नहीं होते। यह कथा भी प्रसाद ही है, कीर्तन भी क्या है? प्रसाद है। प्रसाद मतलब क्या? प्रसाद मतलब कृपा। प्रसाद को प्रसाद इसलिए कहते हैं क्युकी वह कृपा होती है।
अर्जुन ने भगवत गीता को कृपा कहा, “ नष्टो मोहा स्मृति लब्धवा त्वत प्रसादात” , आपने जो गीता का संवाद/उपदेश सुनाएं हैं वह क्या है? प्रसाद। आपने मुझे प्रसाद खिलाया-पिलाया, ‘सॉन्ग ऑफ गॉड’ पिलाया। तो यह सब कृष्ण का कृपा प्रसाद ही है अलग-अलग रूपों में। यह नाटिका भी कहो, जो होने वाली है, ‘मी एंड माय माइंड’ यह भी कृपा ही है । यह सारी कृपा ,सारा प्रसाद आपके लिए उपलब्ध है ,प्रस्तुत किया जा रहा है।
रुक्मिणी मैया की जय!
जैसे श्रीकृष्ण प्रगट हुए ,वैसे ही रुक्मिणी ने भी अवतार लिया। रुक्मिणी का अवतार महाराष्ट्र में हुआ, कौंडिन्यपुर में। शुकदेव गोस्वामी इस कथा को सुनाएं थे तब वे उसे कुन्दिनपुर कहे हैं । अभी तो इसका नाम कौंडिन्यपुर ऐसा प्रचलित है । यह वर्धा और अमरावती के बीच है, नागपुर से दूर नही है, जहाँ रुक्मणी का जन्म हुआ । रुक्मिणी जन्मोत्सव भी होता है जैसे कृष्ण जन्मोत्सव होता है। जैसे जन्माष्टमी वैसे ही रुक्मिणी द्वादशी है, बस महीना अलग है। एक विदर्भ क्षेत्र है आज भी है जिसमें रुक्मणी प्रकट हुई, इसलिए रुक्मिणी का एक नाम वैदर्भी भी है। राजा भीष्मक की पुत्री रहीं रुक्मणी।’वरानना’ याने अतिसुंदर मुखमंडल वाली। इस रफ्तार से आगे बढ़ेंगे तो मंगल आरती तक, ब्रह्ममुहूर्त तक हम यही रहेंगे, सो वी हैव टू चेंज द गियर। रुक्मिणी जब छोटी ही थी तब उसको कृष्ण कथाश्रवण करने का अवसर प्राप्त हुआ क्योंकि उनके पिताश्री भीष्मक के दरबार में कई ऋषिगण, मुनिजन आया करते थे । वे पहले द्वारका जाते, फिर कौंडिन्यपुर आते तो कृष्ण की/ द्वारकाधीश की लीला कथा यहाँ आके सुनाते। फिर द्वारका जाते और वहाँ रुक्मिणी की कथा, लीला,रूप सुनाते ।
रुक्मणी ने कृष्ण के संबंध में सुन सुनकर, “ सा उपश्रुत्त्य मुकुंदस्य रूप वीर्य गुण श्रियः “ द्वारकाधीश के नाम, रूप, गुण, लीला ,धाम को सुनसुनकर, “ मे ऐने सदृशम पतिम” , अगर मेरे पति होंगे तो द्वारकाधीश ही होंगे। ऐसा संकल्प,ऐसा अपना मन बना लिया। किंतु उसका जो बड़ा भाई था उसका नाम था रुक्मी। रुक्मिणी के भाई रुक्मि ने विरोध किया रुक्मणी के प्रस्ताव का और उसकी चॉइस मैचमेकिंग थी कि, ‘मेरे बहन का विवाह होगा शिशुपाल के साथ’। वाह रे वाह! या बाप रे बाप क्या चॉइस है शिशुपाल के साथ। फिर विवाह की सब तैयारी शुरू हो गई, कौंडिन्यपुर् को पूरा ‘सम अलंकृत’ किया गया है। बारात भी प्रवेश कर रही है तो रुक्मिणी ने पत्र लिखा द्वारकाधीश को। उस पत्र में जो भी लिखा उसमें सात पैराग्राफ या 7 वाक्य है।
रुक्मणी का पत्र अपने हाथ से लिखा हुआ आज भी उपलब्ध है श्रीमद् भागवत के दसवें स्कंध के अध्याय संख्या 52 में(10.52.37 से आगे) “ श्रुत्वा गुणां भुवनसुन्दर शृण्वताम्” ऐसी शुरुआत की रुक्मणी ने पत्र में। आपके गुणों का वर्णन हे भुवनसुंदर! सुनकर, या सुने हुए वचन जब कर्ण विवरे मेरे कर्णों से हृदय प्रांगण में जैसे पहुंचे, उसीके साथ मेरा अंगतापम हुआ। मैं शांत और प्रसन्नचित्त बन गई हूं।” इस प्रकार कुछ गौरवगाथा की बातें कहते हुए पत्र की शुरुआत की और एक ब्राह्मण को भेजा। एक विशेष ब्राह्मण, जिसमें रुक्मिणी का विश्वास था, वह पत्र लेकर द्वारका पहुंचे और द्वारकाधीश को वह पत्र पढ़कर सुनाया। तो आप सोचिए ऐसा ऐसा रुक्मिणी का प्रस्ताव है, तो द्वारकाधीश ने उस ब्राह्मण को ही कहा, “ तथा अहमपि तत्चित्तो निद्रा च न लभे निशि“ । रुक्मिणी ने अपने पत्र में लिखा जबसे मैं आपके संबंध में सुनती आ रही हूं बस मतचितः मेरा चित् तो आप में ही लगा हुआ है। वैसे आप चोर तो हो ही और चोरों में अग्रगण्य हो। कई प्रकार के चोर हो आप केवल माखनचोर ही नहीं हो, आप चित् चोर भी हो। कैसे चोर? चित् चोर।
आपने मेरे चित् को चोरी की है, मेरा मन आपकी ओर ही दौड़ता रहता है, मैं आपका ही स्मरण करती रहती हूंँ। ये भाव जब पढ़े और सुने थे श्रीकृष्ण ने, तो वे कहते हैं, “ ओ! मेरा भी तो वही हाल है, ‘तत्चित्तो’ मेरा चित् तो रुक्मणी में है। उसका अगर मुझ में है, तो मेरा भी तो रुक्मणी में ही अटका हुआ है। इतना ही नहीं आप भी सुनकर हैरान हो सकते हो, लेकिन यह सुनकर आप यह नहीं समझना कि, ‘ओ कृष्ण भी तो हम जैसे ही हैं।’ उन्होंने क्या कहा? “निद्रा च ना लभे निशि” , मैं रात्रि के समय पलंग पर लेट तो जाता हूंँ लेकिन मुझे नींद नहीं आती । क्यों ? रुक्मणी का स्मरण मुझे आता रहता है । भगवान तैयार हैं रुक्मिणी को स्वीकार करने हेतु। वे रथ पे विराजमान हुए हैं, ब्राह्मण को भी बैठाये है और ‘तूफान’ (एक ट्रेन का नाम भी है शायद तूफान) तूफान की तरह तेज़ी से निकल गए। सायंकाल को प्रस्थान किये थे द्वारका से और प्रातःकाल पहुंच गए कौंडिन्यपुर।
यह सारी कथा बहुत विस्तार से है, आपको दिखाया भी जा रहा है कि कहाँ है द्वारका और कहाँ कौंडिण्यपुर। यह सारा डिस्टेंस,ओवरनाइट ट्रेन की तरह, रथ की सवारी करते हुए पहुंच गए। वहाँ स्वागत हुआ है कृष्ण का। अगले दिन सुबह जब बलराम उठे द्वारका में, तो देखते हैं कृष्ण अपने महल में नहीं है। वह कहाँ है? क्वासी क्वासी? ऐसा कुछ पूछताछ कर रहे थे,कोई बता तो नहीं पाया, पर बलराम भी सर्वज्ञ हैं, वे समझ गए कि जरूर वहाँ गए होंगे कौंडिन्यपुर। फिर अकेले ही गए, वहाँ तो युद्ध होने की भी संभावना है। शिशुपाल और उसकी कंपनी ‘चांडाल चौकड़ी’ जब वहाँ पहुंचेगी। तो कृष्ण( जो गए हैं रुक्मिणी के हरण के लिए) का जरूर विरोध होगा, युद्ध हो सकता है। तो बलराम छोटी सी सेना लेकर पीछे से आए और अब दोनों भी कृष्ण-बलराम कौंडिन्यपुर में है। सारा विदर्भ वहाँ पहुंच चुका है। राजपुत्री का विवाह है, रुक्मिणी, अ बिग नेम। वहाँ सभी का भाग्य उदय हुआ क्योंकि सभी को कृष्ण बलराम के दर्शन उपलब्ध हुए। सभी कृष्ण बलराम का कैसे दर्शन कर रहे थे? उसपे शुकदेव गोस्वामी कहते हैं कि उन्होंने क्या किया? “ नेत्रांजलिभी: वपुस् तन मुखपंकजम” श्रीकृष्ण बलराम के मुख् मंडल का, सौंदर्य का रसपान सारे विदर्भ वासी करने लगे। उन्होंने अपनी आंखों को प्याला बनाया, जैसे कुछ पीना होता है तो गिलास में जूस आदि।
प्याले भर भर के पी लिया। जैसे हमारे आश्रम में ब्रह्मचारी करते हैं जब खीर का वितरण होता है तो प्याले भर भर के खाली कर देते हैं। हर बार जब खीर लेकर परोसने वाला पहुंच जाए तो, ‘ ऐ प्रभु, प्रभु, प्रभु और दो।’ इस प्रकार सारे विदर्भ वासी कृष्ण बलराम के सौंदर्य का पान कर रहे थे। कृष्ण बलराम की जय! ऐसे रुक्मणी को ब्राह्मण के आने से कृष्ण के आगमन का पता चला। इसलिए वह प्रतीक्षा कर रही थी, उसको जाना था अंबिका के मंदिर में। जैसे उस घराने की परिपाटी थी अंबिका का दर्शन-पूजा और फिर विवाह संपन्न होगा ,ऐसा होता रहता था। अब जा रही है, कई सारे पुरोहित हैं, मंत्रोच्चारण हो रहा है, कई सारे वाद्य हैं,शोभायात्रा ही जा रही है अंबिका के मंदिर की ओर। पत्र में वैसे जैसे कृष्ण ने पूछा होगा कि ,” तुम मुझे बुला तो रही हो, लेकिन हम मिलेंगे कहाँ? मीटिंग पॉइंट कौन सा होगा?” रुक्मणी बड़ी होशियार स्मार्ट लेडी, उसने लिखा था कि मैं अंबिका के दर्शन और पूजा के लिए जाऊंगी, वहां से लौटते समय महल की ओर, इसके बीच में हम मिलेंगे। फिर आपको जो भी करना है करो, लेकिन मिलेंगे वहाँ ही।
रुक्मणी जा रही थी, और शुकदेव गोस्वामी सारी कथा सुना रहे हैं राजा परीक्षित को । उस कथा में सारा संसार आ धमका है या पहुंचा है। रुक्मणी अपने चरणों से ही चलकर जा रही थी, कहां जा रही थी? अंबिका के चरणों की ओर जा रही थी । तब वह कृष्ण के चरण कमल का स्मरण कर रही थी। एक तो उसके खुद के चरणों से चलती हुई जा रही थी, अंबिका के चरणों की ओर, लेकिन स्मरण किसका हो रहा है? कृष्ण के चरण कमल का । “नमस्ते पंकजाङ्गगृहे” । प्रार्थना करती है, “ भू य: पतिर् मे भगवान” मुझे पति रूप में भगवान प्राप्त हो। आपकी कोई जरूरत नहीं है।
वैसे हम जब ऐसा कहते हैं तो पुरुष मंडली सोच सकती है कि “हम तो पुरुष हैं”, फिर और एक पुरुष को तो हम पति के रूप में तो हम नहीं चाहेंगे। अभी समय नहीं है इसलिए संक्षिप्त में यह कहा जा सकता है कि वैसे इस संसार में पुरुष एक ही हैं और वे हैं — “गोविन्दम आदि पुरुषं”, बाकि सब “स्त्रियां” है। आत्मा स्त्री है, प्रकृति है। प्रकृति और पुरुष ऐसे दो होते हैं । पुरुष एक ही है- वो हैं ‘भगवान’ और बाकी सारे जीव- चाहे स्त्री हैं या पुरुष हैं या जो भी हैं , कुत्ते-बिल्ली भी हैं, आत्मा हैं तो वे सब स्त्रियां हैं। हरि हरि!
प्रार्थना/उपासना के उपरांत रुक्मिणी जब लौट रही है अपने महल की ओर तो कैसे चल रही है? उसका ऐसा वर्णन आता है- “सुमाध्यमा धिर्मोहिणीम कुण्डल मंडित आननाम”
आनन मतलब मुख/चेहरा। यहाँ चेहरे की शोभा बताई है, वे कुण्डल पहने हुई हैं और भी कई सारे अलंकार पहने हुई है, लेकिन कुण्डल का उल्लेख यहाँ विशेष हुआ है और हंस जैसी चाल चल रही है।
इस समय शिशुपाल के साथ कई सारी उसकी मित्र-मंडली की जो बारात आयी थी वे सब उस मार्ग के दोनों तरफ खड़े हैं या बैठे हैं, हाथी की पीठ पर या घोड़े पर सवार होकर बैठे है । सभी का ध्यान केवल और केवल रुक्मिणी के ऊपर है क्यूंकि रुक्मिणी का प्रभाव ही ऐसा है। उनके सौंदर्य का तो क्या कहना? और जिस प्रकार से वह चाल चल रही है, सभी का ध्यान आकृष्ट कर रही है। इसके पीछे यही उद्देश्य है कि वहाँ श्रीकृष्ण कभी भी आ सकते है और किसी को पता नहीं चलेगा कि कृष्ण आये हैं। ये बैठे हुए जो भी थे राजा-महाराजा वे कृष्ण के एक प्रकार से शत्रु ही थे या दानव प्रवृत्ति के थे। उनको सुध-बुध भी नहीं थी कि वे कहाँ बैठे हैं? उनके हाथ से ढाल और तलवारें गिरने लगीं, पूरे मग्न हैं रुक्मिणी को देख कर और कई तो गिरने लगे धड़ाम-धड़ाम करके हाथी के पीठ पर से और घोड़ो पर से। इतने में रुक्मिणी ने गरुड़ध्वज देखा और समझ गई कि यही रथ है, इसी रथ में कृष्ण हैं। वह धीरे-धीरे उसी रथ की ओर रुक्मिणी भी जाने लगी और कृष्ण भी आने लगे और फिर आ ही गए। थोड़ी सहायता के साथ रुक्मिणी को रथ में बिठा लिए। आप यह देख भी रहे हो, तस्वीर में पहला मिलन हो रहा है रुक्मिणी-द्वारकाधीश का। रुक्मणी द्वारकाधीश की जय! इसीके साथ कृष्ण वहाँ से तेजी से निकल पड़े, प्रस्थान किये। हरि हरि! बड़ा विस्तार से वर्णन है। लेकिन अब बहुत देर होगई, अब “चिड़िया चुग गयी खेत”। बाकि सब ताकते ही रह गए। युद्ध भी होने वाला है और हुआ भी। कृष्ण-बलराम अपनी सेना के साथ द्वारका में पहुंच गए। द्वारका धाम की जय! वहाँ पर “ शुभमंगल सावधान “ हुआ।
“यमब्रह्मा वरुनेंद्ररुद्रमरुतस श्रणवंती दिव्येसवै
वैदे साङक्रमोपनिषदै गायंती यमसामग:
ध्यानावस्थित तद्गतेन् मनस: पश्यंति
यमयोगिनौ विदुर देवः न दानवः।।
तो वहाँ विवाह-यज्ञ संपन्न हुआ। इस प्रकार भगवान की तो 16,108 रानियां हुईं। उसमें से पटरानी जो हैं वह हैं रुक्मिणीं, रुकमिणी महारानी की जय! इस प्रकार भगवान् ने प्राप्त किया रुक्मिणीं महारानी को। वैसे गुजरात के लोग कहते हैं कि श्रीकृष्ण गुजरात के हैं क्यूंकि उन्होंने बहुत समय द्वारका में बिताया है,करीब 100 वर्षो तक। कृष्ण कैसे हैं? गुजराती। फिर आप क्या कहेंगे? रुक्मिणी मराठी हैं।
एक समय द्वारका में किसी कारणवश रुक्मिणी रूठ जाती हैं। हम कारण जानते हैं लेकिन अभी नहीं कहेंगे। मानिनी बन जाती है, मान करती है और इसका परिणाम ये निकलता है कि वह घर द्वार या महल छोड़कर, द्वारिका छोड़कर वहाँ से निकल जाती है। फिर क्या कहना? द्वारकाधीश बड़े ही चिंतित हुए और खोजने लगे, रथ में विराजमान हुए और पूरी दुनिया में ही कहो, खोजने लगे। उन्होंने फिर शायद अंदाज़ा लगाया कि रुक्मिणी महाराष्ट्र की हैं तो महाराष्ट्र की ओर गयी होगी और उनका अंदाज़ा सही निकला। रुक्मिणी भ्रमण करते-करते पंढरपुर पहुँच जाती है। वहाँ एक वन है: दिंडीर वन, चंद्रभागा के तट पर आज भी है। वहाँ एक मंदिर भी है जिसको लखुबाई( लक्ष्मी या रुकमिणी) के नाम से जाना जाता है। श्रीकृष्ण रुक्मिणीं को खोजते हुए पंढरपुर पहुँचे उसी वन में। खूब समझाया- बुझाया किन्तु भगवान् पूरे सफल नहीं हुए। हरि हरि! आप देख सकते हो इस चित्र में रुक्मिणीजी ध्यान कर रही हैं और द्वारकाधीश आ रहे हैं। यह सारी वार्ता भी मैंने अलग से एक ग्रन्थ में लिखी है, उसका नाम है ‘भूवैकुण्ठ’, जो मराठी का ग्रंथ भी है। शायद स्टॉल में उपलब्ध होगा,आप उसको ले सकते हो। रुक्मिणी को मानाने में पहली बार में वह सफल नहीं हो रहे थे, इतने में उनको स्मरण आया कि उन्होंने पुंडलिक को वचन दिया था, अतः पुण्डलिक को मिलने गए। पुंडलिक थोड़े व्यस्त थे अपने वैष्णव माता-पिता की सेवा कर रहे थे। भगवान् जाते हैं और कहते हैं क्या? “मैं अंदर आ सकता हूँ?“ पुंडलिक ने कहा,”नहीं अभी नहीं, आप इंतज़ार करिये और उनको एक ईंट दे दी कि आप इस पर खड़े रहिये, मैं अपने माता-पिता की सेवा कर रहा हूँ।” ईट पर खड़े भगवान् इसलिए उनका नाम विठ्ठल हुआ।
“विठ्ठल!विठ्ठल!पांडुरंगा! गौरांगा!”
अंततोगत्वा “महायोग पीठे, तटेभीमरथ्या” पंढरपुर को महायोग पीठ कहा गया है। भगवान् जहाँ विराजमान रहते हैं उस स्थली को महायोग पीठ कहा है। मायापुर में भी योगपीठ है। शंकराचार्य वैसे कह रहे हैं : महायोग पीठे तटे भीम रथ्या। चंद्रभागा का दूसरा नाम है भीमरथी।
“ भीमा आणि चंद्रभागा तुझा चरणी च गंगा” (मराठी श्लोक ) भीमाशंकर से चंद्रभागा का उद्गम स्थान है ।
“ वरम दातुम् पुंडरिकाय मुनिंद्रे “, शंकराचार्य ऐसा इतिहास लिख रहे हैं। भगवान् पंढरपुर क्यों आये? रुक्मणिनी को ढूंढ़ने- मिलने भी आये थे और साथ ही “वरं दातुम् पुण्डलिकाया” पुण्डलिक को वरदान देने के लिए।
“ समागत्य तिष्ठनतं” तो भगवान् आये और विराजमान हुए। “परभ्रम लिंगम भजे पाण्डुरङ्गम” ।
मुझे यह बात कहनी थी रुकने से पहले कि हमारा पंढरपुर पर एक प्रस्तुतीकरण है कुछ ही मिनटो में। पुंडलिक ने फिर दर्शन-स्वागत, पूजा-अर्चना सब की हुई है। भगवान् के दर्शन के लिए आभार भी माने होंगे ही और एक विशेष निवेदन किया जैसे आपने मुझे यहाँ आकर दर्शन दिया, तो प्रभु आप यहीं रहोगे। भविष्य में जितने भी लोग पंढरपुर आएंगे – पुणे से ,सतारा से,नागपुर से, कोल्हापुर से, यहाँ से,वहाँ से, उन सबको भी दर्शन होगा ना? आप यही रहिये।
“अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज ।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय:” ॥ ६३ ॥ (श्रीमदभागवतम 9.4.63)
अनुवाद: — भगवान ने ब्राह्मण से कहा: मैं अपने भक्तों के पूर्ण नियंत्रण में हूँ। वास्तव में, मैं बिल्कुल भी स्वतंत्र नहीं हूँ। चूँकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूरी तरह रहित हैं, इसलिए मैं केवल उनके हृदय के भीतर ही विराजमान हूँ। मेरे भक्त की तो बात ही क्या, मेरे भक्त के भक्त भी मुझे बहुत प्रिय हैं।
भगवान ने कहा है कि मैं अपने भक्तों के अधीन हूँ। यह निवेदन जब पुण्डलिक ने किया तो भगवान ने कहा,”तथास्तु! मतलब यथार्थ में ऐसे ही हो।” फिर भगवान् पंढरपुर में रुके रहे। वैसे और एक विस्तार से द्वारका भी लौटे हैं और वहाँ की लीलाएं आगे संपन्न होती रहीं। लेकिन द्वारकधीश पंढरपुर को नहीं छोड़े और आज तक द्वारकाधीश पंढरपुर में ही विराजित है। ये पंढरपुर धाम का और वहाँ के विग्रह का वैशिष्ठ है। भगवान जो “समभवामि युगे युगे” करके आये थे, लीला खेले द्वारका में भी और फिर पंढरपुर आये तो वहीं रह गए। तुकाराम महाराज ने कहा, “ऐसा कोई समझता है या ऐसा बकवास करता है कि इस विग्रह को किसी मूर्तिकार ने बनाया होगा और फिर प्राण- प्रतिष्ठा करके आराधना होती रही उस विग्रह की। ऐसा कोई सोचता है या बोलता है तो उसकी जुबान में कीड़े पड़े। कोई कहेगा या समझेगा कि किसी मूर्तिकार ने इनको बनाया या कहीं जयपुर या किसी स्थान से लेकर आये हैं और यहाँ प्राणप्रतिष्ठा हुई और फिर आराधना शुरू हुई तो ऐसा नहीं हैं । यदि ऐसा कोई कहता है तो उसका मुख कीड़े-मकोड़ो से भर जाये। फिर आखिर में रुक्मिणीं भी शांत हुईं, तृप्त हुईं और प्रसन्न हो गयी द्वारकाधीश के साथ। पहले द्वारकधीश विराजमान हुए अपने वेदी पर परंतु रुक्मिणीं जी उनके साथ ही विराजमान क्यों नहीं हुई ? क्यूंकि वह थोड़ी देरी से आयी इसलिये उनके लिए अलग से मंदिर बनाया है। इसलिए पहले हम विठ्ठल जी का दर्शन करते हैं और फिर रुक्मिणीं जी का भी दर्शन करते हैं। हरि हरि! श्री विठ्ठल रुक्मिणीं जी की जय!
उसी विट्ठल-रुक्मिणी धाम में इस्कॉन ने वैसे राधा पंढरीनाथ की स्थापना की है। श्रील प्रभुपाद की जय! श्रील प्रभुपाद घाट भी बनाया है। आप सभी ने देखा है श्रील प्रभुपाद घाट पंढरपुर में ? पंढरपुर को देखा किसी ने? आप जाते हो पंढरपुर। ये भक्त महाबलेश्वर जाते हैं, पंढरपुर में क्या है ? पंढरपुर भी जाया कीजिए। कौन-कौन गए है पंढरपुर ? आप जो पंढरपुर जाते हो तो वहीं पर इस्कॉन का प्रोजेक्ट कई वर्षो से बन रहा है और कुछ बना है कुछ शेष भी है। हरिकीर्तन प्रभु और उनके संगी-साथी इसी संदर्भ में आपसे कुछ कहेंगे उसके संबंध में, धीरज धरके बैठे रहिये। कथा चल ही रही है, वो समाप्त नहीं हुई है। धिस् इज़ पार्ट ऑफ द कथा।