
Srimad Bhagavatam HADAPSAR-25-31-Day-5
25-12-2022
ISKCON Pune
आज के आनंद की जय!
आनंद आया ? किसी को कोई परेशानी ? एम्बुलेंस बुलाये ?
आप तो मयूर की तरह नृत्य कर रहे थे । नृत्य करना स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा है। हरि हरि! क्यों नहीं ? आत्मा के लिए तो यह सर्वोत्तम है ही। “ ययात्मा सुप्रसीदति “ कहा गया है, इससे आत्मा प्रसन्न होती है। हरि हरि! आप स्वयं भी कोई बात सीखे कथा से, तो ऐसा कह सकते हो कि हम कीर्तन करना सीखे या कीर्तन के साथ नृत्य करना भी हमने सीखा। इतना भी सीखा अगर हमने तो बहुत कुछ या सब कुछ सीखा वैसे। हम आपको कथा उपदेश सुनाते ही रहते हैं, ताकि आप क्या करोगे? आप फिर नाचोगे , गाओगे।
हरि हरि! गौरांग!
ॐ नमः भगवते वासुदेवाय!
इसका मतलब आप समझते हो न ? आप सब समझते हो तो मुझे और सभी वक्ता को अच्छा लगता होगा कि जो उन्होंने बात कही उसको समझ रहे हैं श्रोता। हम कई सारे बातें कहते है सुनते हैं लेकिन बहुत बार उसको समझते नहीं कि क्या कह रहे हैं? यह तो बड़ी फॉउण्डेशनल बात या मन्त्र है,
“ॐ नमः भगवते वासुदेवाय” , वासुदेव को नमस्कार है।
‘ॐ’ का उच्चारण करने से हम भगवान् को सम्बोधित करते हैं। “ॐ प्रणवः सर्ववेदेषु” , ‘ओम्’ को प्रणव मंत्र कहते हैं, ‘नमो’ मतलब नमस्कार। ‘नमः’ का हुआ नमो, संधि के कारण। ‘भगवते’ मतलब भगवान को कहना है,अन्टू द लार्ड । फिर भगवान् का भगवते होता है। भगवान वासुदेव को नमस्कार और फिर भगवान् को वासुदेव क्यों कहते होंगे? इसके कई कारण हैं, अर्थ या भावार्थ हैं। एक सरल सा तो यह है कि वसुदेव के पुत्र हैं इसलिये वासुदेव। फिर आप कहोगे वे कृष्ण हुए। हाँ! कृष्ण तो हुए ही लेकिन वासुदेव दो हैं। क्यूंकि वासुदेव के दो पुत्र तो बच गए थे, बाकी ६ का क्या हुआ आप जानते ही हो लेकिन जो दो बच गए वे दोनों भी वासुदेव कहलाते हैं क्योंकि वे वसुदेव के पुत्र हैं। एक है कृष्ण और दूसरे कौन होंगे ? बलराम। कृष्ण और बलराम यह दोनों वासुदेव है। हरि हरि! भागवतम का पहला श्लोक या पहला मंत्र तो यही है : “ॐ नमः भगवते वासुदेवाय”।
“कृष्णाय वासुदेवाय देवकी नन्दनाय च ।
नन्दगोप कुमाराय गोविन्दाय नमो नमः”।
तो ॐ नमः भगवते वसुदेवाय के साथ हम प्रार्थना भी करते है नमस्कार भी करते हैं कृष्ण को। हो सकता है कुछ लोग राम को भी नमस्कार करते होंगे, “श्री रामाय नमः” या फिर “शिवाय नमः” भी चलता है। यहाँ पर हम एक प्रार्थना को खोल करके बैठे हैं ,ज्यादा समय तो दे नहीं पाएंगे लेकिन ये बड़ी ही महत्वपूर्ण प्रार्थना है। यह श्रीमद भागवत के प्रथम स्कंध के आठवे अध्याय में, ये आपके लिए गृहकार्य है और वह है कुन्ति महारानी की प्रार्थनायें। श्रीमद भागवत में कई सारी प्रार्थनाएं हैं। भागवत की पहली प्रार्थना है कुन्ति महारानी की प्रार्थना और भी कई सारी प्रार्थनाएँ हैं वह तो नहीं कहेंगे। दर्जनों प्रार्थनाएँ प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण हैं । कुन्ति महारानी की जय! पाण्डवों की माताश्री हैं कुन्ति । कृष्ण के पिताश्री वासुदेव , हमने गलत कहा , हमें सावधान होना चाहिए। एक है वसुदेव और दूसरे हैं वासुदेव। यह दो अलग अलग व्यक्तित्व है। वसुदेव पिताश्री हैं और वासुदेव पुत्र है, श्रीकृष्ण वासुदेव हैं। कृष्ण के पिता वसुदेव और वसुदेव की बहन है कुन्ति महारानी। कुन्ति के पुत्र हैं फिर ३ पाण्डव (भीम अर्जुन और युधिष्ठिर महाराज) और माद्री के दो पुत्र रहे नकुल और सहदेव। कुन्ति के भाई वसुदेव के पुत्र कृष्ण बलराम हैं और कुंती के पुत्र ये पाण्डव हैं। तो आप समझ सकते हो रिलेशनशिप, कृष्ण की बुआ हैं कुन्ति महारानी और इस प्रकार से कृष्ण बलराम और पाण्डव भाई-भाई हैं । भगवान ने अपनी लीला में ऐसे भी सम्बन्ध स्थापित किये हैं,किसी के कुछ बनते हैं तो किसी के कुछ।
“त्वमेव माता च पिता त्वमेव: त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव:।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव: त्वमेव सर्वं मम देव देव:”।।
और इतना ही नहीं हम भी कृष्ण के कुछ लगते हैं। हम भी किसके है? आई चे कि बाबा चे ? फिर वैसे ब्रह्मा, पहले जीव इस ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा हैं। एक प्रकार से हम सारे जीव ब्रह्मा के घराने के हैं। बन्दर की औलाद नहीं है हम, जैसे डार्विन ने अपनी थ्योरी में समझाया है और सभी लोग मुंडी हिलाकर के कहते है “हाँ हाँ डारविंस थ्योरी ऑफ़े ऐवोलुशन, इवॉल्व होते हुए हम जीवात्मा या अमीबा आदि बने”, लेकिन हमारा बा अमीबा नहीं, हमारा बा विठोबा है। सबसे छोटा यूनिट या लिविंग एंटिटी ‘अमीबा’ फिर धीरे धीरे बड़ा हुआ, विकसित हुआ और विकास होते-होते वानर बन गया। बन्दर से नेक्स्ट वर्जन कौन? मनुष्य बन गया। तो ऐसे डार्विन का कहना है कि हम बन्दर की औलाद हैं। डार्विन का आपने चित्र देखा है कभी ? वह बन्दर जैसा ही दिखता है। मैं क्षमा चाहता हूँ की मैंने उसको सम्मान नहीं दिया, वह हमारे बीच में है भी नहीं वैसे। तो हम किसके हैं ? “ विठ्ठू माज़ा लेकुरवाडा संगे गोपालाचा मेढ़ा “ इससे स्पष्ट हो गया भगवान् लेकुरवाडे हैं, उनकी कई संतानें हैं। आजकल लेकुरवाडी इज़ नॉट अल्लाउड । ‘अष्ट पुत्र सौभाग्यवती’ अब नहीं होता। ‘हम दो हमारे दो’ इसे लेकुरवाड़ा नहीं कहते हैं। हम सब जो संताने हैं भगवान् की इसलिए फिर हम सब भाई-भाई हो गए कि नहीं? हम सब भाई-भाई या भाई-बहन हैं, हमारे पिता एक हैं।
‘हिंदी चीनी भाई भाई’, हम जब छोटे थे तो पूरे भारतवर्ष के स्कूल के बालकों को सभी अध्यापक बुलवाते थे ‘हिंदी चीनी भाई भाई’। हम इतने छोटे थे और भाषा का भी उस समय इतना ज्ञान नहीं था । महाराष्ट्र के खेडगांव का नाम अरवाडे है। वे कह तो रहे थे हिंदी चीनी भाई भाई लेकिन मैं सोच रहा था कि हिंदी तो भाषा है और चीनी तो खाने की शक्कर तो ये भाई भाई कैसे हो सकते हैं ? यह मेरा प्रश्न था। फिर थोड़े बड़े हो गए हम तो समझ में आया कि हिंदी मतलब हिंदुस्तान के लोग और चीनी मतलब चीन के लोग। भारत के लोग और चीन के लोग भाई-भाई। तो भी पूरा समझ नहीं आ रहा था। अगर पिता एक है तो भाई-भाई कहा जाता है। मैं सोच रहा था कि वो एक पिता कौन हैं ? चीन के सभी लोग और भारत के सभी लोग के एक पिता कौन हैं ? क्या यहाँ के राष्ट्रपति कॉमन पिता हैं सभी के? या वहाँ के राष्ट्रपति पिता हैं सभी के ? नहीं नहीं, ऐसा नहीं है बिलकुल भी। मैं फिर और भी बड़ा हुआ, श्रील प्रभुपाद की जय! और श्रील प्रभुपाद से मिला। श्रील प्रभुपाद भगवद्गीता को समझाने लगे और मैं सुनता रहा। वहाँ प्रभुपाद समझाये, “ अहं बीजप्रदः पिता”
कृष्ण गीता में कहे हैं :-
“सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: सम्भवन्ति या: ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता” ॥ ४ ॥ (श्रीमद भगवत गीता : 14.4 )
अनुवाद: हे कुंती पुत्र! यह समझ लेना चाहिए कि समस्त जीव-योनि इस प्रकृति में जन्म लेने से ही संभव होती हैं और मैं ही उनका बीज-दाता पिता हूँ।
सबके पिता कौन हैं ? श्रीकृष्ण हैं सभी के पिता। हम कृष्ण पक्ष के होने चाहिए, फिर हम जीतेंगे भी। इसलिए भी कहा है, “वसुधैव कुटुंबकम”। ये एक प्रकार का वेद वाक्य है,फाउंडेशनल स्टेटमेंट। वेदवाणी ही है, आप सुने हो ? सुने तो होंगे लेकिन समझते नहीं होंगे सभी। सब समय सभी नहीं समझते। “वसुधा” मतलब पृथ्वी जिसे वसुंधरा भी कहते हैं। “वसु” मतलब संपत्ति और संपत्ति को धारण करने वाली पृथ्वी माता की जय!
कुटुंब’ तो आप जानते हो, परिवार। तो यहाँ भी ‘एव’ का उपयोग भी हुआ है, वसुधा+ एव+कुटुंबकम। ‘एव’ मतलब क्या होता है संस्कृत में? ही या सिर्फ़। वसुधा एव कुटुम्बकम मतलब हम सब वैसे एक कुटुंब के हैं, बल्कि एक ही कुटुंब के हैं। “उदार चरितानाम् तु” , तो जो उदार दिलवाले हैं, विशाल दृष्टि जिनकी हैं या उच्च विचार वाले जो लोग हैं, सिंपल लिविंग और थिंकिंग कैसा? हाई थिंकिंग जिसका है। तो उच्च विचार वाले कैसा सोचते हैं? वसुधैव कुटुम्बकम। लेकिन दूसरा भी एक प्रकार है जो उसी मंत्र में कहा है,’अयम निज:’, ये लोग मेरे हैं; ‘अयम निज: परः वेत्ति’,ये लोग पराये हैं। ‘गणन: लघुचेतसाम्’ , उन लोगों की गणना ये अपने, ये पराए, ये जो विचार हैं उनकी गणना लघु चेतसाम् में है। ‘लघु’ मतलब लघुत्तम, साधारण विभाजक। एक लघु होता है और एक लघु का उल्टा होता है, ‘गुरु’- गुरु मतलब भारी/ वजनदार। लघु मतलब हल्का या हलकट भी हो सकता है। जो लघुचेतसां वाले हैं, संकीर्ण विचार जिनका है, या नीच विचार जिनका है वे ऐसा सोचते हैं कि ये हमारे हैं, ये पराये हैं। हरि हरि! ये सत्य नहीं है। हम सब एक हैं, हिन्दी- चीनी भाई-भाई। केवल हिन्दी-चीनी ही भाई-भाई नहीं है, यूक्रेनियन- रशियन भी भाई-भाई हैं। विश्वबंधुत्व – एक अच्छा शब्द हम सुने,विश्वबंधुत्व। कैसा बंधुत्व? विश्व बंधुत्व । मराठी में भी चलता है, ‘हे विश्वची माझे घर’ । ख़ास करके हम संन्यास जब लेते हैं, घर को छोड़ते हैं, एक घर को छोड़ते हैं और सारे विश्व भर में भ्रमण करते हैं तो उनके लिए वे अनुभव भी करते हैं, विश्वची माझे घर। यह विश्व ही मेरा घर हैं ।
“मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत्।
आत्मवत् सर्वभूतेषु, यः पश्यति सः पण्डितः।। “
यह तो मुझे सब नहीं कहना था लेकिन ऐसा ही होता है। कुंती महारानी की प्रार्थना लेकर बैठे हैं लेकिन फिर ये व्याख्या शुरू हो गई है। इसको कहकर फिर पुनः लौटते हैं ,आज के विषयवस्तु की ओर।
“यः पश्यति सः पण्डितः” कहते हैं, मतलब ऐसा जो देखता है, ऐसा जिसका दृष्टिकोण है,वह व्यक्ति हैं पंडित, पांडित्यपूर्ण। कौन ज्ञानवान है? ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु,’ यह उच्च विचार है। आत्मवत् में ‘आत्मा’ मतलब आत्मा और ‘वत्’ मतलब जैसा। याने आत्मा के जैसा। ।सर्वभूतेषु मतलब सभी जो जीव है, वे मानो मैं ही हूँ या वे मेरे जैसे ही है या मेरे ही है। क्योंकि वे कृष्ण के हैं, मेरे कृष्ण के हैं, वे भी मेरे कृष्ण के हैं, ये विचार बहुत उच्च विचार हैं ।आत्मवत् सर्वभूतेषु , इसको आधा मिनट में आप पूरा नहीं समझोगे जो मैंने समझा है,सुझाव भी दिया। और दूसरा क्या है ? ‘मातृवत् परदारेषु’,अगर आप शादीशुदा हैं तो एक के अलावा,अपनी धर्मपत्नी के अलावा, बाकी जो स्त्रियों हैं वे मातृवत् हैं, माँ के समान है; यह हमारी संस्कृति है। सिविलाइंस्ड मतलब सुसंस्कृत या सभ्य । लेकिन आजकल ऐसा कहाँ है विचार? मातृवत् परदारेषु। बाकी कि संस्कृतियों में ऐसा उच्च विचार,ऐसे वचन नहीं मिलेंगे, कही नहीं। और भी तथाकथित धर्म हैं,शास्त्र हैं, बाइबल- क़ुरान ये- वो, परंतु इस प्रकार के विचार तो केवल वैदिक वांग्मय में हैं। वाक् से वांग्मय; ये वाक्य, दूसरा वाक्य, तीसरा वाक्य ।वाक्य ही वाक्य ऐसे “दुखमय आनंदमय वांग्मय”। केवल वैदिक वांगमय में ऐसे विचार उच्च विचार और वैदिक वांग्मय ही वैसे भगवान के विचार है। वैदिक वांग्मय की रचना करने वाले अपौरुषेय हैं, मतलब इस संसार के किसी पुरुष या स्त्री ने उसकी रचना नहीं की है, वह अपौरुषेय हैं। मतलब गोविंदम आदि पुरुष ने दिए हुए हैं।
फिर आगे वही बात कही है। “लोष्ठवत् परद्रव्येषु”, औरों का धन लोष्ठवत्/कूड़ा- करकट। उपरवाले की इच्छा से जो भी प्राप्त होता है उसमें संतुष्ट और औरों का द्रव्य लोष्ठवत् /कंकड़/ पत्थर/ या कूड़ा करकट मानें।
“ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥”
ये सारी संपत्ति के स्वामी तो भगवान है। ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्’ । हमारी अर्थव्यवस्था के पीछे यह विचार है। मैं और भी आगे कह ही रहा हूँ। तो ईशोपनिषद नामक उपनिषद का यह पहला मंत्र है।
“ईशावास्यम” पहले मंत्र की शुरुआत ही ईशावास्यम से है। अतः उस उपनिषद को नाम ही दिया है “ईशोपनिषद”। पहला शब्द है ईश, यह संसार में जितनी भी संपत्ति है वह ईश की है, परमेश्वर की है,ईश्वर-परमेश्वर की है। इसलिए उन्होंने जो हमें दिया हुआ है, हमें प्राप्त है उसी से संतुष्ट होना चाहिए।
“तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्”, हाथ न लगाओ, हाथ ऊपर। औरों का जो धन हैं क्योंकि तुम्हारे बाप के बाप या विठोबा भगवान है उसके तुम अकेले पुत्र नहीं हो। पैतृक संपत्ति का विभाजन उतने हिस्सों में होना चाहिए जितने पुत्र है या पुत्रियां है। ताकि हर एक को संपत्ति का लाभ मिले, वे संपत्ति से लाभान्वित हों,हरि हरि! इन सब विचारों का न तो प्रचार, न तो प्रसार होता है, इसलिए यह संसार एक बड़ी मुसीबत में है। पूरा संसार परेशानी में है या अब जिस परेशानी में है, कभी नहीं था पहले। यह सब कलियुग में होते रहता है। और फिर ये समस्या है, वह समस्या है, इसका अभाव है, उसका माया का प्रभाव है, वेसे शुकदेव गोस्वामी भी कहे:-
“कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुण: ।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत् ॥” 12.3.51 ॥
यह अख़बारों में जो समाचार या ब्रेकिंग न्यूज़ जो चलता रहता है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया/ प्रिंट मीडिया ये ब्रेकिंग न्यूज़ दिन- रात, २४ *७। जो भी ब्रॉडकास्टिंग होता है उसको मैं कहता रहता हूँ “ तु कली पुराण है” । यहाँ कथा श्री भागवत पुराण की हो रही हैं, अन्य पुराण भी हैं। लेकिन अखबार इत्यादि क्या है? कलि पुराण । कलियुग की सारा रिपोर्टिंग हमारे पास पहुँचती है रोज़। यह भागवत कथा तो हम साल में एक बार ही सुनते हैं,लेकिन आज की ताज़ी ख़बर जिसकी हम प्रतीक्षा करते रहते हैं। चाय तब तक मीठी नहीं लगती जब तक हम यह सारे कड़वे समाचार नहीं पढ़ते हैं । यह संसार भर की कचरा न्यूज़ उसको हम डाउनलोड करते हैं कहाँ? हमारे मन में कहो। कचरे को कचरे के स्थान पर रखना चाहिए लेकिन हम उसको अपने दिल में भी धारण करते हैं। संसार भर का कचरा,बुरी ख़बर, ग्राम कथा, राजनीति, टेररिज़्म और क्या क्या? फिर शिकायत करते हैं, शांति नहीं हैं स्वामीजी शांति नहीं है। सारा संसार ही अशांत है, सारा अशांत समाज, देश, या मानव जाति के कार्यकलापों को हम सुनेंगे तो क्या हम शांत होंगे? अशांत विचारों को सुनकर हम शांत होंगे क्या? लेकिन कृष्ण को कहा है?
“शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्”।।
इस प्रार्थना में कहा है शांताकारं, भगवान् कैसे हैं? शांत आकार के; आकार ही उनका शांत है। फिर भुजगशयनं। तो शांताकारं की कथा सुनाएंगे आपको। शुकदेव गोस्वामी कहे-
“कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुण:”
कलियुग है दोषों का भंडार/ ख़ज़ाना। कई सारी कमियां/ त्रुटियां इस संसार में है। लेकिन शुकदेव गोस्वामी ने कहा कि एक महान गुण है ,बाक़ी सारे तो अवगुण है, लेकिन एक महान गुण है, कौन सा?
“ कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत्” ॥
यदि हम कीर्तन करेंगे और केवल कीर्तन करो ही नहीं कहा है, किसका कीर्तन करना है वह भी कहा है। इस संसार में वैसे दो प्रकार के संग होते हैं, आसानी से कहा जा सकता है दो प्रकार के संग। एक का नाम है असत् संग, असत् मतलब जो सत नहीं है और दूसरा कौन सा बच गया? सत्संग। संसार भर में जो उपलब्ध/प्राप्त संघ है वो अधिकतर असत् संग है। यहाँ जो प्राप्त हो रहा है इस कथा में ,वह कौन सा संग है ? सत्संग।
यह भी कहा है “असत्संग त्यागात ए ही वैष्णव आचार” वैष्णवों को आचार/ व्यवहार में क्या करना चाहिए ? या वो वैष्णव हैं जो असत्संग को त्यागते हैं। असत्संग को त्यागने वाले कहलाते हैं वैष्णव या भक्त या महात्मा कहो, साधु कहो, संत कहो, जो असत् संग दूर रहते हैं।
कृष्णाय वासुदेवाय देवकी नन्दनाय च ।
नन्दगोप कुमाराय गोविन्दाय नमो नम: ।।
(sB1.8.21)
ये कुंति महारानी की प्रार्थना काफी प्रसिद्ध है वैसे, अभी जो मैंने कहा और आप भी दोहराए। ये सरल भी आप कंठस्थ कर सकते हो और ऐसा जब मैं कहता हूँ तो केवल कंठस्थ नहीं और क्या करना होता हैं? हृदयस्थ। कंठस्थ तो तोता भी करता है, लेकिन ह्रदयस्थ नहीं करता। ह्रदयस्थ क्यों? हम जो आत्मा हैं, हम कहाँ रहते हैं? आत्मा कहाँ रहता है? आत्मा का बेस कहाँ है? सिर में कि हाथ में,नाख़ून में, घुटने में, पेट में? नहीं, ह्रदय में। ऐसा कठोपनिषद का कहना है औरर ग्रंथों का भी कहना है या कृष्ण भी कहे हैं, “ सर्वस्य चाsहम हृदी संनिविष्ट:” मतलब हृदय में मैं रहता हूँ और मेरे पास ही जीवात्मा भी रहता है । इस प्रार्थना में भी केवल कंठस्थ ही नहीं करना है, इसके जो भाव हैं उसको भी समझना है। फिर इसीसे हम क्या बनते हैं? कृष्णभावनाभावित हो जाते हैं, जिसको हम हमारी मूवमेंट या अंग्रेज़ी में कहते हैं,”कृष्ण कॉन्शसनेस”, “इंटरनेशनल सोसाइटी फ़ॉर कृष्ण कॉन्शसनेस”। श्रील प्रभुपाद इस संस्था की स्थापना और रजिस्ट्रेशन न्यूयार्क में किये १९६६ में। इस सोसाइटी को नाम दिया इंटरनेशनल सोसाइटी फ़ॉर कृष्ण कॉन्शसनेस, कृष्णभावना तो कृष्ण को ह्रदयस्थ करेंगे या सुनी हुई बातें जो श्रवण के विषय हैं, नाम/ रूप/गुण/ लीला यह नाम रूप गुण लीला धाम के विषय हैं, टॉपिक्स हैं तो इनको ह्रदयस्थ करेंगे। मतलब आत्मा भी श्रवण करेगा, शरीर जड़ हैं और आत्मा है चेतन। जड़वस्तु में चेतना न होने के कारण वह न तो सुन सकता है, न तो बोल सकता है, न तो सूँघ सकता है, न तो कुछ फ़ीलिंग या अनुभव कर सकता है। जड़ तो जड़ , डैड। व्यक्ति जब मरता है तो कभी कभी उसकी आँख खुली भी रहती है, तो आप उसके सामने दो उंगली वग़ैरह दिखाकर पूछेएंगे कि कितनी उँगलियाँ हैं? तो वो कहेगा? नहीं कहेगा। नॉर्मली तो कहेगा, ‘चुप चुप, कीप साइलेंस बच्चे खेल रहे हैं’। लेकिन मरने के उपरांत किसी ने बोम्ब भी मारी उसके कान में तो कुछ कहेगा वो? कान तो हैं, लेकिन सुनता नहीं है । हाथ तो हैं लेकिन हिलता नहीं, इत्यादि इत्यादि। तो अंततोगत्वा बोलने वाला जो है वो है आत्मा। आत्मा ही सुनने वाला भी है और वैसे आत्मा हम हैं।
कुंती महारानी की प्रार्थना काफ़ी विस्तार से हैं। एक समय बम्बई में जहाँ के हम ब्रह्मचारी रहे, मैं जुहू इस्कॉन मुम्बई ज्वाइन किया और प्रभुपाद वहाँ बारंबार आया करते थे और कहा भी करती थे, “बंबई इस माई ऑफ़िस”। जैसे ऑफिस में अधिक समय बिताते हैं सभी ऑफ़ीसर्स या बिजनेसमैन, तो प्रभुपाद भी बंबई में बहुत समय बिताया करते थे और हम भाग्यवान ब्रह्मचारी फ़ुलटाइम डिवोटीज थे। कुंति महारानी की कई सारी प्रार्थनाएँ हैं, आई कान्ट काउंट, करीब तीस एक प्रार्थनाएँ हैं, वचन हैं। तो एक प्रार्थना एक दिन, दूसरी प्रार्थना दूसरे दिन, तीसरी प्रार्थना तीसरे दिन। भागवत कक्षा के समय हमारे मंदिरों में, जिसको भगवतम क्लास भी हम कहते हैं अंग्रेज़ी में। वो प्रतिदिन होती रहती है, इन्क्लूडिग इन चाइना। जहाँ हरेकृष्ण टेंपलस/ सेंटर्स बन रहे हैं । आप किसी को बताना नहीं,धिस् इज इंटरनल मैटर। मैंने बताना नहीं कहा तो फिर आप जरूर बताने वाले हो, ऐसा ही होता है।क्युकी वहाँ हम ओपेनली प्रचार नहीं कर सकते हैं इसलिए थोड़ा अंडरग्राउंड बात है। श्रील प्रभुपाद एक-एक श्लोक (इस प्रार्थना का) उसपर व्याख्या कर रहे थे, फिर एक ग्रंथ भी पब्लिश हुआ है,उसका टाइटल ही है, “ प्रेयर्स ऑफ क्वीन कुन्ति महारानी “ । आप भी कभी प्राप्त करके उसे पढ़ सकते हो।
यह प्रार्थना कुंती महारानी ने हस्तिनापुर में की और जब प्रार्थनाएँ हो रही थीं तो कृष्ण वैसे रथ में विराजमान थे, हस्तिनापुर से द्वारका जाने की तैयारी भी हो रही थी। कृष्ण बैठे हैं , विराजमान हैं और कृष्ण को सामने देखते-देखते, वैसे कृष्ण को ही सम्बोधन हो रहा है। हम प्रार्थना करते हैं, किसको प्रार्थना करते हैं? भगवान को प्रार्थना करती है, या तो हम मूर्ति के समक्ष जाते हैं किसी मंदिर में,धाम में,या अपने घर में भी हो सकता है जहाँ भगवान की विग्रह मूर्ति है। मन ही मन में हम प्रार्थना करते हैं मतलब भगवान को संबोधित करते हैं। हम भगवान को सुनाना चाहते हैं, तो जब कुंती महारानी प्रार्थना कर रही थी तो कृष्ण स्वयं उपस्थित थे वहाँ। भगवान का हुआ था,” संभवामि युगे-युगे “,
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥
धर्म की पुनः स्थापना के लिए भगवान
समय समय पर प्रकट होते हैं ,
तो उसको कहते हैं प्रकट लीला, भगवान अपनी लीला को प्रकट करते हैं,दिखाते हैं। नॉर्मली वैसे तो नित्य लीला चलती रहती है लेकिन अधिकतर वो पर्दे के पीछे ही चलती रहती है, नित्य मुक्त आत्माओं के साथ, शुद्ध भक्तों के साथ। लेकिन जब समस्या होती है इस संसार में तो भगवान यहाँ प्रकट होते हैं। जब धर्म का ह्रास या हानि होती है तो भगवान आते हैं। जब लास्ट टाइम आये थे कृष्ण वे हस्तिनापुर में थे। ये कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद की बात है। और ये जब मैंने कहा वो महायुद्ध था , पाँच हजार वर्ष पूर्व एक वर्ल्ड वॉर हुआ, “ धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे” हुआ लेकिन इस संसार ने नोट नहीं किया। संसार के बुद्धू कहीं के इतिहासकार या हिस्टोरियन्स ने कभी नहीं कहा कि डेट वाज़ द फ़र्स्ट वर्ल्ड वॉर। फिर १९१८ में वे कहते हैं फ़र्स्ट वर्ल्ड वॉर। फिर १९४१ से लेकर १९४४ को कहते कि सेकन्ड वर्ल्ड वॉर। व्हाट अबाउट द कुरुक्षेत्र वॉर? उसको तो द होल वर्ल्ड इज़ मिसिंग। और यह सब फिर डार्विन के कारण भी है, उस समय तो मैन वाज ए केवमैन, लोग तो गुफा में रहते थे । नॉट एडवांसड,इतने प्रगतिशील नहीं थे दूसरों के साथ लड़ना था तो पत्थर फेंकते थे या पेड़ की कोई शाखा लेकर आ जाते और एक दूसरे को पीटते या मारते। यू आर टॉकिंग, आप तो कह रहे हो, ऐसे ऐसे शस्त्र वायु अस्त्र,अग्नि अस्त्र, ये अस्त्र, वो अस्त्र। नों-नों नॉट पॉसिबल, क्युकी मनुष्य तो इतना प्रगत नहीं था। अभी अभी बंदर ही था, फिर और अभी अभी ह्यूमन बीइंग बना था ।
सो यह सारा बकवास संसार भर में फैलाया है; भागवत जो भगवान की रचना है, इसलिए वैसे श्रुति प्रमाण या शास्त्र प्रमाण ही टॉप मोस्ट अथॉरिटी हैं । श्रुति प्रमाण मतलब शास्त्र में श्रुति/ स्मृति । शास्त्रों में जो लिखा है सत्य हैं और शाश्वत है। तो शास्त्र प्रमाण या श्रुति प्रमाण दैट इज वन। अनुमान प्रमाण नंबर टू। फिर प्रत्यक्ष प्रमाण नम्बर थ्री। और भी कुछ प्रमाणों के प्रकार हैं सही, लेकिन ये थ्री आर द टॉप मोस्ट है।
प्रत्यक्ष मतलब क्या? प्रत्यक्ष शब्द कैसे बना? मतलब “प्रति”+ “अक्ष”; ‘प्रति’ मतलब आँखों के सामने जो भी है, जो भी हम देखते हैं उतना ही है। जो दिखता नहीं है वो है नहीं। जिसको हम सुन नहीं सकते वैसे साउंड हैं नहीं। प्रत्यक्ष मतलब अपनी इन्द्रियों का उपयोग करते हुए। हमारे शरीर में पाँच इन्द्रियाँ हैं उनको ज्ञानेन्द्रियाँ कहते हैं। ज्ञान लेकिन इस संसार का ही ज्ञान, सांसारिक रूपों का ज्ञान, आँखों से; सांसारिक शब्दों का ज्ञान कानों से; स्पर्श का ज्ञान त्वचा से; ऐसे ५ हैं।
“अतः श्रीकृष्ण नामादि न भवेत् ग्राह्यम् इंद्रिये “ – ‘अतः’ मतलब दैरफॉर, अतः श्रीकृष्ण; ‘आदि’ मतलब एक्सेक्ट्रा, इत्यादि, जैसे नाम/ रूप/ गुण/ लीला/धाम। ‘न भवेत् ग्राह्यम् इन्द्रिये” अभी हमारी जो इन्द्रियाँ हैं वो कलुषित हैं, दूषित हुई हैं,अपूर्ण हैं, इनसे हम अप्राकृत( जो प्रकृति से परे है) उसको जान नहीं सकते। प्रभुपाद एक स्थान पर ऐसा लिखे हैं। साइंटिस्ट अब थोड़ा सोच रहे हैं, आजकल थोड़ी “स्टडी ऑफ कॉन्शसनेस” की ओर मुड़ रहे हैं। कॉन्शियस मतलब चेतना, “स्टडी ऑफ़ कॉन्शसनेस “ , पहले तो जड़ का ही अध्ययन करते थे, फिजिक्स कैमिस्ट्री आदि जड़ की ही स्टडी है, विद द टेलीस्कोप/ माइक्रोस्कोप। लेकिन माइक्रोस्कोप एंड टेलीस्कोप की भी अपनी क्षमता है, दे हैव देयर लिमिट्स। आध्यात्मिक जगत और वहाँ के व्यक्तित्व इतने सूक्ष्म हैं कि ये टेलीस्कोप एंड माइक्रोस्कोप कैन नॉट कैच। इसीलिए कहा है “न भवेत् ग्राह्यम् इन्द्रिये “। तो एक ही मार्ग है , वह है शास्त्र। फिर हमको साधू भी चाहिए शास्त्रों को समझाने के लिए। केवल हम टैक्स्ट बुक ख़रीद तो लिये, दैन यू हैव टु गोट टु द कॉलेज। वहाँ प्रोफ़ेसर या टीचर पढ़ाएंगे आपको, सिखाएंगे। यदि कृष्ण को समझना है, भगवान को ही नहीं हमको खुद को समझना है तो उसके लिए टेक्स्ट बुक्स हैं, उसका अभ्यासक्रम है।
ये वेद,पुराण, गीता,भागवत,महाभारत यह सब,“ जीवेर कृपाय कैला कृष्ण वेद पुराण” , जीव पर कृपा करने हेतु भगवान ने वेदों-पुराणों की,शास्त्रों की रचना की हुई है और इन शास्त्रों को पढ़ाते हैं ये टीचर्स,आचार्यवृंद, गुरुजन, महात्मा; स्पेशली परंपरा में आनेवाले आचार्य,भक्त हमको जो पढ़ाते हैं शास्त्र,तो फिर हमको दिखने लगता है। इसके लिए प्रार्थना भी है, “ ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानांजन शलाकया चक्षुर उन्मीलितम येन तस्मै श्री गुरुवे नमः”- मैं गुरुजी को नमस्कार करता हूंँ और मैं कृतज्ञ हूंँ क्युंकि उन्होंने क्या किया? मैं अज्ञानी था, अज्ञान से पूर्ण था, जब व्यक्ति अज्ञानी होता है तो अंधकार में ही होता है, उसको दिखता ही नहीं। भगवान नहीं दिखते, खुदको भी नहीं देख पाता। “ चक्षुर उन्मिलितम” उन्होंने क्या किया? हमारी आंखें खोल दी। तो जब सत्संग होते हैं तो आसानी से कह सकते हैं कि ये “आई ऑपरेशन कैंप” या शिविर चल रहा है। आंखों का ऑपरेशन होता है और हमको दिव्यचक्षु मिलते हैं। आत्मा की आंखें हैं, आत्मा व्यक्ति है, पर्सनैलिटी है,उसके कान हैं, नाक है लाइक अ फुल फ्लेज्ड पर्सन। ज्ञान अंजन तो गुरु क्या करते हैं? आंखें खोलते हैं और उसमें ज्ञान का अंजन डालते हैं। शस्त्र उपयोग करते हैं ऑपरेशन के लिए । हरि हरि!
राजा परीक्षित के भगवान हस्तिनापुर में थे ,यहाँ प्रार्थना भी हुई है कुंति महारानी की,भगवान को सामने देखते देखते प्रार्थना कर रही थी। अब कृष्ण बहुत समय से द्वारका से दूर थे। ही वाज़ आउट ऑफ़ स्टेशन, कुरुक्षेत्र के युद्ध के लिए आए ,तो वहाँ भी समय बीता, फिर हस्तिनापुर आए, हस्तिनापुर से पुनः लौटे, बैक टु कुरूक्षेत्र,भीष्म पितामह का प्रयाण हुआ, पुनः हस्तिनापुर आए हैं और कुछ समय के उपरांत अब वे द्वारका के लिए प्रस्थान कर रहे हैं। जो आप देख रहे हो यह उस समय का ही फोटोग्राफ है, इट इस एक्चुअल फोटोग्राफ, पेंटिंग है। इट इस हिस्ट्री,एक्चुअल फैक्ट। एक उद्धव है और दूसरे अर्जुन हैं,जिन्होंने छत्र धारण किया है पीछे, सत्यकी और उद्धव चंवर डुला रहे हैं। भगवान द्वारका के लिए प्रस्थान किये और हस्तिनापुर से किस मार्ग से भगवान द्वारका गए ये वर्णन भी है। रास्ते में पांचाल देश, कुरुजाँगल, यमुना के तट से कुरुक्षेत्र भी होते हुए, मरु भूमि मतलब राजस्थान होते हुए ,सौराष्ट्र होते हुए वे आनर्थ पहुंचे, द्वारका प्रदेश को पांच हजार वर्ष पूर्व आनर्थ देश कहते थे, आज भी कहते हैं। नामकरण कुछ परिवर्तित होता रहता है लेकिन उस समय किस मार्ग से भगवान गए और जहां-जहां से भगवान् गुजर रहे थे वहाँ भगवान का स्वागत, “सुस्वागतम कृष्ण” और पड़ाव होता था ,सभी रात्रि को कहीं ना कहीं रुक जाते थे, फिर महास्वागत होता। ऐसे रास्ते में असंख्य जीवात्माओं को दर्शन और सेवा का अवसर देते हुए कृष्ण द्वारका पहुंच जाते हैं। द्वारका धाम की जय! जो उनका बेस है, द्वारका से ही भगवान अलग-अलग स्थान पर जाते थे और वापस द्वारका आते थे। द्वारकाधीश वहां के राजा ही वे हैं तो वहाँ पर भी स्वागत होता है उनका। आप देख रहे हो डांस, म्यूजिक और वहाँ के महल, समुद्र भी वहाँ है ही। आजकल तो वहाँ बेट द्वारका कहते हैं, आयलैंड द्वारका। कुरुक्षेत्र युद्ध के उपरांत कृष्ण जब हस्तिनापुर में ही थे, रथ में विराजमान भी हुए थे जाने के लिए इतने में और एक प्रार्थना भगवान ने सुनी,
“पाहि पहि महा योगिन देव देव जगतपते
नान्यम त्वद भयम पश्ये यत्र मृत्यु परस्परम।”
उत्तरा ने प्रार्थना की,अभिमन्यु की धर्मपत्नी, अभिमन्यु जो अब नहीं रहे,युद्ध में मारे गए, लेकिन उनकी धर्मपत्नी गर्भवती थी। इतने में अश्वत्थामा जिनके पिताश्री का वध पांडवों ने किया था, ये अश्वतथामा बदला लेना चाहता है, वैसे उसने सुभद्रा के पांचो पुत्रों का वध किया था। पांच पांडव के एक -एक पुत्र ने जन्म लिया द्रौपदी के गर्भ से, उनकी हत्या तो तंबू में जब वे सोए हुए थे तो वहाँ जाकर उनकी जान ली। अब बस पांडवों का एक ही वंशज बचा था और वह कौन थे? उत्तरा के गर्भ में। मूर्ख अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र फेंका उत्तरा के गर्भ की ओर और अपनी जब ब्रह्मास्त्र को आते हुए उत्तरा ने देखा, तो वह जोर से पुकारी, “पाहि, पाहि” पाहि मतलब बचाओ,’ महायोगीन’ आप ही महायोगी हो, ‘देवदेव’ मतलब देवों के देव आप हो, ‘जगत्पते’ जगत के पति हो, ‘न अन्य त्वद पद्यम पश्ये’। ये गॉड रियलायज़ेशन है। उत्तरा पूरे साक्षात्कार के साथ कह रही है,”आपके अलावा और कोई है ही नहीं, अभयदान देनेवाला, मृत्यु से बचाने वाला। इसलिए कहावत भी है, “ राखे कृष्ण मारे के,मारे कृष्ण राखे के” । यदि कृष्ण हमारी रक्षा करना चाहते हैं तो कौन मार सकता है? लेकिन अगर कृष्ण ही किसी को मारना चाहते हैं उसकी रक्षा कौन कर सकता है? कृष्ण कन्हैया लाल की जय! तो जैसे ही उत्तरा ने कृष्ण को पुकारा, कृष्ण चले आए। कहां आए? उन्होंने गर्भ में प्रवेश किया और उनके हाथ में गदा थी। भगवान, परीक्षित जो गर्भ में थे, उनके चक्कर लगाने लगे जैसे चौकीदार राउंड लगाता है। उस समय परीक्षित, अभी तक नाम नहीं था, नामकरण नहीं हुआ था, तो परीक्षित हो गए सहोदर, सहोदर माने ‘स उदर’ मतलब उदर में एक और व्यक्ति जो जुड़वे बालक होते हैं, वह सहोदर ट्विंस कहलाते हैं। एक तो परीक्षित दूसरे ट्विन कौन हैं? स्वयं भगवान। गर्भ में प्रवेश करके रक्षा किये तो उनको सहोदर कहते हैं। कृष्ण ने रक्षा की, परीक्षित को बचाया, तो जब जन्मे परीक्षित महाराज, तो वे स्मरण कर रहे थे जिसको उन्होंने देखा था गर्भ में। परीक्षित महाराज का जन्म, उनका कार्य और उनका मरण यह सारा अद्भुत है, आश्चर्यजनक है। यहाँ तो जन्म की बात हो रही है, तो जब जन्म में तो स्मरण कर रहे थे कृष्ण का। जिनकी और भी वह देखे तो, क्या इनको मैंने देखा था क्या? नो नो। नॉट हिम। व्हाट अबाउट, क्या इनको देखा था? फिर ऐसे किसी और महाशय को देखा, तो नो नो नॉट हिम। नेति नेति! नॉट धिस, नॉट हिम, नॉट हर। ऐसा परीक्षण कर रहे थे, जिस व्यक्ति को देखते थे उसका परीक्षण करते थे। देखे तो कृष्ण को ही थे, तो पुनः जब कभी मिलन हुआ तो, “आह! धिस् वन,इनको ही देखा था।” तो परीक्षण और निरीक्षण करके वे कनक्लूज़न पे आये कि संसार के किसी व्यक्ति को उन्होंने नहीं देखा था, कृष्ण को देखा था। तो इस परीक्षण के कारण करके उनका नाम परीक्षित पड़ा। कृष्ण जब द्वारका से कुरुक्षेत्र आए थे, कुरुक्षेत्र का युद्ध हुआ, वो कृष्ण लगभग 100 वर्ष की आयु के थे, इस संसार के कैलकुलेशन के अनुसार। फिर बचे हुए वर्ष में उन्होंने द्वारका में और फिर आउट ऑफ स्टेशन आना जाना चलता रहा और फिर फाइनल क्या हुआ? “कृष्ण स्वधाम उपगते “ कृष्ण अंतरध्यान हुए। वैसे उन दिनों में पांडवों ने अर्जुन को भेजा था द्वारका ताकि वह पता लगवाके आये कि कृष्ण कैसे हैं? वे है कि नहीं रहे? या अपने धाम लौट गए? इसका पता लगवाने के लिए अर्जुन को युधिष्ठिर महाराज इत्यादि पांडवों ने द्वारका भेजा। तो सात महीने बीत गए अर्जुन नहीं लौटे, वो समय बड़ा कठिन था पांडवों के लिए और भक्तों के लिए भी। सभी चिंतित थे और कई सारे अपशगुन भी देख रहे थे। सबको शंका थी कि इसका मतलब यह है कि कृष्ण नहीं रहे।
तो फाइनली जब अर्जुन लौटे तो उन्होंने समाचार सुनाया, ही ब्रोक द न्यूज़ कि कृष्ण इस नो मोर इन दिस वर्ल्ड। ऑफ कोर्स कृष्ण की मृत्यु नहीं होती। अभी सूर्यास्त हुआ न, तो क्या सन अभी मर गया क्या? नहीं, सूर्य और किसी देश में उदित हुआ है। ये हमारी भाषा है कि सूर्य का उदय हुआ, सूर्यास्त हुआ लेकिन सूर्य को कुछ नहीं होता है, वो जैसे होते हैं वैसे ही रहते हैं। जब समाचार प्राप्त किये पांडव तो उसी के साथ उन्होंने निर्णय लिया कि अब हम भी नहीं रहेंगे। जो कारोबार संभाल रहे थे युधिष्ठिर महाराज सम्राट बनके, उनके भ्राताश्री भी उसमें सहायता करते थे , दे इम्मीडिएटली रिटायर्ड। श्रीमद् भागवत् में ये अध्याय ही है “ पांडवों की सामयिक निवृत्ति”। वो समय आगया जब कृष्ण ही नहीं हैं संसार में तो वे सेवा निवृत्त हुए। फिर राजा परीक्षित को राज्याभिषेक करवाये, तो अगले सम्राट रहे युवराज परीक्षित। महाराज परीक्षित की जय!
उनकी राजधानी थी हस्तिनापुर में और वे पृथ्वीपति थे। उस समय सम्राट मतलब राजाओं का राजा। कई सारे पृथ्वी पर राजा थे लेकिन राजा परीक्षित सम्राट थे जो हस्तिनापुर से सारा कारोबार संभालते थे। पांडव अब बद्रिकाश्रम की ओर प्रस्थान करते हैं। महाभारत में विस्तृत वर्णन है कैसे रास्ते में एक एक का शरीर छूटता गया। द्रौपदी ने सबसे पहले शरीर छोड़ा, फिर सहदेव ने, फिर नकुल नहीं रहे अभी, अर्जुन नहीं रहे। बद्रिकाश्रम में एक ‘भीम का पुल’ नामक स्थान है, सरस्वती को क्रॉस करने केलिए भीम ने एक बहुत बड़ा पत्थर उठाया, या चट्टान ही उठाई कहो, और रख दी, फिर उसपे चलके क्रॉस किये। दो ही भाई बचे थे अब, फिर भीम का भी देहांत होता है। फिर युधिष्ठिर महाराज बचे तो स्वर्ग से विमान आता है। उनके साथ वैसे रास्ते में एक कुत्ता भी जॉइन किया था वो भी जा रहा था। तो युधिष्ठिर महाराज जब यान में चढ़ रहे थे तो कुत्ता भी चढ़ गया। लेकिन प्लेन के जो चालक थे वो बोले, “ डॉग उ गो आउट “ कुत्ता नहीं आसकता। युधिष्ठिर महाराज बोले,” अगर कुत्ता नहीं आसकता तो मैं भी नहीं आऊंगा”। इतने दिनों से हम सभी पर निर्भर था, ही वास डिपेंडेन्ट ऑन अस, हम उसको मैनटैन करते थे, उसकी रखवाली या देखभाल करते थे। तो अब बिचारा और कहाँ जायेगा? उसको भी आना होगा।” वैसे वो साधारण कुत्ता नहीं था, यमराज ही थे जो परीक्षा ले रहे थे तो युधिष्ठिर महाराज उसमें पास होगये। ऐसे थे भक्त वत्सल कहो या आश्रयदाता , युधिष्ठिर महाराज की जय! उन्हें धर्मराज भी कहते हैं। “युधि” मतलब युद्ध में और “थिर” मतलब युद्ध में स्थिर, गंभीर। अब राजा परीक्षित कारोबार संभाल रहे थे, एक समय उन्होंने देखा कि कोई राजा जैसा भेष तो पहना है ,उसके हाथ में तलवार है लेकिन गाय को पीटने या काटने का प्रयास कर रहा था। जब परीक्षित ने देखा तो अपनी तलवार को निकाल के उसे मारने को उद्यत हुए। उस व्यक्ति का खाण्डोले खाण्डोले करने केलिए तैयार थे। वो राजा नहीं था , बस राजा के भेष में कलि ही था। कलि मूर्तिमान बनगया, उसने राजा का रूप धारण किया था। राजा परीक्षित उसकी जान लेना चाहते थे, क्युकी वो गाय की हत्या का प्रयास कर रहा था। सम्राट हो तो राजा परीक्षित जैसे। सम्राट परीक्षित महाराज की जय! ऐसे रहे हैं हमारे पूर्वज, ऐसे आदर्श हैं हम कभी के समक्ष, हरि हरि! लेकिन हम वैसे भारतीय नहीं रहे, वी आर बिकमिंग इनडियंस। पाश्च्यात्त देश की संस्कृति आदि की नकल करते करते हमलोग अपनी भूल गये। भारत का जो संसद भवन , करीब 20-25 वर्ष पूर्व, उसमें एक एजैंडा टॉपिक आया, वो ये था कि हमारे देश के जो कतलखानें हैं, उसमे पशु को काटने वाले जो हथियार या ब्लैड्स हैं वो तीक्ष्ण नहीं है,इसलिए पशुओं जो काटते-काटते थोड़ा समय लगता है जिसके कारण पशुओं को बड़ा कष्ट होता है। व्हाट टू डू? क्या किया जाए? खूब विचार विमर्श हुआ और रिज़ॉल्यूशन पास हुआ। वो क्या था? वी हैव टू मॉर्डोंर्नाइज् आवर स्लॉटर हाऊसेस। कतलखानों का आधुनिकीकरण करना होगा। उसके लिए क्या करेंगे? वी विल इंपोर्ट ब्लैडस् फ्रॉम आयरलैंड। हमारे सांसदों को खूब दया आई कि पशुओं को कष्ट होता है, तो अब से उनको तकलीफ नहीं हुआ करेगी, चाहे वो भैसें हो या गाय,बैल,बकरी हों। इसलिए मैंने कहा हमारे आदर्श युधिष्ठिर महाराज जैसे होने चाहिए। जब वे शस्त्र चलाएंगे तो चलाना है कि नहीं चलाना है?कब चलाना है? किसके ऊपर हमला करना है? वो कौन डिसाइड करेगा? शास्त्र बतायेंगे। शास्त्र किनके पास होते हैं? ऋषिमुनियों के, आचार्यों के साथ होते हैं। धिस् इस द टीम, ऐसी टीमें हुआ करती थी इसलिए राजाओं को राजऋषि कहते थे, सेंटली किंग। सेंट एंड द किंग, राजा और ऋषि का टीम एफर्ट हुआ करता था। शस्त्र का उपयोग शास्त्र के विधि-विधानों के अनुसार होता था। आई थिंक वी विल स्टॉप हीयर। इस संबंध में बहुत कुछ कहने की बातें हैं वैसे। धन्यवाद आप आते रहे और शांत चित्त से सुनें। सुनने के बाद वैसे क्या करना होता है? स्मरण करना चाहिए,
“श्रवणम् कीर्तनम् विष्णु स्मरणम् पादसेवनम्
अर्चनम वंदनम दास्यम सख्यम आत्म निवेदनम”।।
तो मननं करना चाहिए। एक बात मैं कहूँगा वैसे, इस समय इस्कॉन के डिवोटीज भक्त वृंद और हमारा काँग्रेगेशन ग्रंथों का वितरण कर रहा है, भगवद् गीता और भागवत का वितरण विश्वभर में होरहा है। जहाँ भगवद् गीता की बात है तो इस्कॉन इस वर्ष, वर्ष नहीं, जस्ट दिसंबर और जनवरी 15 तारीख तक एक दो महीने में हम लोग तीस लाख भगवद् गीता वितरण करने का संकल्प लिए हैं, जो है थ्री मिलियन कॉपीज़ ऑफ भगवद् गीता अराउंड द वर्ल्ड। अधिकतर वितरण इंडिया में होगा क्युकी पॉपुलेशन यहाँ अधिक है। इसके साथ ही साथ श्रीमद् भागवत के सेट का भी वितरण हो रहा है। केशव प्रभु मुझे कहे तो थे इस भागवत कथा के अंतर्गत, इसके समापन के पहले 108 सेट्स ऑफ भागवतम का वितरण करने का संकल्प भागवत कथा समिति ने लिया हुआ है। हरि बोल! ये भागवत को केवल सात दिन ही नहीं सुनना या पढ़ना होता है। बल्कि प्रतिदिन करना चाहिए। ये सारी न्यूज़ है, भगवान् की न्यूज़, भगवत धाम से न्यूज़, भक्तों की ओर से समाचार। बाकी तो कचरा है ऐसा सुने ही हो। आई थिंक 108 में से कितने सेट्स का वितरण हुआ है अबतक? लगभग 20 सेट्स का होचुका है। अभी तो मंज़िल दूर है। और भी कहो थोड़ा इसके संबंध में। सब एक एक सेट अपने-अपने घर ले जाईये और प्रतिदिन यही पढ़ो, “ श्र्णवंती गायंती गृहनंति साधव:” । सज्जन बनो, सभ्य बनो, औरों को परेशान मत करो। लेकिन करोगे जरूर अगर आप गीता भागवत् नहीं पढ़ोगे। आप शांत चित्त के नहीं बनोगे, उच्च विचार के नहीं बनोगे तो आप जरूर उपद्रव उत्पन्न करोगे, फिर वो घरवालों को हो सकता है, पड़ोसी है या एक देश का दूसरे देश के साथ, ये सब चल ही रहा है। वी विश तो स्टॉप दिस। फिर इस कथा का उद्देश्य- विश्व शांति के लिए महायज्ञ हम कर रहे हैं। मनः शांति से फिर विश्व शांति। श्रीमद् भागवत की कथा के समय श्रवण और कथा के उपरांत भी श्रवण। वैसे इस्कॉन मन्दिर में प्रतिदिन कथा होती है, उसको भी आप ऑनलाईन वगैरह पे सुन सकते हो। लेकिन आपके घर में अपना खुद का एक भागवत का सेट हो सकता है। कोई है दिखाने का सेट? ओ के, से समथिंग। वहाँ पर भी है, ऑल राइट सो आई विल स्टॉप हियर।